अजय यानि अजय उपाध्याय
वह फरवरी, 2000 की दोपहर थी।
मैं आगरा में ‘आज’ अखबार के अपने कार्यालय में बैठा था। अचानक फोन घनघनाया। मेरी सीधी फोन लाइन पर स्व. सत्यप्रकाश ‘असीम’ थे। वे उन दिनों ‘आज’ के नई दिल्ली में राजनीतिक संपादक थे। उन्होंने भोजपुरी में कहा- ‘जानत हुआ, अबहिन ऐसन खबर देब कि भक्क से जल उठबा।’
उनका अगला वाक्य था- ‘अजयवा ‘हिन्दुस्तान’ ज्वाइन करै जात हॅ।’ मैंने पूछा क्या ‘ब्यूरोचीफ’? असीम का जवाब था- नहीं, बतौर संपादक। एक सेकंड को मुझे भी झटका लगा। अजयवा यानी अजय उपाध्याय उस समय तक दैनिक जागरण के ब्यूरोचीफ था। छलांग ऊँची थी लेकिन अगले क्षण खयाल आया, उसने मेहनत की है। पत्रकारिता का ककहरा उसने भी भैया से सीखा है। दुरूह संघर्ष के बाद वह यहां पहुंचा है। उसे शुभकामनाएं देनी चाहिए।
वैसे भी मैं कभी किसी की उन्नति से कभी नहीं जलता।इतनी बड़ी दुनिया में हरेक की उन्नति और प्रगति के लिए पर्याप्त जगह है।
बाद में मैं अजय से मिलने गया। उसके निजी सचिव ने कहा. कि बैठ जाइए। मैं थोड़ा अचंभित हुआ। अजय पुराना यार था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में घर आ जाता था। अच्छा पीने और खाने का शौकीन था। देर तक साथ बैठता और वहीं सो जाता। बाद में आगरा और इलाहाबाद में कई बार मेरे घर पर रुका। आप ‘इंतजाम’ करें तो अजय यानी अजय उपाध्याय बेहतरीन अतिथि साबित होता था। अपनत्व से भरा, गुनगुना, शिष्ट, मिलनसार, मृदुभाषी और आपकी चाहत की बातें करता हुआ। वह समझदार था, ज्ञानी भी।
उससे मेरी पहली मुलाकात 1983 में हुई थी। भोपाल से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर वह बनारस लौट आया था और भैया के बच्चों को किसी माध्यम से ट्यूशन पढ़ाने लगा था। वहीं कभी-कभी भैया से भी मुलाकात हो जाती और वह उनके दिल के करीब आ गया था। मैंने उसका लिखा तो ज्यादा नहीं पढ़ा पर बोलने में उसका जवाब नहीं था। भैया ने उसे अखबार के प्रबंधन में लगा दिया था। जो नहीं जानते, उन्हें पुन: बता दूं, भैया यानी शार्दूल विक्रम गुप्त ,‘आज’ के संचालक।
उन दिनों मैं इलाहाबाद ब्यूरो का प्रमुख हुआ करता था और जब बनारस जाता, तो उससे मुलाकात होती। एक दिन उसका फोन आया कि अब मैं संपादकीय पेज देखा करूंगा। मुझे थोड़ा अचंभा हुआ क्योंकि उसने तबतक सक्रिय पत्रकारिता नहीं की थी। उसी दौरान मेरा कॉलम शुरू हुआ था और हम सप्ताह में एक-दो बार फोन पर बतियाने लगे थे। धीमे-धीमे दोस्ती हो चली थी और हम विविध विषयों पर घंटों चर्चा करते थे।
उस अजय के दफ्तर में मैं बाहर बैठा दिया गया था।
अगले डेढ़ या दो घंटे मैं उसके सचिव के सामने बैठा रहा। सचिव महोदय बीड़ी फूंकते रहे, उनसे मिलने लोग आते रहे और हरियाणवीं स्टाइल में मां-बहन की गालियां देते रहे। उसी दौरान मैंने पूछा कि अंदर कौन साहब हैं? उसने जो नाम बताया, वह भी चौंका गया था। अजय के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दिनों के दोस्त बैठे थे। वे उस समय तक सांसद हो गए थे। उनके लिए मुझे इतना लम्बा इंतजार कराया जा रहा है !
मैंने फिर सिर झटका पता नहीं क्या परिस्थिति होगी कि वह मुझे यहां बैठाए हुए है? वह छल-छद्म समझता था पर कभी ख़ुद उसमें नहीं फँसता था।
खैर, मुलाकात हुई। वह गहरी आत्मीयता से मिला अच्छी बातें हुईं और मैं बिना मलाल के रुखसत हुआ। उसी के बाद मैं भी दिल्ली आ गया। कभी-कभी हम मिलते, तो पुरानापन सजीव हो उठता। ‘हिन्दुस्तान’ में उसकी पारी लम्बी नहीं चली और मैं भी ‘अमर उजाला’ चला गया। इस बार उसकी रोजमर्रा के काम से गैर हाजिरी लम्बी खिंची। मैंने उसे बतौर सलाहकार ‘अमर उजाला’ में लिया। स्व. अतुल माहेश्वरी की कृपा थी कि वे मान गए थे। बाद में ‘हिन्दुस्तान’ में ज्वाइन करने से पहले उसके घर जाकर उसे सब कुछ बता भी दिया। ‘अमर उजाला’ में मेरे स्थान पर उसे रखना का प्रस्ताव मैंने किया था।उसकी पारी कुछ महीने चली। इससे पूर्व ‘आजतक’ में प्रभु चावला से मैंने अपने स्थान पर उसकी सिफ़ारिश की थी। वह पारी भी मुख़्तसर थी।
इधर कुछ वर्षों से हम नहीं मिले थे पर हम दोस्त थे। कल अचानक उसके जाने की खबर मिली। मुझे उसकी बीमारियों का पता था पर अपने मित्र के परलोक गमन की कल्पना भी किसी अनिष्ट-सी भारी लगती है।
अजय, तुम चले गए पर एक चीज है जो कभी मिटती नहीं और वह है अतीत। मेरे अतीत का एक मुकम्मल हिस्सा तुम्हारे नाम है। तुम याद रहोगे!
—— (हिंदुस्तान के समूह सम्पादक शशिशेखर की कलम से#बिना उनकी अनुमति से फेसबुक से साभार)
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