रांची: जब आरएसएस की शुरुआत हुई, तो कई स्वयंसेवक चाहते थे कि संस्थापक डॉ. हेडगेवार को 'गुरु' के रूप में नामित किया जाए, लेकिन डॉ. हेडगेवार ने फैसला किया कि भगवा ध्वज ही 'गुरु' होना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक किसी व्यक्ति या ग्रंथ की जगह भगवा ध्वज को अपना मार्गदर्शक और गुरु मानते हैं। हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष व्यास पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) के दिन संघ-स्थान पर एकत्र होकर सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज का विधिवत पूजन करते हैं।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर साल जिन छह उत्सवों का आयोजन करता है, उनमें गुरु पूजा कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस साल यह उत्सव 21 जुलाई को मनाया जा रहा है। जब डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रवर्तन किया, तब अनेक स्वयंसेवक चाहते थे कि संस्थापक के नाते वे ही इस संगठन के गुरु बनें, क्योंकि उन सबके लिए डॉ. हेडगेवार का व्यक्तित्व अत्यंत आदरणीय और प्रेरणादायी था। इस आग्रहपूर्ण दबाव के बावजूद डॉ. हेडगेवार ने हिंदू संस्कृति, ज्ञान, त्याग और संन्यास के प्रतीक भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय किया। गुरु से दीक्षा, निर्देश पाने और पाठ पढ़ने का अपना ही रस और आकर्षण होता है। गुरु की झिड़की, डांट, प्यार और दुलार सभी आशीर्वाद होता है क्योंकि उसमें शिष्य के लिए कल्याण का भाव छिपा रहता है । प्राचीन काल से ही लोक में यह प्रसिद्धि व्याप्त है कि गुरु की महिमा अपरिमित है और इसलिए अवर्णनीय है। उसका विस्तार इतना है कि उसे समेटना और व्यक्त करना किसी सामान्य आदमी के बस की बात नहीं । उपनिषदों में बड़ी सारी कथाएं गुरुओं को लेकर हैं। भारतीय समाज में गुरु एक अकेला व्यक्ति न रह कर एक संस्था का रूप ले चुका है और गुरु - शिष्य की महान जोड़ियों की अनेक प्रचलित कथाएं विश्वविश्रुत हैं। श्रीकृष्ण के गुरु सांदीपनि हैं तो श्रीराम के विश्वामित्र । देवताओं के गुरु वृहस्पति तो राक्षसों के शुक्राचार्य। कौरवों और पांडवों दोनों के गुरु द्रोणाचार्य थे। चंद्रगुप्त के गुरु चाणक्य थे तो शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास थे। गुरु स्वतंत्रचेता और स्वाधीन होता है। इस तरह की परम्परा आगे भी चलती रही । समाज, संस्कृति और राजनीति हर क्षेत्र में गुरु की भूमिका क्रांतिकारी रही है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला सबका पूज्य गुरु महनीय होता है। अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया, चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः यानि गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आंखें खोलकर मुझे घोर अज्ञान से बाहर निकाला. उस गुरु को प्रणाम है। ऊपर दिए गए श्लोक से साफ है कि गुरु जो ज्ञान देकर अज्ञान से बाहर निकाले। यह काम तो देहधारी गुरु ही कर सकता है। इसलिए आरएसएस का गुरु जो देहधारी नहीं है, क्या गुरु की इस कसौटी पर खऱा उतरता है? जवाब में विश्व हिंदू परिषद के प्रवक्ता सुशील रामपुरिया कहते हैं कि आखिर सगुण ब्रह्म के साथ ही निर्गुण ब्रह्म की साधना का भी विधान है। ओम् ईश्वरीय शक्ति है, पर अपौरुषेय य़ानी बिना देह के है। अब सवाल उठता है की जरूर आरएसएस के स्वयंसेवक अपने गुरु की पूजा कर रहे होंगे। भगवा ध्वज को ही संघ ने अपनी व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान क्यों दिया? यह प्रश्न बहुतों के लिए पहेली बना हुआ है. भारत और कई दूसरे देशों में ऐसे अनेक धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन हैं, जिनके संस्थापकों को गुरु मानकर उनका पूजन करने की परंपरा है. भक्ति आंदोलन की समृद्ध परंपरा के दौरान और आज भी किसी व्यक्ति को गुरु मानने में कोई कठिनाई नहीं थी. इस प्रचलित परिपाटी से हटकर संघ में डॉ. हेडगेवार की जगह भगवा ध्वज को गुरु मानने का विचार विश्व के समकालीन इतिहास की अनूठी पहल है। जो संगठन दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है, उसका सर्वोच्च पद अगर एक ध्वज को प्राप्त है तो निश्चय ही यह गंभीरता से अन्वेषण करने का विषय है। सामान्य बुद्धि में तो विश्वगुरु भारत को ही कहा जाता है। आरएसएस भी भारत को विश्वगुरु कहता है। पर विश्वगुरु भारत से अलग भी आरएसएस का एक गुरु है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि खुद को राष्ट्रवादी और भारत भक्त कहने वाला संगठन विश्वगुरु भारत के अलावा और किस गुरु की पूजा करता है? आरएसएस के स्वयंसेवक गोलवलकर को भी गुरु जी कहते हैं
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नजदीक से नहीं जानने वालों की धारणा है कि गुरु गोलवलकर को ही आरएसएस के स्वयंसेवक गुरु मानते हैं। पर सच्चाई अलग है। दरअसल राजनीतिक और बौद्धिक हलके में आरएसएस के विचारों को गुरु गोलवलकर के नाम से कोट करने और स्वयंसेवकों के बीच गोलवलकर को गुरु जी कहे जाने के कारण यह धारणा बनी है। गोलवलकर दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक(चीफ) थे। उनका पूरा नाम माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक ढांचे के विकास में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई थी। उन्हें संघ के सिद्धांतकार के तौर पर भी जाना जाता है। मनुष्य में बुराई हो सकती है, हमेशा गुरु सा आदर्श नहीं हो सकता। आरएसएस के प्रचार साहित्य के अवलोकन से पता चलता है कि मनुष्य बुराइयों का शिकार हो सकता है।ऐसी स्थिति में वह हर समय प्रेरणा का स्रोत नहीं हो सकता। इसलिए मनुष्य को संघ के स्वयंसेवकों के लिए गुरु बनाना खतरे से खाली नहीं है। इस कारण संघ की स्थापना के शुरुआती दिनों में ही व्यक्ति की जगह किसी महान प्रतीक को गुरु के रूप में पूजने पर सहमति बनी। काफी विचार मंथन के बाद खास आकृति वाले भगवा(केसरिया) ध्वज को गुरु के रूप में अपना लिया गया। गुरु को भी समाज में अब पहले जैसा आदर नहीं मिलता। इस दुरवस्था के कई कारण हैं। सरकार द्वारा बढ़ती उपेक्षा के कारण भारतीय शिक्षक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है और शिक्षा की गुणवत्ता घट रही है । निजीकरण और वैश्विक प्रवृत्तियों के असर में समान कार्य के लिए शिक्षकों को वेतन और अन्य सुविधाएं भी एक सी नहीं रह सकी हैं। इन सबके चलते शिक्षा कामचलाऊ और निष्प्राण होती जा रही है। गुरु की प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना से ही सार्थक शिक्षा आयोजित हो सकेगी और विकसित भारत के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकेंगे। (रिपोर्ट अशोक झा)
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