मौत की आजतक नहीं हो पाई जॉच, आंदोलन के नेताओ का दुखद अंत
सिलीगुड़ी: एक दौर था कि पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में करीब करीब हर दीवार एक नारा लिखा होता था। 'बोनदुकर नोल-ए, खोमोतर उत्सा' जिसका मतलब है सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। उनका जन्म: सन 1918; मृत्यु: 28 जुलाई 1972 में हुआ। चारू मजूमदार पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे और उन्होंने 1967 में सत्ता के विरुद्ध एक नक्सलवादी आन्दोलन की शुरुआत की थी। चाइनीज लीडर माओत्से तुंग ने 1920 में यह नारा दिया था लेकिन इसे बंगाल में मशहूर किया था चारू मजूमदार ने। चारू मजूमदार को भारत में माओवाद का जनका माना जाता है और आज 28 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि है।अबसे 52 साल पहले यानी 1972 में चारू पुलिस हिरासत चारू मजूमदार की मौत हो गई थी। इस मौत के 52 साल बाद भी उनकी विरासत विवादित है। क्योंकि वह विरासत खून से सनी हुई है। उस दौर की यादें आज भी उन पीढ़ियों को भयभीत करत देती हैं। जिन्होंने मजूमदार के नक्सलियों का तांडव देखा था।
रईस परिवार में हुआ जन्म: चारु मजूमदार का जन्म बंगाल के एक धनी परिवार में हुआ था। उन्होंने आरामदायक जीवन छोड़कर कठिन क्रांतिकारी जीवन चुना। कहा जाता है कि वे देश में नक्सलवाद आंदोलन के असली जनक थे। आज भी नक्सली उनसे प्रेरणा लेते हैं। चारु की मौत आज ही के दिन 52 साल पहले जेल में हुई थी। चारु का घर पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में था। सिलीगुड़ी में हर कोई उनके घर का पता जानता है।चारू के घर में बनता था प्लान: दरअसल, यह घर वहां एक आइकॉनिक बन गया है। इसके बारे में कई कहानियां बताई जाती हैं। कहा जाता है कि चारु मजूमदार सिलीगुड़ी के महानंदा रोड के मकान नंबर 25 में रहा करते थे। यहीं पर वे साथी दोस्तों के साथ बैठकर नक्सलबाड़ी गांव को जमींदारों के चंगुल से मुक्त कराने की बातें करते थे, योजनाएं बनाते थे।यहीं रखी नक्सल आंदोलन की नींव: इसी घर में चारु मजूमदार और कानू सान्याल ने ‘ऐतिहासिक 8 दस्तावेज’ तैयार किए थे, जिसने भारत में नक्सलवादी आंदोलन की नींव रखी। चारु मजूमदार का जन्म 1918 में एक जमींदार परिवार में हुआ था। बचपन से ही उन्हें जमींदार शब्द से चिढ़ थी। वे इस शब्द को बर्बरता का प्रतीक मानते थे। वे बंगाल के लगभग सभी महान विद्वानों, लेखकों और सामाजिक नेताओं को नकारते थे और उन्हें कुलीन व्यवस्था का हिस्सा कहते थे।मौत या हत्या आज भी विवाद: चारू मजूमदार को 16 जुलाई को गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद 28 जुलाई को पुलिस हिरासत में उनकी हार्ट अटैक से मौत हो गई थी। चारू के बेटे अभिजीत मजूमदार और कई अन्य का मानना है कि चारू मजूमदार को हृदय की बीमारी से संबंधित दवाएं और ऑक्सीजन नहीं देकर पुलिस ने उनकी 'हत्या' की है।
