अचानक हेमंत भाई से फ़ोटो मिली तो यूं शिवनाथ मिल गए । संयोग है मेरे ही नही वरन हम सब के लिए बल्कि 1996-97 के सत्र में एनडी होस्टल वाले उन तमाम साथियों के लिए भी कि जो छात्रसंघ चुनाव में किसी न किसी रूप में शिरकत कर रहे थे । वह किसी प्रत्याशी के समर्थक क्यों न रहे हों लेकिन मजाल है कि शिवनाथ भाई से सम्मोहित न हुए हों । मिंटू भाई सर्वेसर्वा थे। नामांकन के दिन से एक दिन पहले हम कुछ ऐसे लोगों की फिराक में थे कि बड़े बैनरों को पकड़ने वाले पैंट शर्ट वाले 8-10 लोग चाहिए। क्यों कि बहुत से पूर्व अनुभव थे कि यूनिवर्सिटी का कम से कम हम सब की टीम वाला बैनर पोस्टर पकड़ कर तो नही ही चलेगा । उत्साह ही इतना होता था । सब एक दूसरे को पीछे धकेल नेतृत्व के आस पास ही रहना चाहेंगे । वजहें बहुत सी थीं । सो मिंटू भाई तीक्ष्ण बुद्धि के थे, यह खोज मिंटू भाई, हेमंत भाई और गुड्डू भाई ने संभाली । प्रयोजन खत्म सब अपने अपने ठिकाने चले गए । न जाने क्यों शिवनाथ भाई पीठ पीछे अगल बगल के लोगों के चहेते हो गए । हम सब नामांकन की कमी बेसियों और अगली रणनीति पर मशगूल थे तो 79 से एक साथी आये और शिवनाथ भाई को पूछने लगे । कुछ ऐसी मुद्रा में कि जैसे ठगे गए हों । जोर दे कर कारण पूछा तो पता चला कि शिवनाथ भाई को 100 रुपया देकर कुछ मंगवाया था उन्हों ने, और शिवनाथ लौटे नहीं थे । 100 रुपये की ठगी से ज्यादा होस्टल वाले से कोई इस तरह लेकर चला गया, इस चैलेंज का सवाल था। विंग में इधर उधर तलाशने के उपरांत गाड़ी वालों को आस पास के चौतरफा रास्तों पर दौड़ाया गया कि अभी दूर नही गया होगा अमुक। लेकिन गोल्डनजुबिली की ओर से शिवनाथ भाई रमते रमते अपने होस्टल की ओर आते दिखे। हम सब उन पर नजर गड़ाए खुद तक पहुंचने का इंतजार करने लगे। वो सीधे मुख्य द्वार से रूम पर आ कर ठहरे । कारण पूछा कहां देर हो गई। तो सहजता से हंसते हुए बोले "वो कमरा वाले भैया कुछ मंगाइन रहै, हियां कहूँ मिला नही तो आई टी चौराहे तक खोजत खोजत चले गएन रहैं" उनके धुन, निष्ठा और ईमानदारी को तो समझ ही गए होंगे। लेकिन फिर चुनाव भर वो लगभग हमारी विंग ही नहीं बड़े होस्टल के लगभग सभी फ्लोर और ज्यादातर ओर के जुबान पर हर कोई शिवनाथ भाई को ही खोजता। दरअसल शिवनाथ भाई बाहर के थे, और काम काज खोजते लखनऊ आये ही थे कि मिंटू भाई से टकरा गए । चुनाव खत्म तो सांसत हम सब की कमजोरी वो बन ही चुके थे। मालिक बनने का नसीब लेकर टकराये थे सो हमने उन्हें घर लाकर छोड़ दिया कि देखो, इस पूरे घर के मालिक आप बन कर रहो। बस तुम्हारे सहारे सब छोड़ रहे। अम्मा बाबूजी गांव पर हैं । यहां कोई रहता नहीं । जो मन करे करो। हमारा भरोसा न तोड़ना मेरा भाई। और कुछ दिन बाद हम गांव गए। शिवनाथ भाई भी गांव गए। लेकिन आज तक हम और हमारा परिवार उनकी कमी को शिद्दत से महसूस करता है। किसी का कमजोरी हो जाना, या हम सब में बहुतों की कमजोरी हो जाना, उनके लिए हर कोई न्योछावर रहता था, यह लगाव कब कैसे, किसी के लिए हो जाता है, सिर्फ महसूस कर हमारे शिवनाथ भाई का आज इस तरह सम्मुख होना, मानों कल की शिवरात्रि का प्रसाद मिल गए । उनकी यादें याद कर, हर उस किसी के आंखों की कोरों को भिगो देगा, जिन्हें किंचित भी शिवनाथ भाई की सुध होगी। शायद डेढ़ दशक तो हो ही चुके हैं कि जब तब परिवार के इकट्ठे होने पर शिवनाथ भाई का जिक्र हो आना, हम सब की सच्ची भावांजलि है। इस तरह रचे बसे थे एक अनजान दुनिया से हम सब की जिंदगी में आये हमारे शिवनाथ भाई। मन लिखते लिखते इतना भावुक है कि अब तक इतनी देर में कितनी बार आंख भरी और कोरों की सीमा तोड़ गईं । कहाँ हो, नहीं मालूम लेकिन हमारे दिलों में, यादों में आज भी अपनी कमी से अखरते हो । हम सब की तसल्ली के लिए याद आते हो। यह तासीर आखिरी सांस तक रहे हम सब के जीवन में। किसी ने कहा है कि...
वो न होगा तो क्या कमी होगी
बस अधूरी सी जिंदगी होगी ।
यकीनन, कुछ तो है, जो अधूरा सा ही है।
शिवनाथ भाई को नमन करते हुए जो लगभग गोलोकवासी होने के इतने वर्षों बाद आज इस तरह मिले। वो भी जिसके जरिये आये थे ... ( लखनऊ यूनिवर्सिटी के पुरातन छात्र व अधिवक्ता पवन उपाध्याय की कलम से )
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