पारस्परिक मेल-मिलाप, उमंग और सांस्कृतिक परंपराओं से परिपूर्ण होली आधुनिकता के रंग में रंगती जा रही है। समय के साथ पर्व में काफी विकृति आ रही है। सृष्टि महज एक खेल है— राग और रंगों का। फाल्गुन के महीने में यह खेल अपने चरम पर होता है, प्रकृति के मनोहारी व लुभावने रूप को निहार कर जीवों के भीतर राग हिलोरें लेने लगता है। ये भीतर की हिलोरें, जब बाहर प्रकट होती हैं तो उत्सव का रूप ले लेती हैं और रंगों का पर्व होली मनाया जाता है। तीन, रंग सबसे प्रमुख हैं— लाल, हरा और नीला। इस जगत में मौजूद बाकी सारे रंग इन्हीं तीन रंगों से पैदा किए जा सकते हैं। जो रंग सबसे ज्यादा आपका ध्यान अपनी ओर खींचता है— वह है लाल रंग, क्योंकि सबसे ज्यादा चमकीला लाल रंग ही है। मानवीय चेतना में अधिकतम कंपन लाल रंग ही पैदा करता है। जोश और उल्लास का रंग लाल ही है। आप कैसे भी व्यक्ति हों, लेकिन अगर आप लाल कपड़े पहनकर आते हैं तो लोगों को यही लगेगा कि आप जोश से भरपूर हैं, भले ही आप हकीकत में ऐसे न हों। इस तरह लाल रंग के कपड़े आपको अचानक जोशीला बना देते हैं।देवी (चैतन्य का नारी स्वरूप) इसी जोश और उल्लास का प्रतीक है। उनकी ऊर्जा में भरपूर कंपन और उल्लास होता है। देवी से संबंधित कुछ खास किस्म की साधना करने के लिए लाल रंग की जरूरत होती है।नीला रंग सबको समाहित करके चलने का रंग है। आप देखेंगे कि इस जगत में जो कोई भी चीज बेहद विशाल और आपकी समझ से परे है, उसका रंग आमतौर पर नीला है, चाहे वह आकाश हो या समुद्र। जो कुछ भी आपकी समझ से बड़ा है, वह नीला होगा, क्योंकि नीला रंग सब को शामिल करने का आधार है। कृष्ण के शरीर का रंग नीला माना जाता है। इस नीलेपन का मतलब जरूरी नहीं है कि उनकी त्वचा का रंग नीला था। हो सकता है, वे श्याम रंग के हों, लेकिन जो लोग जागरूक थे, उन्होंने उनकी ऊर्जा के नीलेपन को देखा और उनका वर्णन नीले वर्ण वाले के तौर पर किया।कोई चीज आपको काली प्रतीत होती है, इसकी वजह यह है कि यह कुछ भी परावर्तित नहीं करती, सब कुछ सोख लेती है। अगर आप -लगातार लंबे समय तक काले रंग के कपड़े पहनते हैं और तरह-तरह की स्थितियों के संपर्क में आते हैं तो आप देखेंगे कि आपकी ऊर्जा कुछ ऐसे घटने-बढ़ने लगेगी कि वह आपके भीतर के सभी भावों को सोख लेगी और आपकी मानसिक हालत को बेहद अस्थिर और असंतुलित कर देगी। लेकिन अगर आप किसी ऐसी जगह हैं, जहां एक विशेष कंपन और शुभ ऊर्जा है तो वहां पहनने के लिए सबसे अच्छा रंग काला है क्योंकि ऐसी जगह से शुभ ऊर्जा ज्यादा-से-ज्यादा आत्मसात होती है।