कुछ इस तरह हुआ था नक्सलबाड़ी आंदोलन : 24 मई 1967 के दिन नक्सली आंदोलन का खूनी संघर्ष शुरू हुआ था। यह स्थान कहीं और नहीं बल्कि सिलीगुड़ी से 25 किलोमीटर दूर नक्सलबाड़ी है। यहां पुलिस के साथ संघर्ष के दूसरे दिन यानि 25 मई 1967 जहां पुलिस की गोली से धनेश्वरी देवी, सीमाश्वरी मल्लिक, नयनश्वरी मल्लिक, मुरुबाला बर्मन, सोनामति सिंह, फूलमती देवी, सामसरि सैरानी, गाउद्राउ सैरानी, खरसिंह मल्लिक, साथ में दो बच्चे भी मारे गए थे। उस समय गांव में कोई पुरुष नहीं मौजूद था। सभा कर रही निहत्थी महिलाओं को 24 मई की घटना के बारे में पता तक नहीं था। पुलिस ने सभी मृतकों के शवों को अपने कब्जे में ले लिया और उन्हें परिजनों तक को नहीं सौंपा। इस बर्बर हत्याकांड से नक्सलबाड़ी को नहीं रोका जा सका, बल्कि इसके खिलाफ जो तूफान उठा। वह नक्सलबाड़ी का झंझावात बनकर समूचे देश में फैल गया। यहां यहां शहीद स्तम्भ के पास माओ त्सेतुंग, चारु मजुमदार, सरोज दत्त की मूर्तियां भी लगी हैं। यहां प्रतिवर्ष नक्सली संगठन नक्सालबाडी दिवस मनाते हैं। और आज के नक्सलवाड़ी में काफी फर्क दिखाई देता है। नक्सलवाद मार्क्सवाद के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से भी प्रभावित:नक्सलवाद मार्क्सवाद के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से भी प्रभावित हैं। इसके तहत शोषित, उपेक्षित व दलित वर्ग अपने संघर्ष शक्ति से पूंजीपतियों, साहूकारों, जमीदारों एवं शासक वर्ग को अपना शिकार बनाते है।अब तो न मजूमदार हैं, न कानू सान्याल हैं न जंगल संथाल हैं। लेकिन हालिया आंकड़ों के मुताबिक देश के 11 राज्य नक्सल से प्रभावित हैं। कुल 90 जिलों में नक्सल हिंसा देखने को मिलती है। सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्य हैं- छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और ओडिशा। छत्तीसगढ़ में लगातार हो रही घटनाएं इसकी तस्दीक करती हैं। जहां नक्सली हर साल कई बार सुरक्षाबलों को निशाना बनाते हैं। हजारों जानें ऐसे हमलों में जा चुकी हैं और साल दर साल जा रही हैं। ये नक्सलवादी दावा करते हैं कि वो आदिवासियों, छोटों किसानों और गरीबों की लड़ाई लड़ रहे हैं और जानकार मानते हैं कि स्थानीय लोगों के समर्थन के कारण ही इन्हें कामयाबी भी मिलती है। दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी का छोटा सा गांव झडूजोत और बेंगाई जोत। यहां 24 और 25 मई 1967 में व्यवस्था के खिलाफ अधिकारों की जंग में हिंसा का रास्ता चुना जिसका नाम दिया गया 'नक्सलबाड़ी आंदोलन'। जो आज पूरे देश में 'नक्सल आंदोलन' के रुप में जाना जाता है। नक्सल आंदोलन की जन्मस्थली नक्सलबाड़ी आज शांति के मार्ग पर अग्रसर है। ठीक इसके विपरीत इन 57 वर्षो में देश में नक्सली आंदोलन अभी भी सबसे खतरनाक बना हुआ है।
क्यों शुरू हुआ पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच संघर्ष।
पुलिस आंदोलनकारियों के बीच के संघर्ष जानने के लिए एक माह पहले अप्रैल 1967 को जानना जरूरी है। नक्सलबाड़ी क्षेत्र में बुद्धिमान तिर्की और ईश्वर तिर्की जो पिता पुत्र थे बड़े जमींदार माने जाते थे। भिगुल किसान के पास जमीन नहीं थी। वो ईश्वर तिर्की की जमीन जोतता था वह भी बहुत ही कम फायदे में। एक दिन उसने अपने फायदा बढ़ाने की बात की। ईश्वर ने उसको जमीन से बेदखल कर दिया। भिगुल ने ‘कृषक सभा’ में शिकायत की। कानू सान्याल इस संगठन के नेता थे। उन्होंने तिर्की को किसानों के साथ घेरा। तिर्की जो एयरफोर्स में इंजिनियर रह चुका था वहां से बच निकला। अब बंगाल कांग्रेस का सदस्य था। बाद में वो कांग्रेस की सरकार में बंगाल में मंत्री भी बना।