लाचार मन की दमित पीड़ा की लचर अभिव्यक्ति!
....बात शुरू करते हैं एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा ढाई दशक पुराने कुंभ आयोजन को लेकर साझा किए गए अनुभव की। साल 2001 में हुए सदी के पहले महाकुंभ का कवरेज करने ये पत्रकार साथी गए हुए थे। मेला आयोजन का जिम्मा तत्कालीन इलाहाबाद कमिश्नर सदाकांत शुक्ला के पास था. मेला तैयारियों के दौरान उन्होंने मीडियाकर्मियों से मुलाकात की, आदतन कुछ पत्रकारों ने उन्हे बताया कि कुंभ की तारीफ में किस तरह से उन्होंने अखबार के पन्ने रंग दिए हैं। इस पर सदाकांतं ने कहा कि आप तारीफ लिखिए ये अच्छी बात है लेकिन कहां-कहां तैयारियों में कोताही बरती जा रही है, कौन-कौन महकमा या अफसर लापरवाही कर रहा, कहां काम अभी बाकी है.... उसका जिक्र खबरों में जरूर करिए, क्योंकि इसी इनपुट के आधार पर कमियों को दुरुस्त करने में मदद मिल सकेगी, क्योंकि ये जानकारी उन्हें सरकारी मातहतों से कतई नहीं मिल सकती है।
अब आते हैं साल 2025 में, बहुत कुछ बदल गया, इलाहाबाद प्रयागराज हो गया, शाही स्नान अमृत स्नान हो गया, आयोजकगण बदल गए, कवरेज करने वाले मीडिया के चेहरे बदल गए। वो दौर आ गया जब चूक-खामी-कोताही लिखने का मीडिया में चलन खत्म हो गया, ये पाप माना जाने लगा. इस दौर में फील्ड रिपोर्टर सच लिखने का साहस दिखाए भी तो संपादक और मालिक उसे तो नहीं पर उसकी नौकरी को जरूर भस्म कर सकते हैं। ये तो है मीडिया की बेचारगी, अब बात करते हैं उन अफसरान की जिनके कांधे पर मेला आयोजन का जिम्मा था. सवाल उठता है कि उनमें से कितनों ने मीडिया से औपचारिक-अनौपचारिक संवाद किया? कितनों ने फील्ड रिपोर्टर्स से बात करके जमीनी हकीकत का जायजा लिया?....जवाब है किसी ने नहीं!....मौनी अमावस्या के स्नान के कुछ दिनों पहले से ही अफसरों का कुनबा सिर्फ और सिर्फ वीआईपी आगंतुकों के इस्तकबाल में ही बिछ चुका था। फील्ड में उतरे रिपोर्टर्स लगातार दिक्कतों से रूबरू हो रहे थे, ड्यूटी पर तैनात कई पुलिसकर्मियों की बदतमीजी इस कदर बढ़ चुकी थी कि उनकी ज्यादतियों के दायरे में न सिर्फ श्रद्धालु आ रहे थे बल्कि मीडियाकर्मी भी बदसुलूकी का शिकार हो रहे थे (वैसे, कैबिनों में बैठकर हुक्म चलाते संपादकों-मालिकों को अपने फील्ड रिपोर्टर्स के अपमान की कोई परवाह नहीं होती तो ये मुद्दा गौण ही माना जाए)। खैर, मेला क्षेत्र में जबरन लोगों को रोका जा रहा था-पांटून पुल पर आवाजाही बंद कर दी गई थी-सवाल पूछे जाने पर कोई जवाब देने को तैयार नहीं था-लोग बीस से पच्चीस किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर थे-पर अफसरों-कर्मचारियों की गाड़ियां उनके परिजनों-नातेदारों को भरकर भीड़ चीरती विचरण कर रही थीं ( गौर करने की बात है कि हर किसी के साथ डुबकी लगाने वाले स्थानीय मंत्री और कुछ नेताओं को छोड़ दें तो ज्यादातर विधायक-सांसद या तो अब कुंभ तक गए ही नहीं या फिर चुपचाप स्नान करके निकल गए) बस पूरे कुंभ मेला क्षेत्र में आईएएस व न्यायिक हाकिमों का ही जलवा बिखरा था, मजाल है कि उनकी हूटर बजाती गाड़ियों को कोई रोक दे या टोक दे। ये सब देब-सह रहे कई मीडिया के साथियों ने वहां हो रही ज्यादतियो का जिक्र मेला अफसरों से किया पर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। अब चूंकि अफसरान लाट साहेब हैं, इन्हें किसी आम श्रद्धालु या सामान्य मीडियाकर्मी की क्या परवाह, कागजों पर-समीक्षा बैठक में सब दुरुस्त बताकर वाहावाही लूटने-खुद की पीठ थपथपाने-हाकिम के सामने नबंर बढ़ाने की कवायद करके अफसर कर्तव्यों की इतिश्री मान ले रहे थे,
अब आत्ममुग्ध-दंभी-जमीनी वास्तिवकता से कटे अफसरो की जमात से भला किसी सकारात्मक नतीजे की उम्मीद की ही कैसे जा सकती है। इन अफसरों के लिए इससे अधिक शर्मनाक बात भला क्या हो सकती है कि जिस सीएम ने उन्हें अति भरोसे और अपेक्षाओं से तैनाती दी थी, अपनी लापरवाही व नाकामी से इन अफसरों ने उस सीएम को भी रूआंसा कर दिया, मायूस कर दिया। बहरहाल, अब जांच होगी, बहस-वाद-विवाद-बयानबाजी होगी, पर जो श्रद्धालु गंगा स्नान करके पुण्य बटोरने के बजाए अपनों की अस्थियां बटोरने को अभिशप्त हो गए उनके इंसाफ का क्या होगा? उनके आंसूओं-सिसकियों और ताउम्र के दर्द का हिसाब किताब कौन देगा? जवाबदेही किसकी होगी? अफसरों का चिरकाल से बाल बांका नहीं होता रहा है तो अब ऐसी उम्मीद करना बेमानी ही कहेंगे (लखनऊ के वरिष्ठ कलमकार ज्ञानेंद्र शुक्ला की फेसबुक वॉल से साभार)
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