बात पुरानी नहीं है। डेढ़ साल पुरानी। मैंने सोचा कि बहुत दिनों से घुमाई नहीं हुई तो चला जाए घाटी। घाटी पहले भी जा सकते थे। मौके भी रहे। सुविधाएं भी थीं। नहीं जा पाए। सेबों को तोड़ के, पेंट से रगड़ कर खाने की इच्छा दबी ही रह गई। लंदन में पूरी भी हुई पर संकुचित सी रही। फिर अपने वतन में खाने की इच्छा बलवती हुई और कार्यक्रम बना लिया। साथी बने राय साहब और उनका श्रीमती जी। गाइड बने वरिष्ठ पत्रकार अनिल माहेश्वरी। कैसे , कहां जाएंगे, यह उन्होंने ही व्हाट्सअप किया। तो हम लोग सपत्नीक सबसे पहले उधमपुर पहुंचे और फिर वहीं, जहां झेलम का उद्गम नजर आता है। वेरीनाग। शांत वेरीनाग में हम खूबसूरती ही निहारते रह गए। आगे बढ़ना था । दूसरे दिन हमारी मंजिल दकसुम थी। दकसुम यानी अनंतनाग में ही भीतरी इलाका। हरी - भरी पहाड़ियां, कल- कल करते पानी की आवाज और भारतीय जवानों की ठीक - ठाक उपस्थिति ने हमारा डर काफूर कर दिया था। खराब खबरों के लिए अनंतनाग बदनाम रहा है।
जहां हमें ठहरना था वो जम्मू कश्मीर टूरिज्म बोर्ड के काटेज थे। छोटी- छोटी पहाड़ियों पर ऊँचे-नीचे बने ऐसे कई कॉटेज थे पर उन तक पहुँचने के बहुत तैयार रास्ते नहीं थे, आपको रास्ते खुद ही बनाने होते थे। हालांकि रिहायशी इलाका काँटेदार तारों से घिरा हुआ था। पर रात में कॉटेज के बाहर घूमने -टहलने का कोई ज़रिया नजर नहीं आ रहा था। पास में बह रहे झरने की कल-कल निरंतर सुनाई पड़ती थी। नितांत शांत माहौल। दोपहर में जो भी खाने को मिला ,खाया। वैसे दकसुम का ऊपरी इलाका जंगलों से भरा है और उस इलाके में पांच बजे के बाद सेना जाने भी नहीं देती है। हमको तो तीन बजे ही मना कर दिया था। यानी यहां आतंकियों के ठिकाने ज्यादा होते हैं।
सुपरवाइजर को रात के इंतजाम की इच्छा बता दी। घूमघाम के बाद पहुंचे तो डायनिंग हाल में गपशप का दौर शुरू हुआ। कुछ ही मिनट हुए थे कि बाहर से किसी ने दरवाजा खटखटाया। हम भी चौके कि आठ बजे रात में कौन है । गेस्ट हाउस के इंतजामकर्ता भाग के आगे बढ़े , दरवाजा खोलने । हमने आंखों - आंखों में निर्देश पूछे। डोंट वरी का संकेत था। दरवाजा खोलते ही देखा कि चार युवा फिरन में मौजूद थे। तीन के कंधे में लदी हुई लौकियां। आदाब के साथ वो सुपरवाइजर/ कुक के कमरे की ओर थे। उन मेहमानों को अंदर बैठाने के बाद सुपरवाइजर बाहर आया। बोला - दोस्त हैं। हमने भी अपना सामान समेटा और सभी एक कमरे में सिमटे । कुछ देर बाद वहीं खाना मंगवाया। इस बीच में एक ही सवाल बार - बार कौंध रहा था कि रात आठ बजे कौन मेहमान लौकी लेकर खाना खाने आता है। हम लोग भले ही अपने - अपने कमरों में सिमट गए थे लेकिन रात भर जरा सी आहट में यही लग रहा था कि कहीं कुछ तो गड़बड़ है। पहलगाम के हमले के बाद यह दृश्य अब कुछ ज्यादा ही याद आ रहे हैं. कंधे के ऊपर भले ही लौकी रही हो, फिरन के नीचे कुछ ही हो सकता था। बार - बार लग रहा था कि कहीं ये जंगलों में रहने वाले तो नहीं। रात में सेना का दबाव कम होने पर अपने खान- पान के इंतजाम में नीचे आए हों। उनकी सद्भभावना में ही हमें हमारा जीवन लग रहा था। आशंकाओं के बीच रात कटी। जरा ही आहट होती थी तो पर्दा हटा कर झांकने की कोशिश करते थे। लेकिन सुबह होते ही हम समय से पहले अगली मंजिल पहलगाम की ओर निकल पड़े थे। यों खतरा कहीं पर भी हो सकता है पर यह खतरा कुछ अलग था। खास तौर से अब तो ऐसा ही नजर आ रहा है। वैसे बाद के अगले 5 दिन बहुत अच्छे बीते. ( नवोदय टाइम्स के सम्पादक अकु श्रीवास्तव की कलम से )
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