आज हुल दिवस के मौके पर उत्तर बंगाल के आदिवासी क्षेत्र में सिदो-कान्हू की वीरता को याद किया जा रहा है। हर वर्ष 30 जून को इस आंदोलन की याद ताजा की जाती और याद किया जाता है। किस प्रकार आदिवासियों ने अपनी जल-जंगल और जमीन की रक्षा के लिए अंग्रेजों की बंदूक और गोली के सामने अपने तीर-धनुष लेकर खड़े हो गए थे और उन्हें शिकस्त भी दी थी। हूल का परिणाम यह हुआ था कि संताल परगना क्षेत्र में एसपीटी एक्ट लागू हुआ और आदिवासियों को लाभ यह मिला कि उनकी जमीन बिकने से बच गई। इस एक्ट के प्रभाव से आदिवासियों की जमीन बेची नहीं जा सकती है।
अंग्रेजों ने हूल के नायक भाइयों सिदो-कान्हू को फांसी की सजा दी थी, जबकि चांद-भैरव के बारे में कहा जाता है कि उन्हें काला-पानी की सजा दी गई. इनकी दो बहन फूलो-झानो ने हूल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अंग्रेजों से युद्ध किया. फूलो-झानो के बारे में यह कहा जाता है कि लड़ाई में ये भी शहीद हुईं, लेकिन इससे पहले उन्होंने 21 अंग्रेजों को भी मारा.
हूल आंदोलन के नायक सिदो-कान्हू
आदिवासियों के इस आंदोलन को इतिहास में उस तरह का स्थान नहीं मिला, जैसा कि मिलना चाहिए था. भारत के इतिहास में 1857 के विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन माना जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि हूल इससे पहले हुआ था और इसे ही पहला स्वतंत्रता आंदोलन माना जाना चाहिए. रांची के गोस्सनर काॅलेज की प्रोफेसर ईवा मार्ग्रेट हांसदा ने बताया कि आदिवासी स्थानीय महाजनों और जमींदारों की टैक्स वसूली से परेशान थे, जो एक तरह से अंग्रेजों के ही नुमाइंदे थे, आदिवासी इस बात की शिकायत करने कोलकाता के लाट साहब के पास जाना चाहते थे, जब उन्हें रोका गया तो अंग्रेजों का गुस्सा फूटा और आंदोलन हिंसक हो गया. सरकारी संपत्तियों का नुकसान भी इस आंदोलन में हुआ। अंग्रेजों ने लागू किया था मार्शल लाॅ: अंग्रेजों ने इस युद्ध में मार्शल लाॅ लागू किया और आदिवासियों का एक तरह से नरसंहार हुआ। इस आंदोलन में 60 हजार से अधिक आदिवासी और स्थानीय कामगार भी शामिल हुए थे, जो आदिवासी नहीं थे. हूल में हजारों महिला और बच्चे भी शामिल हुए थे और यह अपने तरह का पहला जनाक्रोश था, जिससे अंग्रेजी शासत बौखला गए थे और इस बात का जिक्र उनके दस्तावेजों में होता है।
इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत: सोशल एक्टिविस्ट वंदना टेटे का कहना है कि हूल को लेकर वर्तमान समाज में भ्रम की स्थिति बनी हुई है। इसलिए जरूरी है कि इतिहास का पुनर्लेखन किया जाए और सही तरीके से बताया जाए कि उस वक्त हुआ क्या था। हूल के केंद्र भोगनाडीह में आदिवासियों का जो महाजुटान हुआ और उन्होंने जिस तरह आक्रोश दिखाया उसका जिक्र इतिहास में सही तरीके से नहीं किया गया। आज जरूरत इस बात की है कि इतिहास का पुनर्लेखन हो।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का पहला विद्रोह हूल: आदिवासी समाज के संताल हूल को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का पहला विद्रोह माना जाता है, लेकिन आज भी इस आंदोलन के बारे में लोगों की जानकारी झारखंड से बाहर बहुत कम ही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आजादी के 75 साल पूरे पर आदिवासियों के आंदोलनों को पहचान दिलाने के लिए 15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। साथ ही उन्होंने हूल दिवस के मौके पर संताल के वीरों को श्रद्धांजलि दी, जिसकी वजह से हूल दिवस को झारखंड के बाहर भी पहचान मिली। पर्यटन को बढ़ावा देकर भी संभव है नायकों का सम्मान आदिवासी समाज के प्रबुद्ध लोग इतिहास के पुनर्लेखन की बात करते हैं, साथ ही यह जरूरी भी है कि अपने इस आंदोलन की जानकारी देने के लिए उन इलाकों में पर्यटन को बढ़ावा दिया जाए ताकि जब पर्यटक उन ऐतिहासिक जगहों पर जाएं तो उन्हें हूल की सही जानकारी और इस लड़ाई के नायक-नायिकाओं के बारे में जानकारी मिले।अंग्रेजों के अत्याचार और उसके खिलाफ आक्रोश की जानकारी मिले, जिसका अभी सख्त अभाव दिखता है। भोगनाडीह साहिबगंज जिले में पड़ता है. यहां की प्राकृतिक सुंदरता और ऐतिहासिक स्मारकों और स्थानों को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने की काफी संभावना है। लेकिन प्रयास उस तरह से नहीं हुए हैं, जिस तरह से होने चाहिए थे. अगर यह संभव हुआ तो झारखंड को राजस्व का भी लाभ मिलेगा और नायकों को सम्मान भी मिलेगा. हूल के लिए जिस स्थान पर सभा हुई, जहां से सिदो-कान्हू को पकड़ा गया, जहां फांसी हुई ये सभी स्थल ऐतिहासिक महत्व के हैं और लोगों को आकर्षित भी करेंगे. जिस मार्ग से कोलकाता के लिए कूच हुआ, जहां नरसंहार हुआ सबकुछ. मार्टिलो टावर जिसके जिसके जरिए आदिवासियों का नरसंहार हुआ और जिसे अंग्रेजों ने एक रात में तैयार किया था। रिपोर्ट अशोक झा
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