सफेद यानी श्वेत दरअसल कोई रंग ही नहीं है। कह सकते हैं कि अगर कोई रंग नहीं है तो वह श्वेत है। लेकिन साथ ही श्वेत रंग में सभी रंग होते हैं। जो लोग आध्यात्मिक पथ पर हैं और जीवन के तमाम दूसरे पहलुओं में भी उलझे हैं, वे अपने आसपास से कुछ बटोरना नहीं चाहते। वे जीवन में हिस्सा लेना चाहते हैं, लेकिन कुछ भी इकट्ठा करना नहीं चाहते। आप इस दुनिया से निर्लिप्त होकर निकल जाना चाहते हैं। सुबह-सुबह जब सूर्य निकलता है, तो उसकी किरणों का रंग केसरिया होता है या जिसे भगवा, गेरुआ या नारंगी रंग भी कहते हैं। जब आप यह रंग पहनते हैं तो लोग जान जाते हैं कि यह संन्यासी है। भगवा या गेरुआ रंग आज्ञा चक्र का रंग है और आज्ञा ज्ञान-प्राप्ति का सूचक है। जो लोग आध्यात्मिक पथ पर होते हैं, वे उच्चतम चक्र तक पहुंचना चाहते हैं इसलिए वे इस रंग को पहनते हैं। राग का अर्थ है— रंग। रंग से जो परे है, वह रंगहीन नहीं, पारदर्शी है। वैराग्य का मतलब है कि आप न तो कुछ रखते हैं और न ही कुछ परावर्तित करते हैं, यानी आप पारदर्शी हो गए हैं। अगर आप पारदर्शी हो गए हैं तो आपके पीछे की कोई चीज अगर लाल है, तो आप भी लाल हो जाते हैं। अगर आपके पीछे मौजूद कोई चीज नीली है, तो आप भी नीले हो जाते हैं। आपके भीतर कोई पूर्वाग्रह होता ही नहीं। आप जहां भी होते हैं, उसी का हिस्सा हो जाते हैं, लेकिन किसी भी चीज में फंसते नहीं हैं। अगर आप लाल रंग के लोगों के बीच हैं, तो आप पूरी तरह से लाल हो सकते हैं, क्योंकि आप पारदर्शी हैं लेकिन वह रंग एक पल के लिए भी आपसे चिपकता नहीं। इसीलिए अध्यात्म में वैराग्य पर इतना जोर दिया जाता है। हम जीवन की संपूर्णता को, जीवन के असली आनंद को तब तक नहीं जान पाएंगे, जब तक हम उस आयाम तक न पहुंच जाएं जो राग व रंगों से परे है। गांव की चौपालों में गूंजनेवाली होली के गीतों और ढोलक-झांझ की जगह डीजे, हुड़दंग और नशाखोरी ने ले ली है। फागुन शुरू होते ही गांव की चौपालों में होली खेले रघुबीरा अवध में…, काहे की बनी पिचकारी, काहे का गुलाल…, मुना तट पर श्याम खेले होली…, आज बिरज में होली है ये रसिया…, आदि गीत सुनायी पड़ने लगते थे. अब यह प्रथा विलुप्त होती जा रही है। फगुआरों का अता पता नहीं है। केवल मोबाइल पर ही बधाई का आदान-प्रदान होता है। कम हो रही होलिका दहन की होड़: गांवों और शहरों में पहले होलिका दहन की तैयारी एक पखवाड़े पूर्व से ही शुरू हो जाती थी। फागुन शुरू होते ही चौपालों में शाम से ढोल-तबले के बीच होली के मनभावन गीत गूंजने लगते थे। होलिका दहन को लेकर बच्चे उपले इकट्ठा करते थे, लेकिन बदलती जीवनशैली के कारण होलिका दहन में पहले जैसी होड़ नहीं रही है। नदारद है होलियारों की टोली : होली पर मोहल्लों में होलियारों की टोलियां निकलती थीं. एक-दूसरे के घर जाकर रंग लगाते, गले मिलते और ठिठोली करते हुए होलियारों में उत्साह और उमंग का प्रवाह होता था। होली पर ठंडई के आनंद का स्वरूप बदल गया है. शराब और गांजा जैसी नशाखोरी का प्रचलन बढ़ने से त्योहार के माहौल में उन्माद और अशोभनीय घटनाएं बढ़ गयी हैं। रंग की बाल्टी की जगह अब शराब की बोतलों ने ले लिया है। कम हो रही त्योहार की मिठास: पहले होली के कई दिन पहले से गुझिया, मालपुआ, दही-बड़े, ठंडाई, पापड़, चिप्स जैसी चीजें घरों में बनाई जाती थीं. गांवों में चूल्हे पर देसी घी में तली गई मिठाइयों की महक पूरे मोहल्ले में फैल जाती थी, जिससे त्योहारों की पारंपरिक मिठास धीरे-धीरे कम हो रही है.