संजय तिवारी
शून्य से आकार पाने तक सृष्टि को प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यह प्रतीक्षा सृष्टि के होने से पूर्व से लेकर सृष्टि के विलय हो जाने के बाद भी निरंतर चलती रहती है। प्रतीक्षा अविरल है, अविराम है और काल से परे है। काल का चक्र जिस गति से चलता है प्रतीक्षा उससे अधिक तीव्रता से स्वयं उपस्थित रहती है। सृष्टि , व्यष्टि और समष्टि की प्रतीक्षा। निराकार को आकार पाने की प्रतीक्षा और साकार को निराकार हो जाने की। मिट्टी को शरीर बनने की और शरीर को मिट्टी बनने की आतुरता कहें कि प्रतीक्षा। यही प्रतीक्षा और प्रतीक्षित के बीच का प्रेम है और भक्ति या समर्पण भी।
वेदों ने जिसे ब्रह्म कहा है वह स्वयं प्रतीक्षा का एक स्वरूप है। ब्रह्म को सृष्टि के रचने, पालन करने और विलय करने के लिये भी अलग-अलग प्रारूप गढ़ने पड़ते हैं और चक्रानुसार सभी को सभी के लिये प्रतिपल निमिष भाव से प्रतीक्षा करनी पड़ती है। यह प्रतीक्षा वस्तुतः प्रेम और भक्ति का वह स्वरूप है जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र की परिभाषा गढ़ने में व्यक्त भी किया है और स्थापित भी। इस प्रतीक्षा को प्रत्यक्ष स्वरूप में मानसकार ने काग भूशुण्डि जी के माध्यम से व्यक्त करते हुए अनेक अवसरों पर प्रमाणित करने का भरपूर प्रयास किया है।
जागतिक प्रतीक्षा की उदाहरणस्वरूप एक शिखर बिन्दु को मानस में गोस्वामीजी ने काग भूशुण्डि जी के माध्यम से स्पष्ट भी किया है और संदेश भी दिया है। किसी एक जीव द्वारा अपनी भक्ति, प्रेम अथवा ईष्ट को उपलब्ध हो जाने तक कितनी लम्बी प्रतीक्षा करनी होती है और कैसे वह इस प्रतीक्षा को सहज रूप से कर पाता है यह स्वयं में वही सनातन संदेश है जिसे ब्रह्म को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में गोस्वामी जी कथाक्रम में प्रस्तुत कर रहे होते हैं। मानस की रामकथा स्वयं में इसी प्रतीक्षा की व्याख्या है। काल भूशुण्डि जी जब गरुण जी के भ्रम को सामने पाते हैं तो उन्हें वह अपनी उसी प्रतीक्षा को सुनाते हैं और गरुण का भ्रम अथवा कहें कि संशय समाप्त हो जाता है। पक्षीराज गरुण काग भूशुण्डि जी के सत्ताईस कल्पों की प्रतीक्षा के बाद की रामकथा बहुत विस्तार से सुनते हैं -
इहाँ बसत माहि सुनु खगईसा ।
बीते कलप सात अरु बीसा।।
यह एक बहुत मामूली उदाहरण है। प्रतीक्षा केवल काग भूशुण्डि की नहीं है। प्रतीक्षा तो स्वयं शिव भी कर रहे हैं और एक पत्नी के सती हो जाने के बाद सती के दूसरे जन्म में पार्वती बनकर पुनः शिव पत्नी के रूप में आने तक की शिव की प्रतीक्षा भी अपने आराध्य से अपनी भक्ति और प्रेम की ही प्रतीक्षा है इसीलिए पूरी रामकथा स्वयं के मानस में समेटे हुए वह उस घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब उनसे समग्र प्रेम, भक्ति और सर्मपण के साथ उन्हें कोई श्रोता मिले। एक पत्नी के सती हो जाने, हजारों वर्षों की तपस्या और कामदेव को भस्मिभूत करने के बाद अपनी नयी गृहस्थी शुरू होने पर भगवान शिव राम की कथा को तब मां पार्वती को सुनाते हैं जब उन्हें विश्वास हो जाता है कि श्रोता पूरे भाव के साथ यह सुनेगा। इसीलिए गोस्वामी जी बहुत स्पष्ट लिखते हैं -
