मैथिल कोकिल’ विद्यापति चौदहवीं शताब्दी के कवि थे और निर्विवाद रूप से उनका यश सोलहवीं शती के अंत तक समस्त पूर्वी भारत में व्याप्त हो चुका था। सिलीगुड़ी में उनके स्मृति में 13 अप्रैल को सिलीगुड़ी विद्यापति मंच के द्वारा सेवक रोड स्थित उत्तरबंग मारवाड़ी पैलेस दिन के 1:30 बजे रंगारंग कार्यक्रम के साथ प्रारंभ होगा। इसकी जानकारी संस्था की ओर से बबीता झा ने दी। बताया कि विद्यापति का बंगाल से विशेष लगाव था। बंगाल की श्रुति परंपरा में विद्यापति के पद बहुत लोकप्रिय रहे हैं। गौड़ीय वैष्णव भक्तों ने इन पदों को बड़ी सावधानी से सुरक्षित रखा। सबसे प्राचीन पोथियों में विश्वनाथ चक्रवर्ती की 'क्षणदागीत चिंतामणि' (1705 ई.) और राधामोहन अंकुर द्वारा संकलित ‘पदामृत समुद्र’ (अठारहवीं शताब्दी) हैं। विद्यापति के पदों के संकलन का ठोस कार्य सबसे पहले शारदाचरण मित्र ने किया। 1881 ई. में जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने गायकों के मुख से सुनकर 82 पद एकत्र किए। बाद में बंगाल के नगेंद्र नाथ गुप्त ने ‘विद्यापति पदावली' का संपादन किया। 'विद्यापति पदावली' नाम से एक संग्रह अमूल्य विद्याभूषण और खगेंद्रनाथ मित्र ने किया। बंगाली संस्करणों में नगेंद्रनाथ गुप्त का संकलन अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इन्होंने काफी संतुलित और परीक्षणात्मक ढंग से काम लिया। रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में ‘विद्यापति पदावली’ प्रकाशित हुई। यह संकलन मुख्यतः नगेंद्र नाथ गुप्त की ‘विद्यापति पदावली' पर आधारित है। इन सभी प्रकाशित और अप्रकाशित सामग्रियों के आधार पर खगेंद्रनाथ मित्र और विमानबिहारी मजूमदार ने 'विद्यापति' नाम से एक वृहत् संकलन और तैयार किया। इसमें मजूमदार ने एक विद्वत्तापूर्ण भूमिका भी लिखी है। 1954 ई. में सुभद्र झा ने काशी से 'द सांग्स ऑव विद्यापति' नाम से एक नया संकलन छपवाया। विषय की दृष्टि से विद्यापति के पद कई श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं। अधिकांश पद राधा और कृष्ण के प्रेम के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन करते हैं। कुछ पद प्रकृति संबंधी हैं। कुछ पद विभिन्न देवताओं की स्तुति में लिखे गये हैं। ये शैव संप्रदाय से संबंधित थे, इसलिए स्तुति-पदों में सबसे अधिक पद शिव और उमा के संबंध में है। उमा-शिव विवाह वाले पदों में शिव में ईश्वरत्वबुद्धि और तज्जन्य श्रद्धा का समावेश है, किंतु इनमें सामान्य-जीवन, हास-परिहास तथा व्यंग्य-विनोद का भी पुट कम नहीं है। ‘हम नहिं आज रहब यहि आँगन गे माई’, ‘नाहिं करब वर हर निरमोहिया’, और ‘एत जप तप हम किय लगि कैलह’ जैसे पदों में सुंदरी गोरी और भूतभावन शंकर के बेमेल विवाह पर व्यंग्य और अंत में कन्या के अक्षय सौभाग्य की सदिच्छा व्यक्त की गयी है। प्रार्थना या नचारी वर्ग के पदों में दुर्गा, जानकी, गंगा आदि की भी स्तुति की गयी है। कुछ पदों में कवि अपने दैन्य की अतिशयता का कारुणिक चित्रण करके स्तुत्य देवता से कृपा की याचना करता है। यह भक्तिकाल के कवियों की एक रूढ़ परिपाटी है। करुणोद्रेक के लिए अपनी हीनता का वर्णन भक्ति का आवश्यक अंग माना जाता था। ऐसे पदों को देखकर यह कहना कि शुरू में विद्यापति शृंगारिक थे, बाद में भक्त हो गए, अनुचित है। इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार अशोक झा कहना है कि “विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। इन पदों की रचना जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर ही शायद की गई हो। इनका माधुर्य अद्भुत है। विद्यापति शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना शृंगार-काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति को कृष्णभक्तों की परंपरा में न समझना चाहिए। आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने 'गीत-गोविंद' के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।विद्यापति के गीत अपनी रागात्मकता और मार्मिकता के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। विद्यापति के पहले परवर्ती संस्कृत साहित्य में क्षेमेंद्र और जयदेव ने मात्रिक गीत लिखने का प्रयत्न किया था किंतु वे गीत पूर्णतया लोक-चेतना से प्रभावित न थे। विद्यापति ने गीतों को लोक-जीवन के अत्यंत निकट ला खड़ा किया। बहुत बार तो उन्होंने लोकधुन और रागों तक को सीधे अपना लिया है। इसीलिए डॉ. बच्चनसिंह ने इन्हें ‘जातीय कवि’ कहा है। इन गीतों में गेयता है, इसका पता तो इनके आरंभ में दिये हुए राग-रागनियों के उल्लेख से ही चल जाता है। कवि स्वयं इन्हें गाते प्रतीत होते हैं। इसी से बार-बार कवि भणिता में ‘विद्यापति कवि गाओल’ की पुनरावृत्ति होती है। विद्यापति के गीतों की दूसरी विशेषता है, सहजता और स्वाभाविकता। इस दृष्टि से वे गीतों की आत्मा के पारखी थे। पदावली की भाषा प्राचीन मैथिली है, जिसमें ब्रजभाषा का भी प्रभाव है। इसे हम चाहें तो शिथिल अर्थ में ब्रजबुलि का प्राचीन रूप कह सकते हैं। विद्यापति की उपर्युक्त काव्य-विशेषताओं को आधार मानते हुए कालान्तर में पाठक समाज द्वारा उन्हें कई उपाधियों से विभूषित किया गया जिनमें ‘अभिनव जयदेव’, ‘कवि शेखर’, ‘कवि कंठहार’, ‘खेलन कवि’, ‘पंचानन’, और ‘मैथिल कोकिल’ प्रमुख हैं। हिंदी कविता की यात्रा में विद्यापति पद, गीत, और शृंगार परंपरा की आरंभिक कड़ी है जिनके विकास से हिंदी कविता समृद्ध हुई। ( अशोक झा की कलम से )
बंगाल से आदिकवि विद्यापति का था विशेष लगाव, सिलीगुड़ी में 13 अप्रैल को होगा विद्यापति समारोह
अप्रैल 07, 2025
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