- द्रौपदी उनके लिए नारी स्वतंत्रता की प्रतीक थी, जिसकी रक्षा की लेकिन आज क्या?
- नारी के अपमान पर चुपचाप बैठे पितामह उतने ही दोषी हैं जितना अपमान करने वाले
समाज का हर वर्ग श्री कृष्ण के जन्म के उत्सव में डूबा हुआ है। लेकिन क्या यह उत्सव ही श्री कृष्ण को समझने की कोशिश का एक मात्र मार्ग और लक्ष्य है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि दुनिया में श्री कृष्ण की भक्ति के साथ उनकी वाणी भगवद् गीता की महिमा भी बढ़ती जा रही है।यह सुखद है लेकिन इस अत्याधुनिक दौर की दुनिया में क्या श्री कृष्ण के मार्ग का अनुसरण हो पा रहा है। आज के संदर्भ में श्री कृष्ण का मार्ग सबसे ज्यादा अनुकरणीय है। श्रीकृष्ण का आदर्श जीवन हर युग मे प्रासंगिक तथा प्रेरणादायी है। प्राणी उनके द्वारा बताए गए मार्ग का अनुकरण कर महान बन सकता है। वर्तमान पीढ़ी को चाहिए कि वह भौतिकता की चमक-दमक में अपने पौराणिक इतिहास को विस्मृत न होने दे। समाज में पाखंड बढ़ता जा रहा है। नारी स्वतंत्रता कहीं ज्यादा खतरे में है।दुनिया में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं और शांति के नाम पर भेदभाव हो रहा है। पर्यावरण खतरे में है और तंत्र-मंत्र जादू-टोना करने वाले फल फूल रहे हैं। भगवान श्री कृष्ण का स्मरण होते ही पहले ब्रज याद आता है और फिर महाभारत काल। ब्रज की भूमि में वह प्रेम के पुजारी हैं। वह उस ब्रज रज में लौटते हैं जहां आज भी बार-बार यह विश्वास होता है यहीं तो हैं श्री कृष्ण। ऐेसी-ऐसी लीलाएं जिस पर संत और दुनिया भर से आने वाले भक्त न्यौछावर हैं। ऐसी दीवानगी कि रसखान ब्रज के ही हो गए। लेकिन ज्यों ही श्री कृष्ण ब्रज छोड़कर बाहर जाते हैं वह योगेश्वर श्री कृष्ण हो जाते हैं। वह अपने सखा अर्जुन को बीच कुरुक्षेत्र में उपदेश देते हैं और कहते हैं - हे अर्जुन ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूं क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुकरण करते हैं। श्री कृष्ण का स्मरण होते ही पहले ब्रज याद आता है और फिर महाभारत काल भी। वास्तव में ऐसे अलौकिक और अद्वितीय चरित्र दुनिया में कम ही देखने को मिलते हैं जैसा भगवान श्री कृष्ण का है। वह बाल गोपाल है। उनके नाम संकीर्तन पर नृत्य करते हैं झूमते हैं। रसखान भी उन पर न्यौछावर हो जाना चाहते हैं और सूरदास भी। उनका पूरा जीवन चरित्र रूढिय़ों को तोड़ता है।अंधविश्वासों को खत्म करता है। पाखंड को धिक्कारता है। पूरे ब्रजवासी जब इंद्र की पूजा की तैयारी में व्यस्त थे तब श्री कृष्ण ने उनसे कहा कि किसकी पूजा कर रहे हो। इंद्र देवता हैं इसलिए क्या उनकी पूजा उचित है। हम सब प्रकृति की पूजा क्यों नहीं करते। हम गाय की पूजा क्यों नहीं करते जो जीवन दायिनी है और उन्होंने इंद्र की जगह गिरीराज जी का पूजन कराया। इंद्र के स्थान पर गाय की पूजा हुई। विडंबना तो देखिए महाभारत टालने के प्रयास में श्री कृष्ण शांति दूत बनकर के धृतराष्ट्र के दरबार में चले जाते हैं और यह प्रस्ताव देते हैं कि शांति के लिए पांडव सिर्फ 5 गांव लेकर मान जाएंगे। क्या शांति का इससे बड़ा प्रस्ताव कभी