प्रकृति के साथ भाई बहन का अनोखा प्यार का नाम से जुड़ा है यह पर्व
अशोक झा
उत्तर बंगाल में आदिवासी संस्कृति के इस महत्वपूर्ण प्राकृतिक पर्व को हर साल भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है। करमा पूजा का विशेष महत्व भाई-बहन के रिश्ते में प्यार और स्नेह को बढ़ाने में है। इस दिन पूजा-अर्चना करके लोग अपने पारिवारिक संबंधों को मजबूत बनाने की कोशिश करते हैं। इस साल 14 सितंबर 2024 यानी आज करमा पूजा का पर्व मनाया जा रहा है।करमा और धरमा इस त्योहार के मुख्य देवता होते हैं, जिनके प्रति श्रद्धा और आस्था प्रकट की जाती है।आदिवासी संस्कृति का प्राकृतिक पर्व है करमा: करमा को उत्तर बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक पर्व माना जाता है, जिसे आदिवासी और सदान मिल-जुलकर सदियों से मनाते आ रहे हैं। यह पर्व सदाचार, परंपरा और सामाजिक एकता का प्रतीक है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन बहनें अपने भाइयों की दीर्घायु और मंगलमय भविष्य की कामना करती हैं। इस दिन आदिवासी समुदाय के लोग ढोल और मांदर के थाप पर झूमते गाते हैं, जो आदिवासी संस्कृति का प्रतीक है. इसके साथ ही पूजा करके आदिवासी अच्छे फसल की कामना करते हैं और बहनें अपने भाइयों की सलामती के लिए प्रार्थना करती हैं।करमा पर्व में कैसे होती है पूजा?: करमा पर्व के दिन पूजा शुरु करने से पहले आंगने के बीच में करम वृक्ष की शाखा लगाई जाती है. इस दिन करम वृक्ष के डाल को एक बार में कुल्हाड़ी से काटा जाता है, इस दौरान इस बात का ख्याल रखा जाता है कि डाली जमीन पर न गिरे. जंगल से करम शाखा को लाकर घर के आंगन के बीचों-बीच लगाया जाता है. कर्मा वृक्ष रोपित होने के बाद घर-परिवार के सभी लोग पूजा में शामिल होते हैं. प्रकृति को आराध्य देव मानकर उनकी पूजा की जाती है. प्रसाद में चना, उड़द, जौ, गेहूं, मकई, ज्वार, कोदो का अंकुर और गुड़ चढ़ाया जाता है. पूजन के दौरान करमा और धरमा की कहानी सुनी जाती है। करमा पर्व का महत्व: करमा पर्व के दिन बहनें व्रत रखती हैं और इस दिन नाखून कटवाकर स्नानादि से निवृत्त होकर वो अपने पैरों में आलता लगाती हैं. इसके साथ ही रंग-बिरंगे नए वस्त्र पहनकर साज-श्रृंगार करती हैं और आभूषण पहनती हैं. जावा डाली को भी कच्चे धागे में गूंथे फूलों की माला से सजाया जाता है।इस दिन महिलाएं पूजा स्थल पर करमैती करम के पत्ते पर खीरा रखकर पांच बार काजल और सिंदूर का टीका लगाती हैं, फिर उस पर उरवा चावलों का चूर्ण डालकर खीरे को गोल-गोल टुकड़ों में काटकर करम वृक्ष की शाखा में जगह-जगह पिरोया जाता है. खीरा पुत्र का प्रतीक माना जाता है, इसलिए खीरे को करम देव को समर्पित कर महिलाएं स्वस्थ पुत्र की कामना करती हैं।भाद्र मास के एकादशी को मनाये जाने वाला करम परब एक वर्षाकालीन पर्व है। वर्षा ऋतु के तीन मुख्य पर्व हैं- मनसा, करम और जितिया। करम को अंग्रेज़ी भाषा के प्रभाव से लोग करमा कहते हैं, जबकि इसका असल नाम करम है।धान रोपनी का काम पूरा होने के बाद कृषक वर्ग इत्मीनान हो जाते हैं।