रचि महेस निज मानस राखा,
पाई सुसमउ सिवा सन भाषा।
तात्पर्य यह कि यह प्रतीक्षा ही प्रेम और भक्ति का परम बिन्दु है। ब्रह्म से लेकर सृष्टि और समष्टि तक इसी प्रतीक्षा को अविरल गति से स्वयं पर घटने दे रहे हैं। सृष्टि का अस्तित्व में आना प्रतीक्षा का ही प्रतिफलन है। यद्यपि आदि शंकराचार्य का अद्वैत और आधुनिक क्वांटम फिजिक्स की तलाश भी इसी प्रतीक्षा को परिभाषित करते हैं। अयोध्या का उद्भव प्रतीक्षा का प्रतिफलन है। अयोध्या में भगवान मनु और शतरूपा जी की उपस्थिति प्रतीक्षा से है। विवस्वान से लेकर इक्ष्वाकु और दशरथ तथा राम तक सभी की उपस्थिति केवल प्रतीक्षा के कारण है। प्रतीक्षा स्वयं में रामकथा की आधार है। मनु और शतरूपा को दशरथ और कौशल्या बनने की प्रतीक्षा है। श्रीहरि को मनु और शतरूपा का दिये गये वचन को पूरा करने के लिए दशरथ के चक्रवर्ती बनने की प्रतीक्षा है। शक्ति को श्रीहरि से मिलने की प्रतीक्षा के लिए भगवान शिव के पिनाक के जनकपुर में टूटने की प्रतीक्षा है। विश्वमित्र के साथ राम और लक्ष्मण की जनकपुर की यात्रा में गौतम के आश्रम में प्रतीक्षारत अहिल्या को श्रीराम के चरणरज की प्रतीक्षा है। राजकुमार राम को मां कैकेयी को चक्रवर्ती महाराज दशरथ से पुराने दिये हुए वचनों के एवज में वनगमन की प्रतीक्षा है। कैकेयी को राम के निर्माण के लिये स्वयं के विधवा हो जाने की प्रतीक्षा है। उर्मिला को राम की सेवा के लिए अपने पति लक्ष्मण को वन भेजने की प्रतीक्षा है। राम को केवट से मिलने की प्रतीक्षा है। राम को अपनी वन यात्रा में महर्षि बाल्मिकि, शरभंग, अत्रि और मां अनुसूया, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य, जटायु, शबरी, नारद जैसे अनेक महान लोग प्रतीक्ष करते हुए ही तो मिलते हैं। यह अलग बात है कि यहां प्रतीक्षा दोनों कर रहे हैं। किष्किंधा में यदि हनुमान राम से मिलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो राम भी हनुमान और सुग्रीव से मिलने के लिए आतुर हैं।
यहां एक उदाहरण थोड़ा विस्तार से दे देना समीचीन होगा। यह है शरभंग की प्रतीक्षा। संयोग देखिए कि सरभंग जी को लेजाने के लिए स्वर्ग के दूत स्वयं उनके पास आ चुके हैं। वे महान तपस्वी शरभंग जी को बिलकुल ले ही जाने वाले हैं कि ठीक उसी समय सूचना मिलती है कि श्रीराम कुछ पल में ही शरभंग जी के आश्रम में आने वाले हैं। प्रतीक्षा यानी प्रेम यानी भक्ति का यह अद्भुत उदाहरण है जो राम के जीवन में घट रहा है। यहां यह समझना भी कठिन है कि इस घटना में कौन किसकी प्रतीक्षा में है। ब्रह्मस्वरूप श्रीराम अपने भक्त शरभंग की प्रतीक्षा में हैं या कि शरभंग जी अपने आराध्य की प्रतीक्षा में। जिन शरभंग जी का जीव शरीर का समय पहले ही पूरा हो गया था और केवल प्रस्थान बाकी रह गया था। स्वर्ग के पार्षद जिस सम्मान के साथ उन्हें लेने आए थे उनको शरभंग जी विदा कर देते हैं। कुछ क्षण बाद ही श्रीराम उनके आश्रम में आते हैं। भक्त और आराध्य कहें कि प्रतिक्ष्य और प्रतीक्षित। दोनो ही मिलते हैं। भगवान स्वयं अपने हाथों से शरभंग जी को वैकुंठ प्रस्थान करने की व्यव्स्था करते हैं। प्रतीक्षा दोनो ने की और पूरी भी हुई।
इसी प्रकार से माता शबरी की प्रतीक्षा भी तो है। गुरु मतंग जी के जाने के बाद कितनी लंबी प्रतीक्षा की है शबरी ने। लेकिन यह भी सोचिए कि क्या केवल शबरी ही प्रतीक्षारत थीं। राम भी तो थे।
गिद्धराज जटायु को पिता समान गति प्रदान करने के लिए साकार ब्रह्म स्वयं उपस्थित हो जाता है, कारण अथवा बहाना कुछ भी हो। रावण और कुंभकर्ण जैसे प्रतिनायकों का उद्धार आखिर प्रतीक्षा के कारण ही तो है।
प्रेम भक्ति और प्रतीक्षा का यह संगम राम के पूरे चरित्र में स्थान-स्थान पर स्थापित दिखता है। राम की राष्ट्रभक्ति भी इसी प्रतीक्षा का प्रतिफलन है क्योंकि लंका सहित अनेक राज्य जीतने के बाद भी राम ने जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी कहते हुए अयोध्या ही लौटते हैं। अयोध्या राम की जन्मभूमि अवश्य है लेकिन सृष्टि के आरंभ से भी वह भी तो स्वयं की गोदी में ब्रह्म को साकार स्वरूप में खेलते देखना चाहती है। इसी के लिये तो गोस्वामी जी ने लिखा है-
मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।
चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के आंगन में स्वयं के बाल रूप में खेलने की प्रतीक्षा तो स्वयं ब्रह्म ने भी बहुत समय तक किया है। यह प्रतीक्षा जितनी नायक की है उतनी ही प्रतिनायक की भी है। जय-विजय को श्राप मिलने के बाद अपने इन परिकरों को गति देने के लिए ब्रह्म को बार-बार प्रतीक्षारत अवतार लेकर पृथ्वी पर आना पड़ा है। इस भू देवी की प्रतीक्षा और भक्ति की कल्पना की जा सकती है कि इस प्रेम की तड़प में ब्रह्म को इनकी गोद में आना ही पड़ता है।
अयोध्या की प्रतीक्षा देखिए न। ब्रह्म जब ब्रह्मा जी को सृष्टि की रचना के लिए आदेशित करते हैं तो भगवान मनु और शतरूपा जी के लिए पृथ्वी पर अयोध्यापुरी का भी अवतरण करना पड़ता है। अयोध्या के साथ सरयू को भी आना पड़ता है और साथ में बार-बार, कई बार स्वयं ब्रह्म को भी आना ही पड़ता है। युगों से यह सब हो रहा है और आगे भी होना ही है। केवल अयोध्या के इतिहास को ही गंभीरता से देखें तो अपने उद्भव से लेकर अब तक इसने प्रतीक्षा ही तो की है। सृष्टि में सरयू के साथ अयोध्या का अवतरण सृजन की सामान्य घटना नहीं है। कल्पों की प्रतीक्षा के बाद श्रीहरि की यह कल्पना अट्ठाइसवीं बार साकार हुई है। यह अट्ठाइसवां कल्प है। इस कल्प में सतयुग, त्रेता, द्वापर बीत चुके। कलियुग का प्रथम चरण चल रहा है और अभी महज पांच हजार वर्ष ही बीते हैं। राम की आयोध्या राम के बाद के दूसरे युग में है। राम के अस्तित्वकाल से लेकर अबतक की आयोध्या का आधिकारिक इतिहास अस्तित्व में उपस्थित हजारों रामायण ग्रंथों में विद्यमान है। भगवान राम के समय के महर्षि बाल्मिकि द्वारा रचित रामायण, कम्ब रामायण और लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व रचे गये श्रीरामचरित मानस के राम की प्रतीक्षा, प्रेम और उनकी भक्ति की व्याख्या अब प्रामाणिक है।
