साहिबान, मेहरबान, कदरदान... ठहरिए जरा। एक किस्सा सुनते–पढ़ते जाइए और कोशिश कीजिए इसके पीछे के मंतव्य–संदेश को समझने की।
वाकया परसों रात सोनारपुरा की एक दुकान का है।
सभ्य से पढ़े लिखे दिखने वाले एक सज्जन थे हॉफ स्वेटर में, साथ में कार्ट्राइज्ड लोअर और गुलाबी जैकेट गांथे उनकी श्रीमती जिनका जुड़ा मस्तक से थोड़ा ही ऊपर था। चश्मा लगाए बाप के कद का एक गोलू–मोलू बालक भी रहा कुछ 15–16 साल का, साथ में थी 7–8 साल की छुटकी सी बिटिया। पिता जी बिटिया को कंधे पर बिठाए थे और माता जी नुक्कड़ वाली दुकान से उस दुकान का पता पूछ रही थीं जहां भांग मिल जाए... काफी देर बतियाने के बाद दुकानदार से मुनक्का (रेडीमेड वाली भांग) की चार–पांच पुड़िया लेकर रवाना हुए वो लोग।
मैने दुकानदार से कहा कि खुराक भी बता दे उन्हें, कहीं ऐसा न हो कि एक के बाद दूसरी गोली ले के किसी और ही संसार में पहुंच जाएं माताजी, पिताजी या दोनों...
दुकानदार भी ठेठ था। छूटते ही बोला – मारा सारन के, यही सब खोजत हउवन बनारस आ के।
एक और सज्जन मिले थे कुछ दिन पहले घाट पर... ‘मेरे को गांजा किधर मिलेगा, आई’ल पे’ की रट लगाए हुए। एक और सज्जन मिले, जो घाट किनारे के लोगों से बनारसी गालियां सुनने का आग्रह कर रहे थे, खलिहर बनारसी कुछ देर बाद रौ में आए तो ऐसी ऐसी गालियां सुनाईं उन्हें कि पूछिए मत...
खैर, सोशल मीडिया पोस्ट्स और रील्स देखता हूं तो अजब गजब तरीके से पेश किया बनारस नजर आता है। कोई गलियों की मार्केटिंग कर रहा है तो कोई गालियों के गुन गा रहा है। कोई बोटिंग के बारे में बता रहा है तो कोई अफोर्डेबल ‘गंगा व्यू’ रूम्स दिला रहा है। कचौड़ी, मलइयो, कचालू, समोसा और चाट की रेटिंग देने वालों की मानो बाढ़ सी आ गई है। हालात जो हैं वो हाल ही में गुजरे नए साल पे, जब बनारस में बस जाम ही जाम दिखा।
तो जनाब, सुनिए ध्यान से।
बनारस आखिर है क्या? क्या पढ़ा है, क्या देखा है, क्या और कहां से रिकमेंडेशन लिए हैं आपने, क्या सोचते हैं आप इस शहर के बारे में।
चाहें किसी भी शहर, इलाके या कुदरत की किसी भी शय के बारे में हो... रील्स या पोस्ट्स आपको बस एक पहलू दिखा सकते हैं,समझिए इस बात को हुजूर।
आपने सोशल मीडिया पर आम बनारसी कुछ ऐसा देखा है
– वो हमेशा भांग के सरूर में भंड रहता है
– वो हमेशा चिलम लिए घूमता है और गांजे की धुनकी में रहता है
– वो हर सुबह नाश्ते में बस कचौड़ी–जलेबी और मलइयो खाता है
– शाम का उसका भोजन बस टमाटर चाट है
– वो हर बात पे गालियां देता है, बाप बेटे को, बेटा भाई को, भाई पड़ोसी को इत्यादि इत्यादि
– उसके गाल में हमेशा पान दबा रहता है
– वो जीविकोपार्जन के लिए कुछ नहीं करता
– वो हमेशा घाट पर बैठा रहता है और जब जी में आता है नाव खोल देता है गंगा की धार में
– उसके जीवन में सिर्फ मस्ती ही मस्ती है, उसके जिम्मे कोई काम नहीं है...
गुरुजी अब ठहर जाइए। बनारस दरअसल
– मस्त तो है लेकिन अपनी सभी चिंताओं के साथ
– प्रतिस्पर्धा है हमारे यहां भी, पहले आप जैसी तो नहीं थी मगर अब संक्रमण फैल रहा आपका
– हमारे घरों में चूल्हे हैं और हम भी सीजनल सब्जियां, रोटी, दाल–चावल, चटनी– अचार घर का खाते हैं
– हम सब गंजेड़ी नहीं हैं, न ही नियमित भांग का सेवन करते हैं। मोहल्ले की पान की दुकान पर आज भी नहीं रुकते
– आप सब ही की कृपा से मलइयो, कचौड़ी, गिलौरी और लौंगलता का स्वाद भी फीका पड़ता जा रहा है। कारण कि आप सबको सर्व करने के लिए क्वांटिटी बढ़ाने में गुप्ता जी क्वालिटी टेस्ट भूल जा रहे हैं
– गालियां हमारे यहां घरों से बाहर हैं। दोस्तों में प्यार वाली और रगड़े–झगड़े में हार्डकोर वाली। मगर जो तस्वीर आपने बनाई है गालियों वाली न, वो एकदम फर्जी है
– गम–ए–रोजगार हमें भी बहुत है। नौकरी कठिन और कम पर कैपिटा इनकम वाला शहर हैं हम...
तो कृपा करिए और अपने दिमाग में बनारस की दो कौड़ी की तस्वीरें बनाना बंद कर दीजिए जनाब।
बनारस दरअसल एक अवस्था है मन की। जिसमें सुकून है, शांति है, गंगा की लहरें हैं, उगता सूरज है, वसंत की नशे वाली हवा है, तीखी गर्मी और कड़ाके की ठंड है, सावन में हर हर महादेव है तो नवरात्र में जय माता दी है।
बनारस मोक्ष का शहर है पर इसका अर्थ यह नहीं कि यहां बच्चे नहीं पैदा होते। बनारस स्वाद का शहर है पर इसका अर्थ यह नहीं कि यहां रसना पर काबू रखने वाले नहीं।
बनारस देवताओं का शहर है मगर यहां इंसान भी रहते हैं गुरु।
आइए... बार बार आइए यहां। समझिए, महसूस करिए इस शहर को लेकिन भगवान के लिए अपने दिमाग की सड़न को इस शहर पर लागू मत करिए। बिना कोई छवि बनाए, बाबा को याद करते हुए आइए और इसे शहर को समझ कर, महसूस करके लौटिए।
सुकून शांति सब मिलेगी, बस चौराहों पर गांजा और भांग न तलाशिए।
बनारस को बनारस ही रहने दीजिए... ( बनारस के वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक त्रिपाठी के अंतरात्मा की आवाज)
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