नाचने-गाने को तैयार रहते हैं. इसी बीच प्रकृतिपरक पूजा करम आ जाता है. इस पर्व का मुख्य ध्येय है- प्रकृति की सुरक्षा। जब प्रकृति सुरक्षित रहेगी तो हम संरक्षित रहेंगे. करम राजा का पूजन करने के बाद सभी करमति बहनें करम की डाली को पकड़कर भेंट लगती हैं. मन-ही-मन करम देवता से मन्नतें मांगती है।उन्हें सुयोग्य वर मिले, अच्छा घर परिवार मिले. ससुराल में किसी प्रकार का कष्ट न हो आदि. भेंट लगने की रीति जैसे ही पूरी होती है। करम पर्व पूरी तरह- ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ की भावना से ओतप्रोत:
तब पाहन बाबा या पंडित जी पूछते हैं- बताओ ? (डारइ धइर धइर का पाला?) अर्थात करम डाली को पड़कर-पकड़कर क्या पायीं? सभी करमति बहने एक स्वर में कहती हैं- "आपन करम भाइयेक धरम!" पाहन दूसरी बार पूछते हैं और क्या पाया ? तब उत्तर देती हैं- "एकटा बेटा आर एकटा बेटी" अर्थात एक बेटा और एक बेटी . फिर तीसरी बार पूछते हैं और क्या पाया? वे सभी एक स्वर में कहती हैं- "गांव ग्रामेक सउब बेसे बेस रहुक." अर्थात गांव में खुशहाली रहे. जबकि अपने मन की बात को गुप्त ही रखती हैं. यदि इस बातचीत के मूल में जाकर देखें तो पता चलेगा कि करम पर्व पूरी तरह- ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ की भावना से ओतप्रोत है। कुंवारी कन्या करती है करम उपवास: करम उपवास मुख्य रूप से कुंवारी कन्या करती हैं. लेकिन विवाह बाद भी करती हैं, उस स्थिति में जिनके ससुराल वाले करम गाड़ते हैं. ऐसी स्थिति विवाहिता नारी भी करम उपवास रखती हैं. मान्यता है कि करम पूजा आरंभ करने के बाद सम संख्या में नहीं छोड़ सकते हैं. इसके लिए विषम संख्या का होना जरूरी है. जैसे तीन डाला, पांच डाल, सात डाल आदि। करम पर्व में बालू उठाने का रिवाज: करम पर्व में बाली(बालू) उठाने का रिवाज है. ये भी तीन, पांच, सात या फिर नौ दिन का उठाया जाता। बाली उठाकर जिसमें रखा जाता है. उसे जावा कहते हैं. उस जावा के अंदर सघन रूप से धान,चना,कुरथी और बटुरे के बीज डाले जाते है। नदी या सतिया से बालू उठाकर सभी करमति बहनें नहा धोकर घर आती हैं. घर आकर आंकरी थापती हैं. आंकरी थापना अर्थात बीजों को अंकुरित होने के लिए दिया जाता है. साथ में खीरा रखती हैं. उसमें एक बेटा खीरा,एक आंकरी ओगरा(पहरेदार)और तीसरा आढ़ाई कामर(उपवास तोड़ती हैं उस समय खाने के लिए). कुल मिलाकर तीन खीरे होते हैं. इसके अतिरिक्त प्रसाद के लिए अलग से खीरे रखे जाते हैं।
करम पूजन के बाद बहन सहोदर भाई को बांधती है धागा
बहनें करम पूजन करने के बाद सबसे पहले अपने सहोदर भाई को धागा बांधती हैं. दूर के भाई-बहन को भी बांधती हैं। यह बंधन भाई-बहन के बीच आपसी स्नेह और शुचिता को सिद्ध करता है. बहन भाई के हाथ में इसलिए धागा बांधती हैं कि उनके भाई का हाथ बहन के ससुराल जाने के बाद माता-पिता की सेवा में कोई कमी न करे. दूसरा, बहन पर कोई विपत्ति आये तो बहन की सुरक्षा के लिए भाई का हाथ हमेशा आगे रहे. ये सारी पवित्र भावनाओं के साथ बहनें करम पूजन के बाद भाई के हाथ में धागा बांधती हैं. हमारे देहातों में रक्षा बंधन से अधिक महत्व करम पूजा के धागा बंधन को दिया जाता है. जबकि दोनों में भाई-बहन के आपसी प्रेम को ही दर्शाता है।।