पहलगाम की वादियों में जब 26 हिंदुओं की लाशें क्या गिरीं, एक बार फिर घाटी की हवा में बारूद घुल गई, लेकिन इस बार केवल खून नहीं बहा— इस बार इंसानियत भी बही, कश्मीरियत भी बही और सालों से आंखों पर लगी सेकुलरिज्म की पट्टी भी बह गई। जो लोग अब तक यह कहा करते थे कि ‘आतंक का कोई धर्म नहीं होता।’ उन्हें भी अब समझ आ गया होगा कि आतंक का धर्म कौन सा है और उसका रंग क्या है।
इस नरसंहार पर आई प्रतिक्रियाएं जितनी तेज और मुखर रहीं, उसने यह सोचने पर मजबूर किया कि आखिर कश्मीरी समाज, विशेषकर कश्मीरी मुसलमानों की भाषा आतंक को लेकर एकाएक मजमत क्यों करने लगी ? क्या यह मुखालफत इस बात की स्वीकारोक्ति है कि इस बार इन कश्मीरियों को जोर का झटका लगा है? क्योंकि जब किसी की जेब फटती है तभी पंजीरी बंटती है। हर बार जब कश्मीर में कहीं हमला होता था, तब कुछ चेहरों से संवेदना की पपड़ी उधड़ती थी, बयान जारी होते थे, 'घटना की निंदा' की जाती थी और फिर कुछ दिनों में सब कुछ सामान्य हो जाता था। लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ। आज कश्मीरियत रो रही है और कश्मीरी भी। वह भी सिर्फ इसलिए कि अब इनको भारी आर्थिक नुकसान की चिंता सताने लगी है। इनके पर्यटन का बट्टा बैठने वाला है। क्या यह स्थिति वास्तव में सामूहिक संवेदनहीनता की अभिव्यक्ति नहीं है? पहलगाम में हुए इस नरसंहार के बाद अचानक कश्मीर के व्यापारी, वकील, टूर ऑपरेटर और होटल व्यवसायी 'गंभीर' हो गए, सोशल मीडिया पर आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा और हर ओर एक सुर में कहा जाने लगा — "यह हमला गलत है, इससे कश्मीर की छवि खराब होगी, पर्यटन पर असर पडे़गा।" लेकिन क्या यह संवेदना वास्तव में इन निर्दोषों की हत्या के लिए है, या फिर इसलिए कि अब आपकी जेब पर असर पड़ा है? आप एक सुर में इसे देश की छवि से भी तो जोड़ सकते थे लेकिन नहीं आप तो मात्र कश्मीर को लेकर चिंतित हैं। अगर ये हमले न होते, लेकिन पर्यटक खुद ही न आते, क्या तब भी यही दर्द उठता? क्या संवेदना का स्रोत इंसान की जान है, या वह पैसा जो वे घाटी में खर्च करते हैं? ये सवाल आज अनिवार्य हैं क्योंकि यही वो घड़ियाली आँसू हैं जो दशकों की चुप्पी पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं।
यह देश आज भी 1990 के उस नरसंहार को आज तक नहीं भूला है। क्या यह कश्मीरी आज खुले मन से स्वीकार कर सकते हैं कि तब पंडितों को “रालिव, त्सालिव या गैलिव” यानी धर्म बदलो, मरो या भागो के संदेशों के बीच मौत के घाट उतार दिया गया था। जिस मोटरसाइकिल पर सवार होकर यह वहशी जानवर गोलियां चलाया करते थे वह मोटरसाइकिल आज फिर एक बार पहलगाम के गोल्फ कोर्स पर लावारिस खड़ी है। इससे पहले भी अब तक सैकड़ों हिंदुओं और गैर मुसलमानों का कत्ल हुआ तब तो इन कश्मीरियों ने ऐसी हाय तौबा या घटना की ऐसी मजम्मत नहीं की फिर अब इसकी क्या वजह हो सकती है? आज जब वही मानसिकता दोहराई जाती है, तो जवाब में सिर्फ़ आर्थिक नुकसान की चिंता व्यक्त की जाती है, न कि उस वैचारिक संक्रमण की जो आतंकवाद को अब भी पनाह देता है।
