आखिरकार हो गया महाकुंभ में संगम स्नान। महाकुंभ में जाने की भी एक कहानी बनी। 28 जनवरी को मेरे पास मुंबई के एक प्रिय मित्र का फोन आया था। बताया कि अपने एक साथी को लेकर महाकुंभ में आना चाहता है। मुंबई से फ्लाइट का किराया करीब 50 हजार था। मैंने कहा कि तुम दिल्ली आ जाओ, मैं अपनी गाड़ी दे दूंगा। ड्राइवर कर दूंगा, चले जाना। उसने कहा कि तुम भी साथ चलो। तो इस तरह 21 फरवरी की रात जाने और 23 की रात लौटने का प्रोग्राम तय हो गया। फ्लाइट के टिकट बुक हो गए।
जब ये बात हुई थी तब तक प्रयागराज में महाभीड़ और अव्यवस्था की खबरें नहीं आई थीं। 29 जनवरी को भगदड़ में 30 लोगों के मारे जाने की खबर आई। फिर 20-20 किलोमीटर पैदल चलकर लोगों के संगम पहुंचने की खबरें आईं। मन विचलित हो गया। भुक्तभोगियों ने मना किया कि मत जाइए। मैंने मित्र से बात की और कहा कि क्या इस यात्रा का टाला जा सकता है? उसने कहा-देखो भाई जितना खर्चा होना था हो चुका, टिकट वापस करने पर भी कुछ मिलेगा नहीं। ऐसा करते हैं कि चलते हैं, जो होगा देखा जाएगा। बहुत दिक्कत होगी तो वापस आ जाएंगे।
21 फरवरी यानी शुक्रवार की रात हम लोग दिल्ली से गाड़ी लेकर निकल पड़े। हम पति-पत्नी, मुंबई का दोस्त, उसका साथी और हमारे ड्राइवर पांडेय जी। यह खबर पहले ही हम तक पहुंच चुकी थी कि सारे वीआईपी पास, मेला पास रद हो चुके हैं। ये भी पता था कि पत्रकारों को भी कोई रियायत नहीं मिलने वाली, फिर भी हम लोग सड़क मार्ग से निकल पड़े। रात 9.30 बजे निकले तो आराम से सुबह 10 बजे के आसपास कौशांबी होते हुए प्रयागराज की सीमा में पहुंच गए। कुछ मित्रों ने कहा था कि एयरपोर्ट वाले रास्ते से घुसिएगा, पुलिस वाले रोकेंगे तो बताइएगा कि एयरपोर्ट जाना है, फिर जाने देंगे। इसके बाद आप शहर में घुस जाएंगे। मैंने सोचा कि क्या झूठ बोलें, अब तक का सारा काम सच बोलने से चल ही गया है। पुलिस वालों ने रोका, मैंने सच्चाई बताई कि शहर में ही जाना है, वहां गाड़ी खड़ी करके किसी माध्यम से गंगा किनारे तक जाएंगे। पुलिस वाले टस से मस नहीं हुए। खैर हम लोगों ने गाड़ी लौटा ली। आगे भयानक जाम। धूमनगंज थाने के आसपास गाड़ियां चलनी तो दूर रेंग भी नहीं रही थीं। एक साथी ने बताया कि गाड़ी कहीं पार्क मत कीजिएगा, कभी न कभी तो शहर में घुसेंगे ही। सोचा था कि अगर अलोपीबाग या सलोरी पहुंच गए तो वहां गाड़ी खड़ी करके पैदल निकल पड़ेंगे।
इस बीच हमारे एक भानजे नीरज का फोन आया, पूछा कि आप लोग कहां हैं? मैंने बताया। उसने कहा कि लाइव लोकेशन भेजिए और पहला कट मिलते ही यू टर्न कर लीजिए। सूबेदारगंज रेलवे स्टेशन वाले रास्ते से मेरे घर आइए। करीब 50 मीटर दूर कट दिखाई दिया, 20 मिनट में वहां पहुंचे होंगे। वहीं से यू टर्न लिया, जाने के रास्ते पर भीड़ नहीं थी। आधे घंटे के भीतर हम भानजे नीरज के घर यानी राजरूपपुर के कालिंदीपुरम