भाई करता है करम डाली काटने का काम: करम पूजा के दिन करम के वृक्ष से डाली काटकर डाइर (डाली) लाया जाता है. डाली काटने का काम भाई करता है. डाली को करमति बहनें बाज-बाजना के साथ नाचते गाते हुए घर को लाती हैं. उसके बाद आंगन में गाड़ा किया जाता है. तत्पश्चात करम का पूजन किया जाता है. पूजन का काम पाहन,पंडित और नाई ठाकुर मिलकर सम्पन्न कराते हैं. पूजन के बाद रात भर नाच-डेग किया जाता है. आजकल तो अधिकांश जगहों पर डीजे बजाया जाता और नृत्य करते हैं. जबकि पहले पारंपरिक तौर पर ढोल-नगाड़े के साथ संवादात्मक गीत गाकर उत्सव मनाया जाता था. करम पर्व को झारखंड के आदिवासी और मूलवासी सभी बड़े ही धूम-धाम के साथ मनाते हैं. करम विसर्जन के बाद हमारे पांच-परगना क्षेत्र में डारी गाड़ने की प्रथा है. डारी गाड़ने का काम पुरुष वर्ग का होता है. डारी गाड़ने के पीछे का तर्क है कि साल बर में कम-से-कम एक बार अपना खेत-बाड़ी को देख लें कहीं कोई दूसरा आदमी जमीन पर दखल तो नहीं कर रहा है।करम पूजा के बाद सुनायी जाती है कथा: डारी(डाली) भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है, जैसे किसी खेत में धान की रोपनी बात में हुई है और उस खेत पर बोंखी(रोग) लग गया है तो उस खेत पर मकई या बेलवा की डाली गाड़ा जाता है. जिससे धान की बीमारी ठीक हो जाए. करम पूजा के बाद करमा और धरमा की कथा सुनायी जाती है. उस कथा में बताया जाता है कि करम राजा दोनों भाई से रूठ गये थे,जिसके कारण उन दोनों भाई का हर कर्म का विपरीत परिणाम होता था. जैसे वे लोग धान को भीगने के लिए देते तो उसी रात अंकुरित हो जाता था. इस प्रकार कई तरह की घटनाएं उनके साथ घटती हैं. तब वे दोनों भाई करमा और धरमा बूढ़े-बुजुर्ग से संपर्क करते हैं. तब उन्हें पता चलता है कि करम राजा बाम(रूठ)हो गये हैं. इसके बाद वे दोनों भाई भादर भास के एकादशी तिथि को करम पूजा किये तब जाकर सबकुछ सामान्य हो गया. इस कथा के मूल में भाव यह है कि व्यक्ति केवल कर्म करता रहे और धर्म ना करे तो संतुलन नहीं बैठता है।
करम पूजा पेड़-पौधों को भावनात्मक रूप से जोड़ने का देता है संदेश: अर्थात कर्म और धर्म को साथ लेकर चलने से जीवन सफल होता है. करम पूजा व्यक्ति को पेड़-पौधों व वृक्षों से भावनात्मक रूप जोड़ने का संदेश देता है. वहीं धान, चना, कुरथी आदि बीजों को जावा में अंकुरित करना अर्थात सृष्टि के नियम को गतिशील बनाये रखने की लिए संतति को जन्म देने का द्योतक भी है. ईश्वरीय सृष्टि में प्राणतत्व देने की शक्ति केवल नारी और प्रकृति को प्राप्त है. नारी और प्रकृति को यदि हम सुरक्षित रख सकेंगे तभी हमारा करम पूजा की सार्थकता है अन्यथा सिर्फ परंपरा का निर्वाह मात्र है. जोहार करम राजा!
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