दुनिया में देखा गया है। शायद नहीं लेकिन जब शांति की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं और कौरव और पांडवों की सेनाएं कुरुक्षेत्र में आमने-सामने खड़ी हो जाती हैं तब अर्जुन को मोह पैदा होता है। अपने परिवार के प्रति मोह के कारण ही वह शांति की बात करने लगते हैं लेकिन श्री कृष्ण इस प्रस्ताव को नहीं मानते और अर्जुन के शांति प्रस्ताव को कायरता बताते हैं। श्री कृष्ण के व्यक्तित्व की यही विराटता है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार ही निर्णय करते हैं। वह शांति के पुजारी हैं लेकिन जो लोग शांति के मार्ग में बाधक हैं उनको दंड भी दिलाना वह जानते हैं। श्री कृष्ण नारी स्वतंत्रता के सबसे बड़े पैरोकार हैं। द्रौपदी उनके लिए नारी स्वतंत्रता की प्रतीक है जिसका भरी सभा में चीर हरण कर अपमान करने की कोशिश की गई। भीष्म पितामह उनके प्रिय हैं लेकिन जब रणभूमि में पितामह को सामने देख पितामह पर तीर चलाने में अर्जुन के हाथ कांपते हैं तो श्री कृष्ण उन्हें याद दिला देते हैं जब द्रौपदी का भरी सभा में अपमान हो रहा था तब पितामह शांत बैठे थे। चुपचाप बैठे थे। नारी के अपमान पर चुपचाप बैठे पितामह उतने ही दोषी हैं जितना अपमान करने वाले। सुभद्रा का विवाह जबरन दुर्योधन से कराया जा रहा था लेकिन सुभद्रा की इच्छा जानकर श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वह सुभद्रा को ले जाएं। श्री कृष्ण के इस निर्णय पर तमाम सवाल उठते हैं लेकिन श्री कृष्ण का एक जवाब था कि नारी की इच्छा के बिना परिवार उसका किसी से भी विवाह नहीं करा सकता। श्री कृष्ण का पूरा जीवन चुनौतियों और संघर्षों से भरा है। यह इसलिए क्योंकि वह पूरे समाज को यह सीख देना चाहते थे कि चुनौतियां कितनी ही बड़ी क्यों न हो शांत बैठने वाले कायर होते हैं। गुजरात में समुद्र तट पर पहुंचकर द्वारिका नगरी बसाते हैं लेकिन द्वारिका में चैन से बैठ भी पाते कि महाभारत के युद्ध की आहट आने लगती है। वह शांति दूत बन हस्तिनापुर जाते हैं। हरसंभव प्रयास करते हैं कि महाभारत को रोका जाए लेकिन जब नहीं रुकता और वह अर्जुन के सारथी बनते हैं। महाभारत युद्ध समाप्त होता है और लौटकर द्वारिका में कुछ दिन भी चैन से नहीं बैठ पाते कि उनके परिवार में ही कलह शुरू हो जाती है। श्री कृष्ण एक दिन भी चैन से नहीं बैठे। वह सतत संघर्ष करते रहे, समाज को नई राह दिखाते रहे। वह सबसे बड़े उपदेशक हैं उस सत्य की राह के जिससे लोग भटक गए हैं। ऋचा या मंत्र बनता है। वह इतिहास में हस्तक्षेप नहीं करता। वह इतिहास को सौन्दर्य देता है। इतिहास और सुंदरता में प्रत्यक्ष सम्बंध नहीं होते। सुंदरता की अनुभूति का स्रोत भावशक्ति है। इतिहास का स्रोत भूत-सत्य है। श्रीकृष्ण इतिहास के महानायक हैं। उन्हें भारत की भावशक्ति मिली। वे गीत बने। काव्य बने। उनका चलना-फिरना भी गीत नृत्य हो गया। उनके कारण यमुना प्यार की नदी हो गई। उनकी बांसुरी के सुर, राग, लय ने इतिहास को मनोरम बनाया। उनका शिशुकाल भी गीत भजन और स्मरणीय काव्य बना। मथुरा-वृन्दावन भारतीय भूगोल का भाग है। श्रीकृष्ण के जीवन की ऐतिहासिक घटनाओं