- भगवान श्री कृष्ण की तरह ही गोपियां भी रसमयी और सच्चिदानन्दमयी
लोकाचार मे हम मानकर चलते हैं कि पूर्णिमा अर्थात चांदी के रंग वाली रोशनी से युक्त चंद्रमा की किरणें चारों तरफ उजाला कर रही हैं। वैसे तो प्रत्येक दिन उत्सव है पर पूर्णिमा विशेष तौर पर पूजापाठ वाला दिन होता है, पर शरद पूर्णिमा के यह माना जाता है कि उस दिन अमृत बरसता है। लोग रात्रि में खीर बनाकर अपनी छत पर रख देते हैं ताकि बरसता हुआ अमृत उनकी खीर पर गिरकर उसे भी अमृत बना दे।कभी आपने सोचा है कि यह मान्यता क्यों प्रचलित हुई. इसका उत्तर भागवत पुराण में मिलता है। इस अद्भुत रात्रि में महारास अथवा रासलीला हुई थी। भागवत के दशम स्कंध के उन्तीसवे अध्याय से इसका दिव्य वर्णन किया गया है। कई लोग इस प्रसंग को लेकर भ्रांतिया फैला रहे है, आज उसे भी दूर करने का प्रयास करूंगा इस लेख के माध्यम से।श्रीमद्भागवत में ये रासलीला के पाँच अध्याय उसके पाँच प्राण माने जाते हैं। भगवान् श्रीकृष्णकी परम लीला, गोपिकाओं और राधा के साथ होनेवाली भगवान् की क्रीडा का वर्णन यहां इन अध्यायों में है। आज का समय ही ऐसा है, जिसमें भगवान् की लीलाओं को अलग करें तो स्वयं भगवान के अस्तित्व पर ही अविश्वास प्रकट किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में रहस्य न समझकर लोग तरह की अटकलें लगाते हैं।आश्चर्य की कोई बात नहीं है. यह लीला को अन्तर्दृष्टि से और मुख्यतः भगवत कृपा से ही समझ में आती है। ध्यान रहे कि भगवान् का शरीर साधारण जीव शरीर की भाँति जड नहीं होता, जड की सत्ता केवल जीव की दृष्टि होती है, भगवान की दृष्टि में नहीं। यह देह है और यह देह धारण करने वाला, इस प्रकार का भेद- केवल लौकिक संसार में होता है। उस लोक में नहीं जहां की प्रकृति भी चिन्मय है। जब मनुष्य भगवान की लीलाओं के सम्बन्ध में विचार- करने लगता है, तब वह अपनी पूर्व वासनाओं के अनुसार जडता पूर्ण धारणाओं और क्रियाओं का ही आरोप करता है, इसलिये इस लीला के रहस्य को समझने में असमर्थ हो जाता है। भगवान की तरह ही गोपियां भी रसमयी और सच्चिदानन्दमयी हैं। साधना से उन्होंने जड शरीर का ही त्याग कर दिया है। उनकी दृष्टि में केवल श्रीकृष्ण है, उनके हृदय में श्रीकृष्ण को प्रसन्न करनेवाला स्नेह है। ब्रह्मा, शंकर, उद्धव और अर्जुन ने गोपियों की उपासना करके भगवान के चरणों में वैसे प्रेम का वरदान पाया है। भगवान अजन्मा और अविनाशी है। वे नित्य सनातन शुद्ध भगवत स्वरूप ही है।गोपियां दिव्य जगत से भगवान् की अनन्त अंतरंग शक्तियां हैं। इन दोनों का सम्बन्ध भी दिव्यतम है। यह उच्चतम भाव स्थूल शरीर और स्थूल मन से परे है। वस्त्रहरण करके जब भगवान स्वीकृति देते हैं, तब इसमें प्रवेश होता है। स्थूल देह का निर्माण होता है स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीन देहों के संयोग से. जब तक कारण- शरीर' रहता है, तब तक इस प्राकृत देह से जीव को छुटकारा नहीं मिलता. 'कारण शरीर' कहते हैं पूर्व के कर्म, संस्कारों को, जो देह-निर्माण में कारण होते हैं. इस कारण शरीर को बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना होता है और मुक्ति न मिलने तक अथवा 'कारण' का सर्वथा अभाव न होने तक चलता ही रहता है. इसी कर्मबन्धन के कारण पंचभौतिक स्थूलशरीर मिलता है - जो रक्त, मांस, अस्थि आदिसे भरा और चमड़ेसे ढका होता है। प्रकृति के राज्य में जितने शरीर होते हैं, सभी वस्तुतः योनि और बिन्दु के संयोग से ही बनते हैं। श्रीकृष्ण का एक-एक अंग पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्ण का मुखमण्डल जैसे पूर्ण श्रीकृष्ण है, वैसे ही श्रीकृष्ण का पदनख भी पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्ण