पहली बार जब उनसे मिला तो वो 2011 गर्मियों की शाम थी। उस साल मेरी एक खबर को प्रतिष्ठत केसी कुलिश इंटरनेशनल अवार्ड आफ जनर्लिज्म के लिए चुना गया था। देश के प्रधानमंत्री के हाथों अवार्ड लेना बेशक किसी भी पत्रकार के लिए गौरव की बात है। मैं भी रोमांचित था। ज्यादा रोमांच इस बात को लेकर था कि यह पुरस्कार मुझे उस मनरेगा योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार के उजागर करने के लिए मिलने वाला था जिस योजना की शुरूआत खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने की थी। मनरेगा उनका ड्रीम प्रोजेक्ट था और मैने पाया था कि जिस साल ये योजना लागू हुई उसके अगले ही साल से गांवों के प्रधान बुलेरो जैसी बड़ी गाडियों पर घूमने लगे थे। मनमोहन सरकार ने हर ग्रामीण परिवार को 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी थी। लेकिन ये सब सिर्फ कागजों में चल रहा था। ग्राम प्रधान सहकारी और ग्रामीण बैंकों के मैनेजरों से मिल गए थे। उनने किसानों के फर्जी खाते खुलवाए। कागजों पर नाले, पुलिया व सड़कें बनीं और नहरें खोदी गईं। और मनरेगा का सारा पैसा प्रधान और उसके गुर्गे इन फर्जी खातो से निकलाने लगे। जमीनी सच का पता लगाने के लिए मैंने लखनऊ के आसपास के सीतापुर और बाराबंकी जैसे जिलों के गांवों में दौरा किया और ये रिपोर्ट तैयार की थी। यह रिपोर्ट फर्जी दस्तावेजों और तस्वीरों के साथ हमारे संपादक नवीन जोशीजी ने पहले पेज पर लीड छापी। अगले दिन हंगामा हुआ और खबर की गूंज दिल्ली तक सुनाई दी। खबर का असर हुआ और कुछ दिन बाद ही केन्द्र सरकार ने आदेश जारी कर दिया कि अब किसानों के खाते केवल राष्ट्रीयकृत बैंकों में ही खोले जा सकेंगे।
बाद में वरिष्ठ पत्रकारों की ज्यूरी ने इस खबर को केसी कुलिश इंटरनेशनल अवार्ड के लिए चुना। और अजीब इत्तेफाक था कि अवार्ड देने के लिए आए इसी योजना के जन्मदाता सरदार मनमोहन सिंह। अवार्ड से ठीक पहले जब उदघोषिका ने माइक से मनरेगा की इस स्टोरी का जिक्र किया तो देख डा मनमोहन सिंह मुझे देखकर मुस्कुरा रहे हैं। मौनी बाबा को मैंने इस तरह मुस्कुराते किसी तस्वीर मे भी नहीं देखा था। उनके हाथों से अवार्ड लेने उनके नजदीक आया तो वे फुस्फुसाए ' वैल डन सन। द कंट्री नीड्स दिस काइंड ऑफ जर्नलिज्म।' वे फिर मुस्कुराने लगे। ऐसे थे सरदारजी। सरदार मनमोहन सिंह जी को हार्दिक श्रद्धांजलि। ( देश के वरिष्ठ पत्रकार दयाशंकर शुक्ल की कलम से )
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