उसने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया। दिल्ली से सीआरपीएफ की बटालियन भेजी गई। तिर्की तो बच गया लेकिन जमींदार नगेन रॉय चौधरी बदकिस्मत निकले। उनके लिए पुलिस नहीं आ पाई।कानू सान्याल के आर्डर पर नगेन का सर कलम कर दिया गया। सर कलम करनेवाले कोई और नहीं बल्कि 6 फीट 5 इंच का नक्सली नेता जंगल संथाल था। जंगल संथाल नेपाल में राजशाही शिक्षा मंत्री के खिलाफ भी आंदोलन में हिस्सा ले चुके थे। जंगल संथाल नक्सलवादियों के ‘सिर कलम’ स्पेशलिस्ट बने। जो अभी जो आज नक्सलियों के लिए इस प्रकार किस काम के लिए आदर्श माने जाते हैं। घटना के बाद तत्कालीन गृह मंत्री ज्योति बसु किसानों को टेररिस्ट का टैग देते हुए पुलिस को आवश्यक कार्रवाई का निर्देश दिया और उसके बाद ही पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच संघर्ष छिड़ गया। नक्सलबाड़ी आंदोलन के पहले बंदूक के बल पर ही सत्ता हासिल की जा सकती है।माओ की इस प्रेरणा से प्रभावित हुए कानू ने खोखन मजूमदार, खुदन मलिक और नक्सल विचारक चारु मजूमदार के करीबी दीपक विश्वास के साथ चीन की यात्रा चोरी छुपे गैर कानूनी ढंग से चीन पहुंचे थे। माओ से ही प्रभावित होकर चारु और कानू ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी 1969 में बनाई थी, जो भारत में कम्युनिस्ट विचार की तीसरी पार्टी थी। इस बात की पुष्टि नक्सल आंदोलन के जनक चारू मजूमदार के पुत्र अभिजीत मजूमदार भी करते हैं। उन्होंने कहा कि यह पार्टी का पहला डेलिगेशन था जो चीन गया था।कानू सन्यास अपने कामरेड साथियों के साथ पहले पानीटंकी होते हुए काठमांडू पहुंचे थे। वहां उन्होंने चीनी दूतावास से संपर्क किया । दूतावास ने इन लोगों के मकसद को समझने के बाद चीनी भाषा बोल पाने वाले एक दुभाषिये गाइड का इंतज़ाम करवाया था। नेपाल से पहले इन्हें तिब्बत ले जाया गया।पहाड़ी रास्तों को पैदल पार करते हुए चीनी सीमा में कानू सन्यास और टीम ने प्रवेश किया था, जहां से उन्हें चीनी सेना की वैनों के माध्यम से सेना के कैंपों तक ले जाया गया।यहां पहुंचने के बाद कानू सन्यास और उनके साथियों को मशीनगन, राइफल, ग्रेनेड, माइन्स बिछाने और विस्फोटक बनाने आदि की ट्रेनिंग दी गई। उसके बाद वे तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाइ आर्मी कमांडर इन चीफ से भी मिलवाया था।
आंदोलन के जनक नेताओं का हुआ दु:खद अंत
नक्सल आंदोलन के जन्मदाता माने जाने वाले चारू मजूमदार की मौत 28 जुलाई 1972 को पुलिस हिरासत में हो गई। करण का अब तक कोई पता नहीं चल पाया है। उसी प्रकार 1988 में ज्यादा शराब पीने के कारण जंगल संथाल की मौत हो गई। नक्सलवादी आंदोलन के कारण वे जेल से 1979 में जेल से रिहा हुए थे। सबसे मजबूत नेता कानू सान्याल हाथीघिसा के घर में 23 मार्च 2010 को फंदे पर लटककर अपनी जान दे दी। ( अशोक झा की कलम से )
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