के भी साक्ष्य हैं लेकिन इससे भी ज्यादा वे भारतीय भावशक्ति के 'मिथक' हैं। इतिहास लौकिक होता है। लोकभाव की शक्ति अपने प्रिय को लोक के परे भी देखती है। जैसे प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं पड़ती, वैसे ही प्रेमपूर्ण चित्त को प्रमाण बेकार लगते हैं। हम इतिहास की पोथी पढ़कर राधाकृष्ण का प्रेमतत्व नहीं जान सकते। प्रेममय चित्त बड़ी सरलता से लौकिक को अलौकिक बनाते हैं। वे इस जीवन के बाद भी प्रेमी बने रहने का संकल्प लिया करते हैं। प्रेम और इतिहास में कोई दुश्मनी नहीं। प्रेम गीतों में भी इतिहास हो सकता है और इतिहास में भी प्रेम के कथानक। प्रेमी आकाश में उड़ते, तमाम जन्मों में मिलते बिछुड़ते गाए जाते हैं। वे स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा पर होते हैं। ऐसे प्रेमी इतिहास के चरित्र भी हो सकते हैं लेकिन इतिहास उन्हें आकाशचारी नहीं दर्ज करता। श्रीकृष्ण इतिहास में हैं। भाव में हैं। प्रेम में है। वे प्रेम रस का परम चरम है। तैत्तिरीय उपनिषद् के ऋषि ने संपूर्णता या ब्रह्म को 'रस-रसो वै सः' गाया है। वैसे ही रस या महारस हैं श्रीकृष्ण। वे स्वयं महारस भी हैं और उस रस का आनंद लेने वाले रसिक बिहारी भी हैं। वे ज्ञाता हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञान भी हैं। प्रकृति सृजन का चरम परम है लेकिन जिस प्रकृति ने उन्हें रचा है, वह प्रकृति भी उन्हीं के मार्गदर्शन में चलती है। राधाकृष्ण का प्रेम लौकिक है। अध्यात्म भी है। यहां दो हैं राधा और कृष्ण। राधा होना चाहती है कृष्ण। बिना कृष्ण हुए राधा का प्यार आधा है। इस प्यार को पकने पकाने के लिए श्रीकृष्ण की आंच और ऊष्मा चाहिए। श्रीकृष्ण की प्रीति ऊष्मा भी सहज नहीं। राधा यह बात जानती ही रही होगी कि वे मिलें हमसे और मैं राधा न रहूं। श्रीकृष्ण से मिलूं और श्रीकृष्ण ही हो जाऊं। श्रीकृष्ण तो सबकुछ जानते ही थे। राधा सामान्य नायिका नहीं है। वे धारा के विपरीत हैं। धारा शब्द को उलटने से ही शब्द राधा बनता है। राधा का संस्पर्श भी श्रीकृष्ण को श्रीकृष्ण नहीं रहने देगा। अग्नि आंच दोतरफा है। दोनों की आंच के कारण दोनो का अलग अस्तित्व बचना मुश्किल। लेकिन राधा तैयार है। उन्हें निजी अस्तित्व की चिंता नहीं। राधा मिली श्रीकृष्ण से और श्रीकृष्ण मिले राधा से। वे दो थे। एक हो गए। फिर एक भी नहीं बचा। अद्वैत घटित हो गया। पुराणकार लिख सकते थे कि तब देवताओं ने इस महामिलन पर आकाश से फूल बरसाए। लेकिन राधा माधव की प्रीति के लिए देवों की पुष्पवर्षा की जरूरत हीं नहीं थी। इस प्रीति को देखकर मथुरा-वृंदावन और बरसाना के फूल स्वयं ही लहके। उनकी सुगंध आज भी अनुभव की जा सकती है।