पहुंच गए। वहां सभी लोग फ्रेश हुए, ब्रश किए। आगे का तय हुआ कि रैपिडो बाइक से बोट क्लब जाएंगे। वहां से नाव लेकर संगम जाएंगे फिर संगम से नहाकर वापस बोट क्लब आएंगे। तीन साथी तो बाइक से निकले। मेरा असमंजस ये था कि श्रीमती जी को अरसा हो गया था बाइक पर बैठे हुए। ऊपर से हम लोग अलग-अलग बाइक से अगर गए तो क्या पता कौन कहां पहुंचे। फिर तय हुआ कि मैं खुद बाइक चलाऊंगा। नीरज की बाइक पर हम पति-पत्नी निकले। कई साल बाद मैंने भी बाइक चलाई थी। थोड़ी देर में काबू में आ गई। जैसे-जैसे बोट क्लब नजदीक आ रहा था, भीड़ का रेला बढ़ रहा था। करीब 12 किलोमीटर की दूरी 56 मिनट में तय हुई। जिसमें से आखिरी 500 मीटर जाने में आधे घंटे लग गए। बोट क्लब के पास पहुंचकर एक दुकान पर बाइक लगा दी। बाकी लोग वहां पहले पहुंचे हुए थे। फिर हम गए यमुना घाट पर।
यमुना घाट पर तो गजब कहानी थी। पुलिस वालों का नामोनिशान नहीं था और नाव वाले बिना कट्टा-रिवाल्वर बम के लूट रहे थे। मोटरबोट के लिए प्रति सवारी 5 हजार रुपये, डोंगी नाव के लिए प्रति सवारी 3 हजार रुपये। अब यहां बगावत या आंदोलन क्या करते। 5 सीटर छोटी डोंगी नाव तय हुई 10 हजार में यानी 2 हजार रुपये सवारी। नाव यमुना मैया में तैर पड़ी। हम लोगों ने कहा- यमुना मैया की जय। नाव बीच धार में पहुंची तो मुख्य नाविक बोला- भइया पुलिस वाले बीच में आ सकते हैं। वे पूछेंगे तो आप बताइएगा कि 200 रुपये सवारी पर तय हुआ है। नहीं तो हमारा चालान कर देंगे। वह अपने हित के लिए हमसे झूठ बुलवाने की कोशिशों में था। खैर पुलिस वालों की नावें आ गईं। वे अनाउंस कर रहे थे कि सभी नावों को किनारे लगाइए। कोई भी नाव आगे नहीं जाएगी। नाविक डर गया, बोला कि अब नहीं जा पाएंगे। हम लोग परेशान। एक पुलिस वाले की नाव करीब से गुजरने वाली थी तो मैंने तेज आवाज में कड़ककर उसे बुलाया। उसने बोट हमारी तरफ घुमाई। मैंने पूछा कि ये क्या गुंडागर्दी है भाई। उसने कहा-सर योगी जी और नड्डा जी कुंभ स्नान करने आए हैं, जब वे लोग चले जाएंगे तब नावों की एंट्री होगी। हम लोगों की नाव कई और नावों के साथ किनारे पर लग गई। गपशप शुरू हो गई। समय बीता जा रहा था। नाव वाले ने डराया-सर जी अगर 5 बजे से पहले जाने का आदेश नहीं आया तो नहीं जा पाएंगे, क्योंकि संगम में 5 बजे के बाद नावों की एंट्री बंद है। मैंने कहा- शुभ-शुभ बोलो भाई। उधर यमुना के ऊपर हेलीकॉप्टर मंडरा रहे थे। तीन चार हेलीकॉप्टर। ये सब योगी जी वाले नहीं थे। प्रशासन वाले थे। हम लोग सोच रहे थे कि ये सब मौज ले रहे हैं और हम लोग धूप में यहां किनारे पड़े हैं। सुबह से कुछ खाए भी नहीं थे। भूख के मारे अंतड़ियां ऐंठ रही थीं। तय हुआ कि ड्राइवर पांडेय जी घाट से ऊपर सड़क पर जाएंगे कुछ खाने पीने का सामान ले आएंगे। पांडेय जी ने घाट से ऊपर की चढ़ाई चढ़ी। आधे घंटे बाद कुछ फल और समोसे लेकर आ रहे थे। ढलान तेज थी। इस बीच उनकी पत्नी का फोन आ गया था, फोन उठाए नहीं कि पांव फिसल गया। तेजी से लुढ़कते हुए नीचे आ गए। चोट लगी, लेकिन मजाल नहीं कि फलों और समोसों को जरा भी आंच आई हो। बस एक-दो समोसे पैकिंग में फूट गए थे। पांडेय जी की चिकित्सा हुई, फिर हम लोगों ने थोड़ी सी जठराग्नि शांत की। बरसों बाद प्रयागराज के समोसों से भेंट हुई थी। साइज वही पुरानी थी, बस स्वाद वो वाला नहीं था।
घड़ी की सुइयां 4 बजे से ऊपर जा रही थीं। धुकधुकी बढ़ रही थी। एक पत्रकार साथी ने फोन पर बताया कि योगी जी और नड्डा जी चले गए। मैंने पास ही बोट से मंडरा रहे पुलिस वालों को बताया तो वे बोले- सर अभी मैसेज नहीं आया है हमारे पास। बहरहाल 4.45 बजे के आसपास मैसेज आ गया। नाव चल पड़ी संगम की ओर। यमुना घाट से संगम की जल मार्ग से दूरी दो-ढाई किलोमीटर से कम नहीं रही होगी। यमुना का हरित वर्ण का जल हिलोर मार रहा था। लहरों पर चलती पतवार से निकलते छप-छप शब्द कानों में मिश्री घोल रहे थे। नाव के आसपास मंडराते समुद्री पक्षी और उनका कलरव आनंदित कर रहा था। सूर्यदेव रक्तवर्ण होकर अस्ताचल हो रहे थे। लग रहा था जैसे यमुना में ही तिरोहित हो रहे हों। अद्भुत दृश्य था। मन कुछ देर पहले तक जितना उद्विग्न था, अब पूरी तरह से शांत था। गुस्सा इस बात पर भी था कि दुनिया भर को तो प्रशासन संदेश दे रहा था कि वीकेंड पर न आएं, लेकिन नड्डा जी क्यों आ गए, हजारों यात्रियों को असुविधा हुई। खैर नाव चली तो यह संताप भी कम हो गया।
नाव संगम पर पहुंच चुकी थी। हम लोग जल में उतर गए थे। हां ये बताना भूल गया था कि मुंबई का जो मेरा मित्र है, वह क्रिश्चियन है। रास्ते में इस बात पर खूब हंसी हुई कि प्रयागराज में तुम्हारी घर वापसी करवा देते हैं। नाम फ्रैंको है तो फकीरचंद चतुर्वेदी कर देते हैं। दलील ये कि योगी जी के राज में नाम बदलने की परिपाटी भी है। संगम में हम लोग उतरे तो हमारे मित्र फ्रैंको ने साउथ इंडियन स्टाइल में लुंगी पहनी। मैंने कहा- प्लान ए कैंसिल। अब तुम्हारा नाम अन्नामलाई दुरईस्वामी कर देते हैं।
बहुत मुश्किल से संगम पहुंचे थे. बहुत मुश्किल से गंगा-यमुना की गोद मिली थी, जिसमें बरसों से स्नान का एक लंबा सिलसिला जुड़ा रहा था। खूब बुड़ुक्की (डुबकी) मारे। तन-मन आह्लादित हो गया। अपने लिए, परिवार के लिए, बंधु-बांधवों के लिए, सभी मित्रों, सुहृदों के लिए डुबकी मारी। जो आ पाए उनके लिए, जो नहीं आ पाए उनके लिए भी डुबकी मारी। हमारे एक मित्र ने कहा था कि इस बार कुछ है संगम तट पर कि स्नान करते ही दिव्य अनुभूति होती है। पता नहीं उनके कहे का असर था या कुछ और अनुभूति वाकई बहुत दिव्य हुई। ऐसा लगा जैसे आनंद के महासागर में डुबकी लगा रहे हैं। हमारे पड़ोसी ने कहा था कि हमारे लिए संगम से जल लेते आइएगा, हम उसे पानी में डालकर नहा लेंगे। तो एक बोतल में जल भरकर रख लिया।
