आड़ी-तिरछी कटाक्ष रेखाओं के जरिए हिंदी में कार्टून कला को नई ऊंचाइयां देने के लिए काक को हमेशा याद किया जाएगा। वह हिंदी के पहले ऐसे कार्टूनिस्ट थे जिन्हें समाचार संपादक का ओहदा मिला था। हिंदी के आदि कार्टूनिस्ट कांजीलाल और फिर जगत के बाद काक ने कार्टून कला को समृद्ध बनाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी। कांजीलाल और जगत के कार्टून आज में छपते थे, लेकिन उनमें कटाक्ष बहुत गूढ़ होता था। काक ने अपनी कूंची के जरिए कार्टून को आमजन से जोड़ा। उनके कार्टून और चंद पंक्तियां पाठकों के मन -मस्तिष्क में नश्तर की तरह बीधती थी। उनके कार्टूनों में गजब मारक क्षमता थी। पाठकों को काक के कार्टून अपने दुख -दर्द का सबसे बुलंद स्वर लगते थे। कानपुर में आर्डिनेंस फैक्ट्री के मुलाजिम हरिश्चंद्र शुक्ल कैसे काक बने, यह भी कम दिलचस्प प्रसंग नहीं। दरअसल रेखाओं से खिलवाड़ उनका बचपन से शौक रहा। एक समय ऐसा भी आया जब इन्हीं रेखाओं के शगल में वह जमी जमाई सरकारी नौकरी को अलविदा कहकर अखबारी दुनिया में आकर रम गए। कानपुर छूटा। जनसत्ता, नवभारत टाइम्स में भी वह रहे। मूलतः उन्नाव जिले के शुक्लागंज निवासी थे काक। वहां के चम्पापुरी मोहल्ले से काकदृष्टि नाम से एक पत्रिका भी निकालते थे, जिसमें सिर्फ कार्टून ही छपा करते थे। पाठकों को हर सुबह उनके पाकेट कार्टून नजरिया का बेसब्री से इंतजार रहता था। जब कभी वह ताजा विषय पर बड़ा कार्टून भी बनाते थे। इन दिनों वह अपने परिवार के साथ नोएडा में रह रहे थे। लेकिन, कार्टून बनाने का क्रम जारी था। उनका तिरोधान हिंदी कार्टून कला जगत का बड़ा नुकसान है। सादर नमन काक जी। आपकी कमी हिंदी के पाठकों को बहुत खेलेगी। ( देश के वरिष्ठ पत्रकार राजू मिश्र की कलम से )
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