- डीजे की तेज आवाज और चिता की राख से होली खेलते हुए नॉनस्टॉप डांस
- कोई गले में नरमुंडों की माला पहनकर कर रहा है तांडव,
तो कोई डमरू की थाप पर कर रहा है नाच
जलती चिताएं। रोते-बिलखते लोग। डीजे की तेज आवाज और चिता की राख से होली खेलते हुए नॉनस्टॉप डांस। यह नजारा काशी के मणिकर्णिका घाट का है। यहां मसाने की होली खेली जा रही है। रंगोत्सव डमरू वादन से शुरू हुआ। घाट पर कोई गले में नरमुंडों की माला पहनकर तांडव कर रहा है, तो कोई डमरू की थाप पर नाच रहा है। नागा संन्यासियों ने तलवारें और त्रिशूल लहराए। जश्न के बीच से शवयात्रा भी गुजर रही है। भीड़ इतनी है कि पैर रखने तक की जगह नहीं है। सड़कें राख से पट गई हैं।रंग और राख से सराबोर होकर विदेशी पर्यटक भी झूम रहे हैं। मंगलवार सुबह 11 बजे शुरू हुई होली शाम 4 बजे तक लगातार चलेगी। 25 देशों से 2 लाख से ज्यादा पर्यटक मसाने की होली खेलने पहुंचे हैं। आम लोग, जो चिता की राख से दूर रहते हैं, आज उसी राख में सराबोर नजर आ रहे हैं।ऐसा पहली बार हुआ है कि महिलाएं इस होली में शामिल नहीं हुई हैं, क्योंकि उन्हें इजाजत नहीं दी गई है। हालांकि, इसके बाद भी कुछ महिलाएं पहुंची हुई हैं। बनारस में शिव नगरी काशी के हरिश्चंद्र घाट पर चिता की राख से होली खेली गई। जहां साधु संतों के साथ दुनियाभर के लोग इस त्यौहार का आनंद लेने के लिए काशी पहुंचे हुए है।वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर मसान की होली का आयोजन किया गया, जिसमें चिता भस्म की होली और मसाननाथ बाबा की पालकी शोभायात्रा शामिल थी. यह आयोजन वाराणसी के पांच दिवसीय रंगोत्सव का हिस्सा है, जो परमभरी एकादशी से शुरू होकर होली तक चलता है। मणिकर्णिका घाट पर मसाननाथ बाबा की पालकी शोभायात्रा निकाली गई, जिसमें बड़ी संख्या में नागा साधु, सन्यासी और वैरागी शामिल हुए. यह शोभायात्रा रमनाल इलाके से शुरू होकर मसाननाथ मंदिर तक पहुंची। शोभायात्रा के दौरान भक्तों ने बाबा की पालकी को श्रद्धा के साथ उठाया और पूरे मार्ग में भक्ति और उत्साह का माहौल बना रहा।चिता भस्म की होली:
मसाननाथ मंदिर पहुंचने के बाद चिता भस्म की होली खेली गई. इस होली में सबसे पहले नागा साधु, सन्यासी और वैरागी शामिल होते हैं. चिता भस्म की होली एक विशेष परंपरा है, जिसमें केवल नागा सन्यासियों को ही भाग लेने की अनुमति होती है. गृहस्थ और महिलाएं इस होली में भाग नहीं ले सकते। मान्यता है कि भगवान शिव भक्तों के साथ यहां होली खेलते हैं। मसाने की होली को देखने के लिए 20 देशों से 5 लाख टूरिस्ट भी पहुंचे है. घोड़े और रथ पर सवार होकर संत, नागा संन्यासी 2 किमी दूर हरिश्चंद्र घाट पहुंचे। 2 किमी की यात्रा में जगह-जगह कलाकारों ने शिव तांडव किया. इसी के साथ बनारस में एकादशी यानी रंगभरी एकादशी से ही यह उत्सव शुरू हो जाता है।