संगम में स्नान करके जब हम लोग लौट रहे थे तो शाम ढल चुकी थे। चारों तरह रोशनी की जगमग थी। नैनी का पुल रोशनी में नहाया हुआ था। बार-बार उसका रंग बदल जाता था। पूरे मेले की भव्यता और दिव्यता की अनुभूति हो रही थी।
रात साढ़े 8 बजे तक हम लोग उसी तरह फिर राजरूपपुर नीरज के यहां पहुंचे। प्रयागराज में कॉटेज बुक हुआ था, लेकिन वहां तक पहुंचना नामुमकिन ही था। तय हुआ कि रात में ही निकलेंगे। तो करीब साढ़े नौ बजे रात निकल लिए। स्नान तो बहुत बढ़िया हुआ। सारे गिले-शिकवे समाप्त हो गए थे। बस शरीर दुख रहा था। सबसे ज्यादा खस्ता हालत थी हमारे मुंबई के मित्र फ्रैंको की। उसे याद नहीं कि पिछले 10 साल में कब बाइक पर बैठा था, तो कमर बोल गई थी। श्रीमती जी का भी कुछ यही हाल था। वे गाड़ी की सबसे पीछे वाली सीट पर लेट गई थीं। ड्राइवर पांडेय जी थोड़े घायल भी थे, लेकिन पूरे ताव में थे कि गाड़ी चलाने में कोई दिक्कत नहीं होगी। रास्ते में उन्हें थोड़ी झपकी लगी तो मैंने मोर्चा संभाला। खैर सुबह साढ़े नौ बजे तक हम लोग वापस नोएडा पहुंच चुके थे।
प्रयागराज से मेरा गहरा नाता रहा है। बीए और एमए की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से की थी। मैं बचपन से ही दिद्दा (मेरी ताई) के साथ हर साल महीने भर का कल्पवास करता था। 1977 में मैं पहली बार यहां महाकुंभ में दिद्दा के साथ आया था, तबकी कुछ धुंधली सी याद है मन में। उसके बाद जितने भी अर्धकुंभ और महाकुंभ लगे, सबमें स्नान करने का सौभाग्य मिला। मित्रों के बहाने ही सही, इस बार भी यह सौभाग्य मिल ही गया।
यह महाकुंभ सबसे अलग था। डिजिटल युग और धार्मिक पर्यटन के उत्थान के दौर में करोड़ों लोगों का यहां आना हुआ। व्यवस्था में उतनी गड़बड़ नहीं थी, लेकिन कल्पना से अधिक लोग यहां पहुंच गए। सरकारी अफसरों का ध्यान इंतजाम पर कम, डेकोरेशन पर ज्यादा था। दिक्कतें इस नाते भी हुईं।
जिस युवा पीढ़ी और खासकर जेन-जी को लेकर लोग आशंकित रहते हैं कि धर्म-संस्कृति से वे कटे हुए हैं, कुंभ मेले में सबसे ज्यादा तो वही दिखे। हम लोग जब स्नान कर रहे थे तो पीछे दर्जनों नवयुवा और नवयुवतियां स्नान का आनंद ले रहे थे। सेल्फी खींच रहे थे, तरह-तरह के पोज में फोटो खिंचवा रहे थे। रील बना रहे थे। रील बनवा रहे थे। हां एक रिपोर्ट आई थी कि संगम का जल स्नान योग्य नहीं है। कुछ मित्रों ने सलाह दी थी कि संगम में स्नान के बाद 5 लीटर मिनरल वाटर शरीर पर डाल लीजिएगा। हमने ऐसा बिल्कुल नहीं किया। मैं धर्मांध नहीं हूं, बस कुछ परंपराओं का सम्मान करता हूं। अगर परंपराएं गंगा-यमुना को मां कहती हैं तो वे हमारी मां ही हैं और मां में कोई मलिनता देखूं, कोई विकार देखूं इतनी हैसियत नहीं है हमारी। ( देश के प्रमुख पत्रकार विकास मिश्र की कलम से )
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