अशोक झा, कश्मीर : आतंकवाद से जूझ रहा जम्मू कश्मीर मेरे पत्रकारिता का सबसे ज्यादा पसंदीदा क्षेत्र रहा है। आज धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद पहले मुख्यमंत्री के रूप में उमर अब्दुल्ला ने शपथ लिया। जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बनने के बाद उमर अब्दुल्ला ने तुरंत बड़ा फैसला लिया है। उन्होंने जम्मू-कश्मीर पुलिस को निर्देश दिया है कि उनकी वजह से आम लोगों को होने वाली असुविधा को कम से कम किया जाए।उन्होंने जम्मू-कश्मीर के डीजीपी को निर्देश दिया है कि उनके काफिले की वजह से आम जनता को कोई भी दिक्कत या परेशानी नहीं होनी चाहिए। ग्रीन कॉरिडोर न बनाया जाए: केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री बने उमर अब्दुल्ला ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा है, मैंने डीजी से बात की है कि जब मैं सड़क मार्ग से कहीं भी जाऊं तो कोई ग्रीन कॉरिडोर ना बने या यातायात न रुके. मैंने उन्हें सार्वजनिक असुविधा को कम करने और सायरन का उपयोग कम से कम करने का निर्देश दिया है। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जीता चुनाव: बता दें कि हाल ही में खत्म हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 42 सीटें जीती हैं. वहीं उसकी सहयोगी कांग्रेस को 6 और सीपीआईएम को एक सीट मिली है. इसके अलावा 4 निर्दलीयों ने भी उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार का समर्थन किया है।
अब्दुल्ला परिवार की कहानी झेलम नदी के किनारे बसे श्रीनगर के सौरा इलाके से शुरू होती है। उनके पूर्वज सप्रू गोत्र के कश्मीरी ब्राह्मण थे। यह बात खुद उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला ने कई बार सार्वजनिक तौर पर स्वीकार की थी। शेख ने अपनी आत्मकथा 'आतिशे चीनार' में इसका जिक्र किया है। इसमें लिखा है- 'उनके पूर्वज हिंदू ब्राह्मण थे। साल 1766 की बात है। उनके परदादा सूफी मीर अब्दुल रशीद बैहाकी से खासा प्रभावित हुए और उन्होंने इस्लाम अपना लिया था।' शेख के परदादा का नाम बालमुकुंद कौल था।
पाकिस्तान बनाए जाने के खिलाफ थे शेख अब्दुल्ला: शेख अब्दुल्ला भारत के टुकड़े कर नया राष्ट्र पाकिस्तान बनाने के खिलाफ थे। इस कारण शेख उस वक्त के कट्टर मुस्लिम नेताओं के निशाने पर आ गए थे। कश्मीरी पत्रकार बशारत पीर ने अपनी किताब 'कर्फ्यूड नाइट' में इसका जिक्र किया है।'कर्फ्यूड नाइट' के मुताबिक, 1947 में जब देश विभाजन होने जा रहा था। तब सवाल ये था कि कश्मीर किसके साथ जाए। विलय पर फैसला लेने के लिए कश्मीर के राजा हरि सिंह और शेख अब्दुल्ला ने दिल्ली से समय मांगा था। बाद में शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करने का समर्थन किया, लेकिन साथ ही धर्मनिरपेक्ष भारत के भीतर राज्य के लिए एक विशेष दर्जा देने की मांग भी की थी। माना जाता है कि वे जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का दो कारणों से विरोध कर रहे थे। पहली- वह पंडित जवाहरलाल नेहरू के दोस्त थे और जिन्ना की राजनीति के विरोधी। दूसरी- वह कश्मीर पर पंजाबी मुस्लिमों का प्रभुत्व नहीं चाहते थे। जम्मू-कश्मीर आधिकारिक तौर पर किसके साथ जाएगा, इस पर फैसला होता, उससे पहले ही पाकिस्तानी सेना के साथ कबाइलियों ने हमला कर दिया था। ऐसे में कश्मीर के राजा हरि सिंह ने बिना स्पेशल दर्ज के ही तुरंत भारत में विलय करने फैसला लिया। शेख ने भी इसका समर्थन किया।
