-दरोगा की मौत के बाद 25 मई को लिया था उग्ररूप
-पुलिस की गोली से आठ महिलाएं, एक किशोर दो नवजात कि हुई थी मौत
-52 दिनों तक चलता रहा था खूनी संघर्ष
-आंदोलन के पीछे चीन की थी अहम भूमिका
-सशस्त्र आंदोलन के पहले कानू सान्याल अपने साथियों समेत चीन में ली थी ट्रेनिंग
-आंदोलन के जनक नेताओं का हुआ दु:खद मौत
नक्सलबाड़ी से अशोक झा: आजकल नक्सली संगठनों के साथ सुरक्षा बलों का मुठभेड़ और आत्मसमर्पण मीडिया में सुर्खियों में है। आज ही छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में 30 नक्सलियों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। इनमें से 9 नक्सलियों के ऊपर 39 लाख रुपये का इनाम भी है। वहीं दो नक्सलियों मुन्ना हेमला उर्फ चंदरू के ऊपर 18 और मुन्ना पोटाम के ऊपर 6 स्थाई वारंट लंबित हैं। पुलिस के अनुसार नक्सलियों की खोखली विचारधारा, भेदभाव पूर्ण व्यवहार, उपेक्षा और प्रताड़ना से तंग 30 नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ शासन के पुनर्वास एवं आत्मसमर्पण नीति से प्रभावित होकर आत्मसमर्पण किया है। लेकिन नक्सली आंदोलन कहे या हिंसा की शुरुआत कहां से हुई आपको पता है। आइए आपको इसके जन्मस्थली नक्सलबाड़ी से पूरी कहानी बताते है। आमरबाड़ी, तोमारबाड़ी, नक्सलबाड़ी-नक्सलबाड़ी। यही गूंजते स्लोगन के साथ 57 साल पहले 24 मई 1967। भारत, नेपाल , बिहार बांग्लादेश सीमांत नक्सलबाड़ी प्रसादूजोत बंगाईजोत। व्यवस्था के खिलाफ अधिकारों की जंग में हिंसा का रास्ता चुना जिसका नाम दिया गया 'नक्सलबाड़ी आंदोलन'। जो आज पूरे देश में 'नक्सल आंदोलन' के रुप में जाना जाता है। स्लोगन का अर्थ था हमारा घर तुम्हारा घर नक्सलबाड़ी,नक्सलबाड़ी। ‘सत्ता बंदूक से निकलती है‘ के सिद्धांत पर यकीन करने वाले नक्सलवाद के जन्मदाता थे नक्सली नेता कानू सान्याल, चारू मजुमदार, जंगल संथाल, सोरेन बोस, खोखन मजुमदार, केशव सरकार और शांति मुंडा।
भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत वर्ष 1967 में सिलीगुड़ी से मात्र 25 किलोमीटर उत्तर बंगाल के दार्जिलिंग जि़ले के नक्सलबाड़ी नामक गाँव से हुई और इसीलिये इस उग्रपंथी आंदोलन को 'नक्सलवाद' के नाम से जाना जाता है। 25 मई को यह आंदोलन उग्र रूप ले लिया जब आंदोलनकारियों के साथ हुए संघर्ष में तीर से घायल सोनम वांगदी ने दम तोड़ दिया। 25 को वहां भारी संख्या में पुलिस पहुँची, फिर टकराव शुरू हो गया।इस बार पुलिस की गोली से 11 लोग मारे गए। 15 साल का एक किशोर, 8 महिलाएं और महिलाओं के पीठ पर बंधे दो नवजात शामिल थे। फिर क्या था पूरे क्षेत्र में यह आंदोलन लगातार 52 दिनों तक विद्रोह के रूप में दिन प्रतिदिन हिंसक होता रहा। 13 जुलाई को वाम मोर्चा सरकार के आदेश पर केंद्रीय सुरक्षा बल की मदद से पुलिस किसानों की घेराबंदी तोड़ कर भीतर घुस गई। एक बूढ़े किसान को संगीन घोंप कर मार डाला गया और ढाई सौ आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया। इस आंदोलन के नेता चारू मजूमदार और जंगल संथाल भी थे।आंदोलन के दूसरे नेता कानू सान्याल पुलिस के हाथ नहीं चढ़े और भूमिगत हो गए। 28 जुलाई 1967 को पेइचिंग रेडियो ने नक्सलबाड़ी के विद्रोह को 'वसंत का वज्रनाद' की संज्ञा दी थी। तब से इसी आंदोलन को नक्सलबाड़ी आंदोलन के रूप में प्रतिवर्ष नक्सली नक्सलबाड़ी दिवस के रूप में मनाते हैं। नक्सलबाड़ी सशस्त्र आंदोलन की चिंगारी भले ही नक्सलबाडी और उसके आसपास पूरी तरह शांत हो गया हो लेकिन यह आज आज ज्वाला बनकर देश की सरकार और प्रशासन को चुनौती दे रहा है। नक्सलबाड़ी से उठी चिंगारी देखते ही देखते बारूद की तरह भारत के कई हिस्सों में फैलती गई। ये चिंगारी अब आग बन चुकी थी। कम्युनिस्टों ने लोगों जुटाना शुरू कर दिया था. इनका टारगेट वो लोग होते थे जो गरीबों और किसानों को प्रताड़ित करते थे। इनमें उनके सबसे बड़े दुश्मन जमींदार होते थे। पश्चिम बंगाल के अलावा देश के अन्य राज्यों में इस आंदोलन का असर देखने को मिला और हथियार उठाए लोग सरकार के सामने खुलकर बगावत करने लगे। सरकार के समानांतर इनकी अपनी सरकार चलने लगी।क्यों शुरू हुई पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच संघर्ष: पुलिस आंदोलनकारियों के बीच के संघर्ष जानने के लिए एक माह पहले अप्रैल 1967 को जानना जरूरी है। नक्सलबाड़ी