होली के बदलते स्वरूप को लेकर लोग बोले: होली का त्योहार भक्त प्रह्लाद व हिरण्यकशिपु की बहन होलिका से जुड़ा हुआ है. यह त्योहार आपसी भाईचारे व पौराणिकता का प्रतीक है. आधुनिकता की दौड़ में यह अपना पौराणिक महत्व खोता जा रहा है। यह भविष्य के लिए ठीक नहीं है. इस दिशा में समाज के प्रबुद्ध लोगों को विचार करने की आवश्यकता है।होली का त्योहार अत्यंत विकृत होता जा रहा है. वर्तमान में युवा पीढी नशे की गिरफ्त में आ रही है. इस कारण त्योहार में हुड़दंग मचानेवालों की संख्या बढ़ती जा रही है. वर्तमान में त्योहार की पौराणिकता को बरकरार रखना एक चुनौती हो गयी है। इस पर एक एक प्रबुद्ध लोगों को विचार करने की आवश्यकता है।होली के अवसर पर कर्णप्रिय आवाज में बजनेवाले ढोलक, झांझ, मंजिरा आदि की धुन गायब होती जा रही है. हर जगह कर्कश आवाज में डीजे पर अश्लील गीतों की आवाज सुनाई पड़ती है जो माहौल को विषाक्त कर रहे हैं. समाज के लोगों को इस दिशा में ध्यान देने की आवश्यकता है. ताकि पर्व की पवित्रता बनी रहे।होली का त्योहार पौराणिक महत्व व भाईचारे का प्रतीक है. वर्तमान में यह अपनी पौराणिकता खोता जा रहा है. इस दिशा में सभी गांव में प्रबुद्ध लोगों को होली के पूर्व विशेष कार्यक्रम का आयोजन कर होली के महत्व पर विशेष चर्चा कर पौराणिक स्वरूप में होली का आयोजन करवाना चाहिए. नशाखोरी पर लगाम लगे-नंदलाल प्रसाद, ग्रामीण, हरिहरपुर
होली के रंग, कुछ सालों में फीके पड़ गए हैं। बड़े-बुजुर्ग इस बात पर अफ़सोस जताते हैं कि अब हंसी-मजाक, उत्साह और वह जीवंत भावना नहीं रही जो कभी इस उत्सव की पहचान हुआ करती थी। रंगों की बौछारें और होली की जीवंतता ने उत्सव के बाद जैसी शांत ले ली है। आओ राधे खेलें फाग, होली आई के हर्षोल्लास और उत्सव के इर्द-गिर्द होने वाली मस्ती-मजाक की आवाज़ें समय के साथ दबती जा रही हैं।फाल्गुन आते ही होली का उत्साह हवा में घुलने लगा। फाग की ध्वनि गूंजने लगी और हर तरफ़ होली के लोकगीत सुनाई देने लगे। शाम होते ही ढप-चंग के साथ पारंपरिक नृत्यों ने होली के रंग चारों ओर बिखेर दिए। लोग ख़ुशी से एक-दूसरे पर रंग डालते और कोई कड़वाहट नहीं थी, बस ख़ुशी थी। होली की तैयारियाँ वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती थी और समुदाय के आंगन और मंदिर चंग की थाप से जीवंत हो उठते थे। रात में चंग की थाप के साथ नृत्य ने सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। दूर से फाल्गुन गीत और रसिया गाने वाले लोग नृत्य में शामिल होकर तारों की छांव में होली का आनंद मनाते थे। हालांकि, जैसे-जैसे समय बदला है, रिश्तों की गर्माहट फीकी पड़ती नज़र आती है। आजकल होली की बधाई अक्सर मोबाइल या इंटरनेट के जरिए भेजे गए हैप्पी होली के साथ शुरू और ख़त्म होती है। पहले जैसा उत्साह और जश्न का माहौल अब नहीं रहा। पहले बच्चे हर मोहल्ले में होली के लिए समूह बनाकर होली का दान इकट्ठा करते थे और खुशी-खुशी किसी पर भी रंग फेंकते थे। अब ऐसा लगता है कि लोग मौज-मस्ती करने के बजाय मोबाइल पर समय बिताने में ज्यादा रुचि रखते हैं।