दोस्ती के बावजूद नेहरू ने शेख को कैद करवाया: तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू दिल्ली और कश्मीर के बीच शेख को ब्रिज मानते थे। यही वजह है कि नेहरू ने 1947 में राजा हरिसिंह दबाव डाला और शेख को कश्मीर का प्रधानमंत्री (आजादी के बाद पहली बार सभी राज्यों में सीएम नहीं, पीएम पद हुआ करता था, ज ) नियुक्त करवा दिया। आजादी के बाद भी राज्य से संबंधित फैसलों के लिए नेहरू शेख से बात करते थे। फिर एक घटना ऐसी हुई कि सब बदल गया। नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री पद से हटाकर जेल में डाल दिया। बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व वकील द्वारा लिखी किताब '370 अ कॉन्स्टिट्यूशनल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर' में इसका जिक्र किया गया है।किताब में लिखा है- ' नेहरू ने 31 जुलाई 1953 को एक नोट शेयर किया था। नोट में कश्मीर की सदर-ए-रियासत को राज्य में चल रही अनियमितताओं के चलते कुछ लोगों को पद से हटाए जाने की बात लिखी थी। एक हफ्ते बाद नेहरू ने एक पत्र लिखकर शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री पद से हटा दिया। उनकी जगह बख्शी गुलाम मोहम्मद को प्रधानमंत्री बना दिया। शेख को प्रधानमंत्री पद से हटाने के पीछे उनकी भारत सरकार विरोधी नीतियां मानी जाती हैं। शेख अब्दुल्ला ने 1947 से 1953 के बीच कई बार कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने की बात कही थी। पद से हटाए जाने के बाद शेख को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। वह 11 साल जेल में रहे। शेख को अप्रैल 1964 में जेल से रिहा किया गया। तब तक उन्होंने आजाद कश्मीर की मांग छोड़ दी थी। फिर से राजनीतिक कामकाज में जुट गए। पुष्प वर्षा के साथ हुई थी फारूक की ताजपोशी: इतिहास की किताबों और पुरानी मीडिया रिपोर्टों को खंगालने पर पता चलता है कि उमर अब्दुल्ला के दादा अपने बेटे फारूक से ज्यादा बेटी खालिदा को तवज्जो देते थे। हालांकि, जब बात राजनीति में अगली पीढ़ी को लाने यानी राजनीतिक विरासत सौंपने की आई तो बड़े बेटे फारूक को जिम्मेदारी दी।जर्नलिस्ट अश्विनी भटनागर की किताब 'फारूक ऑफ कश्मीर' के मुताबिक, फारूक अब्दुल्ला 1965 में जयपुर के एमएसएस मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस करने के बाद वे लंदन चले गए। वहां उन्होंने ब्रिटिश महिला (अब मौली अब्दुल्ला) से शादी कर ली और उनको ब्रिटिश नागरिकता भी मिल गई। साल 1975 में फारूक कश्मीर लौट आए। 1980 के चुनाव में शेख अब्दुल्ला ने बेटे फारूक को श्रीनगर से चुनावी मैदान में उतारा। फारूक चुनाव जीत गए। इसके एक साल बाद शेख ने पार्टी की कमान फारूक को सौंप दी। इससे पहले शेख अब्दुल्ला ने पार्टी नेताओं संग बैठक की, ताकि फारूक की ताजपोशी को यादगार बनाया जा सके। रैली निकाली गई। शेख ने एक होटल की बालकनी से फूल बरसाकर स्वागत किया। फिर मंच से फारूक को पार्टी का अध्यक्ष बनाने का एलान किया। इस दौरान फारूक की शर्ट पर नेशनल कॉन्फ्रेंस का बैज भी लगाया।उमर के पिता और फूफा के बीच हुई थी सियासी जंग: शेख अब्दुल्ला का सितंबर 1982 में निधन हो गया। इसके कुछ दिन बाद ही पार्टी और राज्य की सत्ता को लेकर फारूक अब्दुल्ला और बहनोई के बीच संघर्ष शुरू हो गया था। बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह ने फारूक की सरकार बर्खास्त करवा दिया था और कांग्रेस व अन्य पार्टियों के समर्थन से खुद सीएम बन गए थे। उस समय राज्य के राज्यपाल जगमोहन मल्होत्रा ने अपनी किताब 'माई फ्रोजन टर्बुलेंस' में इस किस्से का उल्लेख किया है।
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