बनारस का मणिकर्णिका घाट दुनिया के सबसे बड़े श्मशान घाट में से एक है, मान्यता है कि यहां लगातार शव आते रहते हैं, जिससे चिता की अग्नि ठंडी भी नहीं होती और दाह संस्कार के लिए कोई शव पहुंच जाता है। यहीं पर फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को चिताओं की राख यानी भभूत से होली खेलने की परंपरा है। यह भस्म शिव के प्रति शुद्धि और भक्ति का प्रतीक है। काशी के मसान की होली की प्राचीन कथा: धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माता सती के आत्मदाह के बाद भगवान शिव चिर साधना में चले गए। इससे संसार का संतुलन बिगड़ गया, इधर राक्षस राज तारकासुर का आतंक बढ़ता जा रहा था, जो शिव पुत्र के हाथों ही मारा जा सकता था और इसके लिए शिवजी का साधना से उठना जरूरी था. इसके लिए देवराज इंद्र ने योजना बनाई और उनके आदेश पर कामदेव ने आदि योगी शिव पर बाण से प्रहार कर दिया, इससे शिवजी की साधना भंग होई. लेकिन उनको क्रोध आ गया, जिससे त्रिनेत्र का तीसरा नेत्र खुल गया और कामदेव राख के ढेर में बदल गए. बाद में देवताओं की प्रार्थना और सृष्टि में कामदेव के महत्व को देखते हुए उनको जीवन दान दिया लेकिन शरीर रहित यानी अनंग के रूप में, कालांतर में माता सती ने माता पार्वती के रूप में अवतार लिया और अपने समय पर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी यानी महाशिवरात्रि पर शिव पार्वती ने विवाह किया। इसके बाद फाल्गुन शुक्ल एकादशी यानी रंगभरी एकादशी पर शिवजी माता पार्वती को पहली बार काशी लेकर आए थे. इस खुशी में काशी नगरी वालों ने शिव-पार्वती के साथ रंगों की होली खेली, लेकिन शिवजी के गण (भूत-प्रेत, अघोरी, नागा साधु, इत्यादि) इस होली में शामिल नहीं हो पाए. इस पर गणों के आग्रह पर भगवान शिव ने अगले दिन यानी फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को मणिकर्णिका घाट पर उनके साथ जली हुई चिता की राख से होली खेली, खुद पर भस्म मली और गणों पर भस्म उड़ाया. इसके बाद यहां हर साल चिता भस्म से होली खेली जाने लगी, मान्यता है कि शिवजी रंगभरनी एकादशी के अगले दिन मणिकर्णिका घाट पर अदृश्य रूप में आते हैं और अपने गणों के साथ भस्म की होली खेलते हैं। बनारस में चिता भस्म की होली की परंपरा: बनारस में चिता भस्म की होली की परंपरा के अनुसार रंगभरनी एकादशी के दिन शिवजी और माता पार्वती की शोभायात्रा निकाली जाती है यानी शिवजी पार्वती के स्वरूप को पालकी में बिठाकर पूरे शहर में घुमाया जाता है और भक्त रंग उड़ाते हैं. इसके अगले दिन सभी भगवान शिव के ही रूप बाबा विश्वनाथ से आज्ञा पाकर और उनकी पूजा कर मणिकर्णिका घाट पर पहुंच जाते हैं और होली खेलते हैं. इससे पहले बाबा महाश्मशान नाथ और माता मशान काली की मध्याह्न आरती (अनुष्ठान अर्पण) की जाती है. बनारस की मसान की होली भगवान शिव के गण खेलते हैं, जिनमें अघोरी और नागा साधु शामिल होते हैं. मान्यता है कि इस दिन भूत-प्रेत, यक्ष गंधर्व भी इस घाट पर मसान की होली खेलने आते हैं लेकिन हम उन्हें देख नहीं सकते. इसके साथ ही भगवान शिव भी अदृश्य रूप से यहां मौजूद रहते हैं।होली खेले मसाने में…भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी काशी की होली भी निराली होती है। दुनिया का एक ऐसा हिस्सा, जहां महादेव भूत-प्रेत और अपने गण के साथ चिता भस्म की होली खेलते हैं। ये होली कहीं और नहीं, बल्कि रंगभरी एकादशी के ठीक एक दिन बाद श्मशान में खेली जाती है।