26/11 का हमला जो मुंबई की सड़कों पर हुआ, जब कसाब और उसके साथियों ने निर्दोषों को गोली से भूना, तब पूरे देश की रगों में सिहरन दौड़ गई थी। लेकिन कश्मीर की मस्जिदों में कोई विशेष नमाज़ नहीं हुई, कोई मौलवी दहाड़ कर आतंक के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ, कोई बैनर नहीं बना जिसमें लिखा हो — 'हम आपके साथ हैं, मुंबई।' कश्मीर में किसी सेना के जवान के शहीद होने पर कभी उस गांव का बाजार बंद नहीं होता तब यह मौन चुभता है। वह मौन कहीं न कहीं आतंक के प्रति उस मानसिक सहमति की ओर इशारा करता है जो कहती है — अगर हमला 'दूसरों' पर है, तो यह हमारा मसला नहीं। यही मौन आतंकवाद का सबसे घातक ईंधन बन चुका है, यही खामोशी आतंक की सबसे भरोसेमंद ढाल है। जिसकी आड़ में आज भी इन विदेशी आतंकवादियों को रहने और छिपने में मदद की जा रही है। जिन्हें भारतीय सेना अब पाताल से भी ढूंढ निकालेगी।
जब घाटी में किसी आतंकी के मारे जाने पर जनाज़े में हज़ारों लोग जमा होते हैं, जब उन पर 'शहीद' का तमगा लगाया जाता है, जब मस्जिदों में उनके लिए विशेष दुआएं पढ़ी जाती हैं, तब यही समाज उस हिंसा का पोषण कर रहा होता है जिसे बाद में खेद के नकली आँसुओं से धोने की कोशिश की जाती है। कश्मीर की संवेदना को अब धार्मिक पहचान की सीमाओं से बाहर निकालने की आवश्यकता है। क्या किसी हिंदू की मौत केवल इसलिए कम महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वह 'घाटी का बेटा' नहीं था? क्या इंसानियत की परिभाषा अब इस बात से तय होगी कि मरने वाला किस धर्म का था? अगर ऐसा है तो यह केवल घाटी का नहीं, पूरे भारत का नैतिक पतन है। पहलगाम की घटना ने यह उजागर कर दिया है कि अब आतंक केवल बंदूक से नहीं मारता — अब वह चुप्पियों से, खामोश समर्थन से और मौन स्वीकृति से जान लेता है। और जब तक यह खामोशी टूटती नहीं, जब तक यह मौन ऐसा ही मुखर होकर नहीं बोलता जैसा आज बोल रहा है आपसे हमदर्दी नहीं हो सकती। जब तक आपकी आवाज हर आतंकी के खिलाफ नहीं उठेगी तब तक कश्मीर का भविष्य किसी उजाले की ओर नहीं जा सकता। यह समय है जब घाटी वालों को आत्ममंथन करना चाहिए, अपने अंदर झांकना चाहिए और खुद से पूछना चाहिए — क्या हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि हर मौत पर अफसोस करें न कि केवल कारोबार पर असर डालने वाली घटना पर। अगर कश्मीरी समाज वाकई इस खून से आहत है, तो उसे शब्दों से नहीं, कर्मों से साबित करना होगा। हर मस्जिद से आतंक के खिलाफ फतवा निकलना चाहिए, हर शिक्षण संस्थान में इस पर विमर्श होना चाहिए, हर माँ को अपने बेटे से कहना चाहिए — बंदूक तुम्हें कभी स्वर्ग नहीं दिलाएगी, वो तुम्हें नरक में भी नहीं छोड़ेगी। अगर यह नहीं हुआ, तो यह खून केवल पहलगाम की घाटियों में नहीं बहेगा, यह उन मासूम कश्मीरियों की रगों में भी बहेगा जो अब भी खामोश हैं। यह खामोशी उन्हें भी डुबो देगी — चुपचाप, बिना आवाज किए, लेकिन बहुत गहरे। ( देश के वरिष्ठ पत्रकार माधव जोशी की कलम से )
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