क्षेत्र में बुद्धिमान तिर्की और ईश्वर तिर्की जो पिता पुत्र थे बड़े जमींदार माने जाते थे। भिगुल किसान के पास जमीन नहीं थी। वो ईश्वर तिर्की की जमीन जोतता था।बहुत ही कम फायदे में। एक दिन उसने अपने फायदा बढ़ाने की बात की। ईश्वर ने उसको जमीन से बेदखल कर दिया। भिगुल ने ‘कृषक सभा’ में शिकायत की। कानू सान्याल इस संगठन के नेता थे। उन्होंने तिर्की को किसानों के साथ घेरा। तिर्की जो एयरफोर्स में इंजिनियर रह चुका था। वहां से बच निकला। अब बंगाल कांग्रेस का सदस्य था। बाद में वो कांग्रेस की सरकार में बंगाल में मंत्री भी बना।उसने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया। दिल्ली से सीआरपीएफ की बटालियन भेजी गई। तिर्की तो बच गया लेकिन जमींदार नगेन रॉय चौधरी बदकिस्मत निकले।उनके लिए पुलिस नहीं आ पाई।कानू सान्याल के आर्डर पर नगेन का सर कलम कर दिया गया। सर कलम करनेवाले कोई और नहीं बल्कि 6 फीट 5 इंच का नक्सली नेता जंगल संथाल था। जंगल संथाल नेपाल में राजशाही शिक्षा मंत्री के खिलाफ भी आंदोलन में हिस्सा ले चुके थे। जंगल संथाल नक्सलवादियों के ‘सिर कलम’ स्पेशलिस्ट बने। जो अभी जो आज नक्सलियों के लिए इस प्रकार किस काम के लिए आदर्श माने जाते हैं। घटना के बाद तत्कालीन गृह मंत्री ज्योति बसु किसानों को टेररिस्ट का टैग देते हुए पुलिस को आवश्यक कार्रवाई का निर्देश दिया और उसके बाद ही पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच संघर्ष छिड़ गया।
आंदोलन के पीछे चीन की थी अहम भूमिका:
नक्सलबाड़ी आंदोलन के पहले बंदूक के बल पर ही सत्ता हासिल की जा सकती है।माओ की इस प्रेरणा से प्रभावित हुए कानू ने खोखन मजूमदार, खुदन मलिक और नक्सल विचारक चारु मजूमदार के करीबी दीपक विश्वास के साथ चीन की यात्रा चोरी छुपे गैर कानूनी ढंग से चीन पहुंचे थे।माओ से ही प्रभावित होकर चारु और कानू ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी 1969 में बनाई थी, जो भारत में कम्युनिस्ट विचार की तीसरी पार्टी थी। इस बात की पुष्टि नक्सल आंदोलन के जनक चारू मजूमदार के पुत्र अभिजीत मजूमदार भी करते हैं। उन्होंने कहा कि यह पार्टी का पहला डेलिगेशन था जो चीन गया था। कानू सन्यास अपने कामरेड साथियों के साथ पहले पानीटंकी होते हुए काठमांडू पहुंचे थे। वहां उन्होंने चीनी दूतावास से संपर्क किया । दूतावास ने इन लोगों के मकसद को समझने के बाद चीनी भाषा बोल पाने वाले एक दुभाषिये गाइड का इंतज़ाम करवाया था। नेपाल से पहले इन्हें तिब्बत ले जाया गया।पहाड़ी रास्तों को पैदल पार करते हुए चीनी सीमा में कानू सन्यास और टीम ने प्रवेश किया था, जहां से उन्हें चीनी सेना की वैनों के माध्यम से सेना के कैंपों तक ले जाया गया।यहां पहुंचने के बाद कानू सन्यास और उनके साथियों को मशीनगन, राइफल, ग्रेनेड, माइन्स बिछाने और विस्फोटक बनाने आदि की ट्रेनिंग दी गई। उसके बाद वे तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाइ आर्मी कमांडर इन चीफ से भी मिलवाया था।
आंदोलन के जनक नेताओं का हुआ दु:खद अंत
नक्सल आंदोलन के जन्मदाता माने जाने वाले चारू मजूमदार की मौत 28 जुलाई 1972 को पुलिस हिरासत में हो गई। करण का अब तक कोई पता नहीं चल पाया है। उसी प्रकार 1988 में ज्यादा शराब पीने के कारण जंगल संथाल की मौत हो गई। नक्सलवादी आंदोलन के कारण वे जेल से 1979 में जेल से रिहा हुए थे। सबसे मजबूत नेता कानू सान्याल हाथीघिसा के घर में 23 मार्च 2010 को फंदे पर लटककर अपनी जान दे दी।
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