आज यानि 2 अक्टूबर को पूरा देश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन मना रहा है। बता दें कि ये महात्मा गांधी की 155वीं जयंती है। आजादी की जंग में बापू का अहम योगदान रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस्लाम से बहुत प्रभावित थे। उनकी ज़िन्दगी पर इस्लाम का बहुत गहरा असर पड़ा। अकसर वे इसका ज़िक्र किया करते थे। वे इस्लाम के समानता और भाईचारे के पैग़ाम के क़ायल थे। महात्मा गांधी ने 23 जून 1934 को अंजुमन-ए- फ़िदाये द्वारा अहमदाबाद में आयोजित एक समारोह में पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर अपने विचार रखे थे। उनका यह वक्तव्य हरिजन बंधु के अहमदाबाद से प्रकाशित जुलाई संस्करण में प्रकाशित हुआ था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के हवाले से कहा जाता है कि वे इस्लाम की शिक्षाओं को जानने और समझने के लिए क़ुरआन का अध्ययन किया करते थे। एक बार गांधीजी ने कहा था कि अगर उनके पास इमाम हुसैन के साथियों जैसे बहत्तर साथी होते, तो वे चौबीस घंटे में भारत को अंग्रेज़ों से आज़ाद करा लेते।
इस्लाम का यह समानता और भाईचारे का ही पैग़ाम तो था, जिससे यूरोप वाले भयभीत रहते थे। इस बारे में महात्मा गांधी का कहना था- ''कहा जाता है कि यूरोप वाले दक्षिणी अफ़्रीका में इस्लाम के प्रसार से भयभीत हैं, उस इस्लाम से जिसने स्पेन को सभ्य बनाया, उस इस्लाम से जिसने मराकेश तक रोशनी पहुंचाई और संसार को भाईचारे की इंजील पढ़ाई।।दक्षिणी अफ़्रीका के यूरोपियन इस्लाम के फैलाव से बस इसलिए भयभीत हैं कि उनके अनुयायी गोरों के साथ कहीं समानता की मांग न कर बैठें। अगर ऐसा है तो उनका डरना ठीक ही है. यदि भाईचारा एक पाप है, यदि काली नस्लों की गोरों से बराबरी ही वह चीज़ है, जिससे वे डर रहे हैं, तो फिर (इस्लाम के प्रसार से) उनके डरने का कारण भी समझ में आ जाता है.'' (प्रो. के.एस. रामाकृष्णा राव की पुस्तक इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल) में। महात्मा गांधी के दिल में अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए बहुत सम्मान और आदर भाव था. वे कहते थे- ''मैं पैग़म्बरे-इस्लाम की जीवनी का अध्ययन कर रहा था. जब मैंने किताब का दूसरा भाग भी ख़त्म कर लिया तो मुझे दुख हुआ कि इस महान प्रतिभाशाली जीवन का अध्ययन करने के लिए अब मेरे पास कोई और किताब बाक़ी नहीं। अब मुझे पहले से भी ज़्यादा विश्वास हो गया है कि यह तलवार की शक्ति न थी जिसने इस्लाम के लिए विश्व क्षेत्र में विजय प्राप्त की, बल्कि यह इस्लाम के पैग़म्बर का अत्यंत सादा जीवन, आपकी निःस्वार्थता, प्रतिज्ञा-पालन और निर्भयता थी, आपका अपने मित्रों और अनुयायियों से प्रेम करना और ईश्वर पर भरोसा रखना था।
यह तलवार की शक्ति नहीं थी, बल्कि ये सब विशेषताएं और गुण थे जिनसे सारी बाधाएं दूर हो गईं और आपने समस्त कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर ली। मुझसे किसी ने कहा था कि दक्षिण अफ़्रीका में जो यूरोपियन आबाद हैं, इस्लाम के प्रचार से कांप रहे हैं, उसी इस्लाम से जिसने मोरक्को में रौशनी फैलाई और संसार-निवासियों को भाई-भाई बन जाने का सुखद संवाद सुनाया। निःसन्देह दक्षिण अफ़्रीका के यूरोपियन इस्लाम से नहीं डरते हैं, लेकिन वास्तव में वह इस बात से डरते हैं कि अगर इस्लाम क़ुबूल कर लिया तो वह श्वेत जातियों से बराबरी का अधिकार मांगने लगेंगे। आप उनको डरने दीजिए. अगर भाई-भाई बनना पाप है, यदि वे इस बात से परेशान हैं कि उनका नस्ली बड़प्पन क़ायम न रह सके तो उनका डरना उचित है, क्योंकि मैंने देखा है कि अगर एक जूलो ईसाई हो जाता है तो वह सफ़ेद रंग के ईसाइयों के बराबर नहीं हो सकता।।किन्तु जैसे ही वह इस्लाम ग्रहण करता है, बिल्कुल उसी वक़्त वह उसी प्याले में पानी पीता है और उसी तश्तरी में खाना खाता है जिसमें कोई और मुसलमान पानी पीता और खाना खाता है, तो वास्तविक बात यह है जिससे यूरोपियन कांप रहे हैं। (इंसानियत फिर ज़िन्दा हुई)। महात्मा गांधी ने कहा था कि दक्षिण अफ़्रीका की मेरी पहली यात्रा उस देश में एक मुसलमान फ़र्म के मामलों के सिलसिले में थी। और वहां मुझे वर्षों तक मुस्लिम मित्रों के साथ घनिष्ठ संपर्क में रहने का सौभाग्य मिला।मुसलमानों के साथ मेरे संबंधों की वजह से मुझे लगा कि पैग़म्बर के जीवन का अध्ययन करना मेरा कर्तव्य है। मैंने दक्षिण अफ़्रीका में ऐसा करने का प्रयास किया था। लेकिन तब मुझे पर्याप्त जानकारी नहीं थी। भारत में कारावास मेरे लिए सौभाग्य लेकर आया और इस प्रकार मुझे मौलाना शिबली की पैग़म्बर की जीवनी पढ़ने का अवसर मिला। जीवनी पढ़ने से मुझे यह आभास हुआ कि पैग़म्बर सत्य के खोजी थे। वे ईश्वरभक्त थे। मैं जानता हूं कि मैं आपको कुछ भी नया नहीं बता रहा हूं। मैं आपको केवल यह बता रहा हूं कि मैं उनके जीवन से कैसे प्रभावित हुआ।उन्हें अंतहीन उत्पीड़न सहना पड़ा। वे बहादुर थे और किसी अन्य व्यक्ति से नहीं, बल्कि केवल ईश्वर से डरते थे।
उन्होंने परिणामों की परवाह किए बिना वही किया जो उन्हें सही लगा। उन्हें कभी कुछ कहते और कुछ और करते नहीं पाया गया। उन्होंने जैसा महसूस किया वैसा ही किया। यदि उनकी राय में कोई बदलाव होता था, तो अगले दिन वह निन्दा या विरोध की परवाह किए बिना बदलाव पर प्रतिक्रिया देते थे. पैग़म्बर एक फ़क़ीर थे। उन्होंने सबकुछ त्याग दिया। यदि वे चाहते तो धन कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। @ अशोक झा
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