पहले के समय में पड़ोसियों की बहू-बेटियों को परिवार की तरह माना जाता था। घर स्वादिष्ट व्यंजनों की ख़ुशबू से भर जाते थे और मेहमानों का खुले दिल से स्वागत किया जाता था। आज, समारोह ज्यादातर अपने घर तक ही सीमित रह गए हैं और समुदायिक भावना कम होती जा रही है। फ़ोन पर एक साधारण होली मुबारक ने पहले के दिल से जुड़े रिश्तों की जगह ले ली है, जिससे रिश्ते कम मधुर लगने लगे हैं। इस बदलाव के कारण परिवार अपनी बहू-बेटियों को दोस्तों या रिश्तेदारों से मिलने देने में हिचकिचाते हैं। पहले लड़कियाँ होली के दौरान ख़ुशी और हंसी-मजाक करती हुई खुली हवा में घूमती थीं, लेकिन अब अगर कोई लड़की किसी रिश्तेदार के घर ज़्यादा देर तक रुकती है, तो उसके परिवार में चिंता पैदा हो जाती है।होली का त्यौहार खुशियों का मौसम हुआ करता था, जिसकी शुरुआत होली के पौधे लगाने से होती थी। छोटी-छोटी लड़कियाँ गाय के गोबर से वलुडिया बनाती थीं, खूबसूरत मालाएँ बनाती थीं, जिन पर आभूषण, नारियल, पायल और बिछिया होती थीं। दुख की बात है कि ये परंपराएँ अब ख़त्म हो गई हैं। पहले घर पर ही टेसू और पलाश के फूलों को पीसकर रंग बनाया जाता था और महिलाएँ होली के गीत गाती थीं। होली के दिन सभी लोग चंग की ताल पर नाचते हुए जश्न मनाते थे। बसंत पंचमी से ही फाग की धुनें गूंजने लगती थीं, लेकिन अब होली के गीत कुछ ही जगह सुनाई देते हैं। परंपरागत रूप से, विभिन्न समुदायों के लोग ढोलक और चंग की थाप के साथ होली खेलने के लिए एकत्रित होते थे। अब वह जीवंतता कहाँ चली गई?आज, होली महज़ एक परंपरा की तरह लगती है। हाल के वर्षों में, सामाजिक गुस्सा और विभाजन इतना बढ़ गया है कि कई परिवार इस त्यौहार के दिन घर के अंदर रहना पसंद करते हैं। वैसे तो लोग सालों से होली का त्यौहार उत्साह के साथ मनाते आ रहे हैं, लेकिन इस त्यौहार का असली उद्देश्य भाईचारा बढ़ाना और नकारात्मकता को दूर करना है, जो अब कहीं खो गया है। समाज कई चुनौतियों का सामना कर रहा है और सामाजिक असमानता प्रेम, भाईचारे और मानवता के मूल्यों को ख़त्म कर रही है। एक समय था जब होली एक महत्त्वपूर्ण अवसर था, जब परिवार होलिका दहन देखने के लिए इकट्ठा होते थे और उसी दिन वे खुशी-खुशी एक-दूसरे पर रंग लगाते और अबीर फेंकते थे। समूह में लोग होली की खुशियाँ बाँटने के लिए एक-दूसरे के घर जाते और फगुआ गाते थे। अब, वास्तविकता यह है कि होली पर कुछ ही लोग घर से बाहर रहना पसंद करते हैं। हर महीने और हर मौसम में एक नया त्यौहार आता है, जो हमें उस ख़ुशी की याद दिलाता है जो वे ला सकते हैं। ये उत्सव हमें उत्साहित करते हैं, हमारे दिलों में उम्मीद जगाते हैं और अकेलेपन की भावनाओं को दूर करते हैं, भले ही कुछ पल के लिए ही क्यों न हो। हमें इस त्यौहारी भावना को संजोकर रखना चाहिए। ( अशोक झा की कलम से )
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/