सोचता हूं कि तब आकाश में बिना बादल ही 'घनश्याम' आ गए होंगे। ऋत सत्य ने गति दी होगी। राधाकृष्ण प्यार की ऊष्मा के जलकण आकाश पहुंचे होंगे। इस महाप्रीति से पर्जन्य ने कृति आकार लिया होगा। ये पर्जन्य और कोई नहीं हम सबके प्रिय घनश्याम ही हैं। गीता में उन्होंने स्वयं को 12 मासों के चक्र में अगहन-मार्गशीर्ष बताया है। उसके अपने कारण हैं। उनका जन्म कड़कते बादलों के समय हुआ। उस मुहूर्त में सब तरफ पर्जन्य घनश्याम थे। धरती तक उतर आए थे वे। यमुना भावविह्वल होकर उमड़ पड़ीं थी तब। इतिहासकार की सीमा है। पर्जन्य इतिहास का उपकरण नहीं हैं। बांके बिहारी की छवि मस्तिष्क की समृद्धि नहीं है। मोर मुकुट का प्राकृतिक सौन्दर्य इतिहास की विषय वस्तु नहीं है। माखन चोरी की प्रथम सूचना रिपोर्ट किसी थाने का अभिलेख नहीं है। गोपियों के बीच नृत्य और रास का वीडियो वायरल नहीं हुआ। प्रेम उल्लास नापने का कोई यंत्र न उस समय था और न ही अब तक बन पाया है। भाव जगत् निस्संदेह इसी प्रत्यक्ष जगत् का हिस्सा है लेकिन यह जगत प्रत्यक्ष है। सो इस भूत की स्मृति है। स्मृति का इतिहास है। भावजगत् का इतिहास लिखें तो कैसे लिखें?भारत का मन श्रीकृष्ण में आनंदरस पाता है। आनंदरस की प्यास कभी तृप्त नहीं होती। जितना पीते हैं, उतना ही यह प्यास और ज्यादा बढ़ती है। प्रेम तृत्प नहीं होता। न मिलने से और न ही दूर रहने में। जो तृप्ति दे वह प्रेम नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण प्रेम अवतार है। उनके भजन, कीर्तन, लीला और नाटक हम सबकी तृप्ति और बढ़ाते हैं। अनंत अनंत होता है। तृप्ति का अंत नहीं होता। श्रीकृष्ण अनंत हैं। उनकी कथा अनंत है। हरि अनंत हरि कथा अनंता। थोड़ा इतिहास की शरण लें। तब बौद्ध पंथ भारत को आच्छादित कर रहा था। संभवतः दो क्षेत्रों में इसका प्रभाव नहीं पड़ा। पहला क्षेत्र वृंदावन था और दूसरा काशी। बुद्ध के अनुसार यह संसार दुखमय लेकिन वृंदावन में यह संसार नृत्यपूर्ण था। नृत्य में दुख की जगह कहां होती है? रास अपने आपमें आनंद है। उन्हें कैवल्य की जरूरत ही नहीं। उद्धव को गोपियों ने यही उत्तर दिया था। हमारा सब कुछ श्याम के संग और रंग में है। हम निर्गुण अद्वैत का क्या करें? अद्वैत में वे भी थीं पर इस अद्वैत में इन्द्रधनुष था। श्रीकृघ्ण की प्रीति के रंगों में रचा बसा था यह अद्वैत। वामपंथी मित्र कहते हैं कि श्रीकृष्ण काव्य कल्पना हैं। इतिहास के पात्र नहीं। हम कहते हैं कि मथुरा इतिहास है, यमुना इतिहास है। गोवर्द्धन इतिहास है। नन्दगांव इतिहास है। कुरु क्षेत्र इतिहास है। युद्ध इतिहास है। हस्तिनापुर अभी भी है। यह भौगोलिक क्षेत्र है। सो है। इसलिए इतिहास है। श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष नहीं हैं, क्योंकि वे इतिहास हैं। वे हमारी नस-नस में हैं। हमारे अन्तःकरण में उनकी बांसुरी बजती है। यह हमारा अंतःकरण है। डाॅ. लोहिया ने इसी अंतः क्षेत्र की बात की थी कि श्रीकृष्ण को इतिहास के पर्दे पर उतारने की कोशिश न करना। हम सादर जोड़ते हैं कि इतिहास का पर्दा छोटा है। प्रेमगली संकरी है। इससे होकर प्रेम ही गुजर सकता है। दो नहीं निकल सकते। इतिहास के पास श्रीकृष्ण को समेटकर रखने की जगह नहीं। श्रीकृष्ण प्रेम हैं। महाप्रेम के इस महानायक को इतिहास के साथ अपने हृदय में भी खोजना चाहिए। साधारण मुद्रा में नहीं, नाचते हुए। श्रीकृष्ण सतत् नाचते हुए पूर्वज हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर बधाई। ( अशोक झा की कलम से)
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