की सभी इन्द्रियों से सभी काम हो सकते हैं. उनके कान देख सकते हैं, उनकी आंख सुन सकती हैं, उनकी नाक स्पर्श कर सकती है, उनकी रसना सूँघ सकती है। वे दांतो से देख सकते हैं, आंखों से चल सकते हैं। श्रीकृष्ण का सब कुछ श्रीकृष्ण होने के कारण वह सर्वथा पूर्णतम है। भगवान का शरीर न तो कर्म- जन्य है, न मैथुनी सृष्टि का है और न देवी ही है। वह तो इन सबसे परे शुद्ध भगवत स्वरूप है। उसमें रक्त, मांस, अस्थि आदि नहीं हैं, अतएव उसमें शुक्र भी नहीं है, इसलिए उसमें प्राकृत पंच भौतिक शरीरों वाले स्त्री-पुरुषों के रमण या मैथुन की कल्पना भी नहीं हो सकती। इसलिये भगवान को उपनिषद् में'अण्ड ब्रह्मचारी' बताया गया है और अगर कोई सन्देह करे कि उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के इतने पुत्र कैसे हुए तो इसका उत्तर यही है कि यह सारी सृष्टि तो भगवान् के संकल्प से हुई थी. भगवान् के शरीर में जो रक्त-मांस आदि दिखलायी पड़ते हैं, वह तो भगवान् की योगमाया का चमत्कार है। इस विवेचन से भी यही सिद्ध होता है कि गोपियों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण का जो रमण हुआ, वह सर्वथा दिव्य भगवत्-राज्य की लीला है, लौकिक काम की नहीं इसलिए गोपियां इस महारास के लिए बड़ी लालायित हैं क्योंकि इन गोपियोंकी साधना पूर्ण हो चुकी हैं। भगवान ने अगली रात्रियों में उनके साथ विहार करने का निश्चय कर लिया है। इसी के साथ उन गोपियों जो विवाहिता भी हैं, इन्हीं रात्रियों में लीला में सम्मिलित किया है। उन्होंने शारदीय रात्रियों को देखा 'भगवान् ने देखा' - इसका अर्थ सामान्य नहीं, विशेष है।
जैसे सृष्टि का प्रारम्भ में 'स ऐक्षत एकोऽहं बहु स्याम् ।'- भगवान इस लक्षण से जगत की उत्पत्ति होती है, वैसे ही रास के प्रारम्भ में भगवान दिव्य रात्रियों की सृष्टि करते है। मलिका पुष्प, चन्द्रिका आदि समस्त वस्तु लौकिक नहीं, अलौकिक है। गोपियों ने अपना मन श्रीकृष्ण के मन में मिला दिया था। उनके पास स्वयं मन न था. इतना होने पर भगवान की बाँसुरी बजती है।भगवान की बांसुरी जड़ को चेतन, चेतन को जड़, चल को अचल और अचल को चल, विक्षिप्त को समाधिस्थ और समाधिस्य को विक्षित बनाती रहती हैं।भगवान का प्रेम पाकर गोपियां निश्चिन्त होकर घरके काम में रमी हुई थीं। कोई गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा पूजा पाठ में लगी हुई थी, कोई गो सेवा आदि लौकिक कामों के काम में लगी हुई थी। कोई पूजा-पाठ आदि मोक्ष साधन में लगी हुई थी. वंशी ध्वनि सुनते ही कर्म की पूर्णता पर उनका ध्यान नहीं गया; वे चल पड़ी। किसी ने किसी से पूछा नहीं, सलाह नहीं की; जो जैसे थी, वैसे ही श्रीकृष्ण के पास पहुँच गयी। मर्यादापूर्ण बंध साधना और मर्यादारहित अवैध प्रेमसाधना के स्वतन्त्र नियम है. बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है, जहां इनकी आवश्यकता नहीं हैं. ये वहां अपने आप वैसे ही छूट जाते हैं, जैसे नदी के पार पहुंच जाने पर स्वाभाविक ही नौका की सवारी छूट जाती हैं, इसीलिये भगवान ने गीता में एक जगह तो अर्जुन से कहा है। न मे पारित गर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवास प्रवासज्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
यदि पर्वेयं धातु कर्मण्यतन्द्रियः। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || वत्सीदेयुरिमेटोफ म कुर्वा कर्म चेदद्दम् संकरस्य च कर्ता स्यामुपदम्यामिमाः प्रजाः ॥ साः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्द्वि भारत। कुर्याद्विद्वांस्तवासक चिकीर्युलोकसंग्रहम्।।