रंगभरी एकादशी के दूसरे दिन 11 मार्च को इस बार मसाने या चिता भस्म की होली मनाई जाएगी, जो महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर खेली जाएगी।
मसाने होली के आयोजक और महाश्मशान नाथ मंदिर के व्यवस्थापक गुलशन कपूर ने बताया, "सुबह से भक्त जन चिता भस्म से खेली जाने वाली होली की तैयारी में लग जाते हैं। जहां दुःख और अपनों से बिछड़ने का संताप देखा जाता था, वहां उस दिन शहनाई की मंगल ध्वनि बजती है। शिव के भक्त उस दिन खासा उत्साह में नजर आते हैं।"गुलशन कपूर ने काशी के चिता भस्म होली महत्ता और मान्यता पर बात की। उन्होंने बताया, " मान्यता है कि महादेव दोपहर में स्नान करने मणिकर्णिका तीर्थ पर आते हैं और यहां जो भी स्नान करता है, उसे पुण्य मिलता है। बाबा स्नान के बाद अपने गण के साथ मणिकर्णिका महाश्मशान पर आकर चिता भस्म से होली खेलते हैं। वर्षों की यह परंंपरा कई सालों चली आ रही है, जिसे भक्त भव्य तरीके से मनाते हैं। काशीवासियों के लिए ये दिन खास मायने रखता है।गुलशन कपूर ने कार्यक्रम के बारे में बताया, "काशी में यह मान्यता है कि रंगभरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ माता पार्वती का गौना (विदाई) कराकर अपने धाम काशी लाते हैं, जिसे उत्सव के रूप में काशीवासी मनाते हैं।रंग भरी एकादशी के दिन ही बाबा माता को काशी का भ्रमण भी कराते हैं और इसी दिन से रंगों के त्योहार होली का प्रारम्भ भी माना जाता है। इस उत्सव में देवी, देवता, यक्ष, गंधर्व के साथ भक्तगण भी शामिल होते हैं।" गुलशन कपूर ने बताया, "जब बाबा रंगभरी एकादशी के दिन देवी देवता और भक्तों के साथ होली खेलते हैं तो वहां पर भूत-प्रेत, पिशाच, किन्नर का जाना मना रहता है। ऐसे में भोलेनाथ भला अपने गण के साथ होली कैसे नहीं खेलते? ऐसे में भोलेनाथ उनके साथ चिता भस्म की होली खेलने श्मशान में जाते हैं। पारंपरिक उत्सव काशी के मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच मनाया जाता हैं, जिसे देखने के लिए दुनिया भर से लोग काशी आते हैं।"महाश्मशान नाथ सेवा समिति के अध्यक्ष चंद्रिका प्रसाद गुप्ता ने बताया कि यहां होली में आम लोगों का जाना मना है। उन्होंने स्पष्ट करते हुए बताया, "रंगभरी एकादशी के दूसरे दिन बाबा मसाननाथ के दर्शन-पूजन और उन्हें गुलाल अर्पित करने की परंपरा है।मंदिर के अंदर ही बाबा के साथ होली खेली जाती थी। इस होली का स्वरूप बेहद सौम्य और सुंदर हुआ करता था। हालांकि, समय के साथ इसमें काफी परिवर्तन आ गया, जो सही नहीं है। मसान नाथ मंदिर के चौखट के बाहर होली खेलने की परंपरा नहीं है। हम इसका इस बार पालन भी करेंगे। ( काशी से अशोक झा )
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