यहाँ भगवान लोकनायक बनकर सन्देश देते हैं, इसीलिये अपना उदाहरण देकर लोगों को कर्म मे रत करना चाहते हैं. गीता में जहाँ यह बात कहते हैं, वहाँ स्पष्ट कहते हैं। सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं। अर्थात - 'सारे धर्मका त्याग करके तू केवल एक मेरी शरण में आ जा ।" यह बात सबके लिये नहीं है, इसी से भगवान् 98.64 में इसे सबसे बढ़कर छिपी हुई गुप्त बात ( सर्वगुह्यतम ) कहकर इसके बादके ही श्लोक में कहते - अर्जुन ! इस सर्वातम बात को जो इन्द्रिय-विजयी सम्पत्ति न हो, मेरा भक्त न हो, सुनना न चाहता हो और मुझमें दोष लगाता हो, उसे न कहना ! गोपीजन साधना के इसी उच्च स्तर में परम आदर्श थी. इसी से उन्होंने देह-गेह, पति-पुत्र, लोक- परलोक, कर्तव्य-धर्म-सबको छोड़कर सबका त्याग कर एकमात्र परमधर्म भगवान श्रीकृष्ण को ही पाने के लिये अभिसार किया था। इस 'सर्वत्याग' रूप स्वधर्म का आचरण गोपियों-जैसे उच्च स्तर के साधकों को ही सम्भव है क्योंकि सब धर्मो का यह त्याग वही कर सकते हैं, जो इस भगवत् प्रेम को प्राप्त कर चुकते हैं, वे भी जान-बूझ कर त्याग नहीं करते. सूर्य का प्रखर प्रकाश हो जाने पर दीपक की भाँति स्वतः ही ये उसे त्याग देते हैं. यह त्याग तिरस्कारमूल का नहीं, बल्कि तृप्तिमूलक है. भगवत प्रेम की ऊँची स्थिति का यही खरूप है।जिसको भगवान् अपनी बांसुरी की ध्वनि सुनाकर नाम ले लेकर बुलायें, वह कैसे नही आता. रोकने वालों ने रोका भी, परंतु हिमालय से निकलकर समुद्र में गिरनेवाली ब्रह्मपुत्र नदी की प्रखर धारा को क्या कोई रोक सकता है. वे नहीं रुकीं. जिनके चित्त में कुछ संस्कार बचे थे, वे सशरीर जाने में समर्थ न हुई। उनका शरीर घर में पड़ा रह गया, भगवान के वियोग-दुःख से उनके सारे कलुष धुल गये, ध्यान में प्राप्त भगवान के प्रेमाग्नि से उनके समस्त सौभाग्य का परमफल प्राप्त हो गया और वे भगवान के पास सशरीर जानेवाली गोपियों के पहुँचने से पहले ही भगवान के पास पहुँच गया.भगवान में मिल गयी। यह शास्त्र का प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि पाप-पुण्य के कारण ही बन्धन होता है और शुभाशुभ का भोग होता है. उनके विरह से उनको इतना महान संताप हुआ कि उससे उनके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये और प्रियतम भगवान के ध्यानसे उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उससे उनके सारे पुण्योंका फल मिल गया. बंशी-निमन्त्रण से प्रेरित होकर गोपियों उनके पास आयी; परंतु उन्होंने ऐसा भाव प्रकट किया, ऐसा वातावरण बनाया, मानो उन्हें गोपियोंके आने का कुछ पता ही न हो।शायद गोपियों के मुंह से वे उनके हृदय की बात प्रेम की बात सुनना चाहते हो। उन्होंने कहा—गोपियों ! वन में कोई मुसीबत तो नहीं आयी,देर रात में यहाँ आनेका कारण क्या है ? घरवाले ढूंढ़ते होंगे, अब यहाँ ठहरना नहीं चाहिये. वन की शोभा देख ली, अब बछड़ों का भी ध्यान करो. अपने सगे-सम्बन्धियों की सेवा छोड़कर वन में दर-दर भटकना स्त्री के लिये अनुचित है. अपने पति की ही सेवा करनी चाहिये, वह कैसा भी क्यों न हो. यही सनातन धर्म के अनुसार तुम्हें चलना चाहिये. मैं जानता हूँ कि तुम सब मुझसे प्रेम करती हो. परंतु प्रेम शारीरिक नहीं है. स्मरण, दर्शन और ध्यान से प्रेम अधिक बढ़ता है. लौट जाओ, तुम सनातन सदाचार का पालन करो इधर-उधर मन को मत भटकने दो।यह शिक्षा गोपियों के लिये नहीं, सामान्य नारी के लिये है. इन्हें सुनकर गोपियों का क्या हाल हुआ ? उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की वे श्रीकृष्ण को मनुष्य नहीं मानतीं, यह के शरीर-मन-प्राण, वे जो कुछ थी सब श्रीकृष्ण में एक हो गये. गोपियों के उस 'महाभाव' को उन्होंने मुक्तकण्ट से खीकार किया कि 'गोपियो, मैं तुम्हारे प्रेमभाव का चिर-ऋणी हुं। यदि मैं अनन्त काल तक तुम्हारी सेवा करता रहूं तो भी तुमसे उरून नहीं हो सकता। मेरे अंतर्ध्यान होने का प्रयोजन तुम्हारे चित्त को दुखाना नहीं था, बल्कि तुम्हारे प्रेम को और भी समृद्ध करना था. इसके बाद रास क्रीड़ा प्रारम्भ हुई। इन्द्रादि देवगण एक ही समय अनेक स्थानों पर उपस्थित होकर अनेकों कार्य स्वीकार कर सकते. श्रीकृष्ण यदि एक ही साथ अनेक गोपियों के साथ क्रीड़ा करें, तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है जो लोग भगवान को भगवान नहीं स्वीकार करते, वहीं अनेकों प्रकार की शंकाएं करते हैं. भगवान की लीला में इन तर्कों का स्थान नहीं है। गोपियां श्रीकृष्ण की सखियां थीं या परकीया, यह प्रश्न उठाया जाता है। अपनी प्रार्थना में गोपियो ने और परीक्षित और श्री शुकदेवजी ने यही बात कही है कि गोपी, गोपियों के पति उनके पुत्र, सगे-सम्बन्धी और जगत् के समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मारूप से परमात्मा रूप से जो प्रभु स्थित हैं-वही श्रीकृष्ण हैं. कोई अज्ञान से, भले ही श्रीकृष्ण को पराया समझे; वे किसी के पराये नहीं हैं, सबके अपने हैं, सब उनके हैं। गोपियां का जीवन साधना की चरम सीमा पर पहुँच चुका है, सदाचार का उल्लंघन कैसे कर सकती हैं और समस्त धर्म मर्यादाओं के संस्थापक श्रीकृष्ण पर धर्मोलंघन का आरोप कैसे लगाया जा सकता है ! श्रीकृष्ण और गोपियों के सम्बन्ध इस प्रकार की बातें उनके दिव्य स्वरूप और दिव्यलीला के विषय में अनभिज्ञता ही प्रकट करती हैं। श्रीमद्भागवत, दशम स्कन्ध पर अब तक अनेकानेक भाष्य और टीकाएं लिखी जा चुकी हैं- जिनके लेखकों में जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्य, श्री श्रीधरस्वामी, बीजीबगोस्वामी आदि हैं. उन लोगों ने बड़े विस्तार से रासलीला की महिमा समझायी है। परंतु इससे ऐसा नहीं मानना चाहिये कि श्रीमद्भागवत में वर्णित रमण केवल रूपक या कल्पना- मात्र है. यह सर्वथा सत्य है और जैसा वर्णन है, वैसा ही मिलन रूप श्रृंगार का रसास्वादन ही हुआ था, भेद इतना ही है कि वह लौकिक स्त्री-पुरुषों का मिलन न था. उनके नायक थे नन्दनन्दन और नायिका थीं स्वयं श्रीराधा श्रीगोपीजन. अतएव इनकी यह लीला दिव्य थी. भगवान का अनुकरण कोई सम्भव नहीं।श्रीकृष्ण की इन लीलाओं का अनुकरण तो केवल श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं. जो लोग भगवान श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य मानते हैं और केवल मानवीय भाव एवं आदर्श की कसौटी पर उनके चरित्र को कसना चाहते हैं, वे पहले ही विमुख हो जाते हैं, उनके चित्तमें धर्म की कोई धारणा ही नहीं रहती और वे भगवान को भी अपनी बुद्धि के पीछे चलाना चाहते हैं. इसलिये साधकों के सामने उनकी उक्ति-युक्तियों का कोई महत्त्व हो नहीं रहता. जो 'श्रीकृष्ण स्वयं भगवान है' इस वचन को नहीं मानता, यह उनकी लीलाओं को किस आधार पर सत्य मानकर उनकी आलोचना करता है- यह समझमें नहीं आता. जैसे मानवधर्म, देवधर्म और पशुधर्म पृथक्-पृथक् होते हैं, वैसे ही भगवद्धर्म मी पृथक् होता है और भगवान के चरित्र का परीक्षण उसकी ही कसौटी पर होना चाहिये। भगवान का एकमात्र धर्म है-प्रेम और अभिलाशा की पूर्ति। श्रीकृष्ण की अवस्था उस समय दस वर्ष के लगभग थी, जैसा कि भागवत पुराण में स्पष्ट वर्णन मिलता है. गाँवों में रहनेवाले बहुत से दस वर्ष के बच्चे तो नंगे ही रहते हैं उन्हें काम- वृत्ति और स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का कुछ ज्ञान ही नहीं रहता. लड़के-लड़की एक साथ खेलते हैं, नाचते हैं, गाते हैं। ( अशोक झा)
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