सन् 1528 से अयोध्या लगभग पांच सदियों की प्रतीक्षा कर चुकी है। इन पांच सदियों का संघर्ष, बलिदान और अब सनातन अयोध्या का उद्धार विश्व देख रहा है। सनातन की प्रतीक्षा जैसी शक्ति ही है जिसने त्रेता में श्रीहरि के महाराज दशरथ के आंगन में खेलने वाले मंगल स्वरूप को देखा भी है, उससे प्रेम भी किया है और पूरे भक्तिभाव से उस आंगन को अब सजाने में भी लगी है। अयोध्या साक्षात प्रतीक्षा है। अयोध्या समग्र प्रेम है। अयोध्या भक्ति का वह भाव है जो प्रत्येक भारतीय के ह्रदय में मंदिर स्वरूप विराजमान है। अयोध्या के लिए प्रत्येक सनातन जीव हनुमान जैसा भक्त प्रतीत होता है। श्रीहरि त्रेता में राम स्वरूप की अपनी लीला समाप्त कर जाते समय अपने प्रिय पुत्रवत श्री हनुमान जी को इसीलिए शायद पृथ्वी पर इस मर्त्यलोक में चिरंजीव होने का वरदान दे गये ताकि किसी नये रूप में श्रीहरि के आने तक वह प्रतीक्षा करें। यह अद्भुत है कि नियंता ब्रह्म स्वयं को ही बार-बार पृथ्वी पर अलग- अलग रूपों में अपने लिये प्रतीक्षारत जीवों के लिये उतारता है। शिव को बार-बार किसी अन्य रूप में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मा जी को जन्म नहीं लेना है सिर्फ श्रीहरि के आदेशानुसार जगत का निर्माण करना है। यह भी अद्भुत है कि जब-जब जगत नियंता प्रतीक्षारत भू लोक पर अवतरित होते हैं तो उनके साथ उनकी महाशक्ति या मायाशक्ति स्वरूप माता को भी आना ही पड़ता है। श्रीरामचरितमानस में वनगमन के समय जब श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता के साथ महर्षि बाल्मिकि से मिलते हैं तो महर्षि स्वयं बताते हैं कि राम, मैं तुम्हें जानता हूं। राम बहुत सहज भाव से इस वाक्य को लेते हैं। राम को पता है कि ब्रह्मर्षि स्वयं ब्रह्मा जी के पुत्र प्रचेता के पुत्र हैं, त्रिकालदर्शी हैं। फिर भी राम अनभिज्ञ होकर बाल्मिकि से जब प्रश्न करते हैं तो महर्षि का उत्तर देखिये-
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की।।
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी।।
प्रतीक्षा के इसी पवित्र प्रेम स्वरूप को गोस्वामी जी ने भक्ति की गंगा बना दिया है। मानस वास्तव में वही गंगा है। भक्ति, प्रेम और प्रतीक्षा की इसी अविरल गंगा में सबकुछ समाहित है। इसीलिए इस प्रतीक्षा को मानसकार ने एक अर्धाली में समेत कर स्वयं को निश्चिंत बना लिया_
सीय राम मय सब जग जानी।
करऊं प्रणामजोरि जुग पानी।।
एक प्रतीक्षा पूर्ण होती है तो दूसरे की प्रतीक्षा आरंभ हो जाती है। यही क्रम है।इसी क्रम की परिणति प्रति निमिष हो रही है। जो अभी घट रहा हम उसके निहितार्थ नहीं जानते। अभी जो घटा उसका अतीत में कितने पीछे से अथवा भविष्य में कितने के बाद क्या संबंध है, कोई नहीं जनता। प्रतिनिमिष हर घट जाने के अपने अर्थ हैं और संबंध भी। अयोध्या का आज हमारे जीवन के इन पलों का सत्य है। वैसा ही जैसे श्रीराम का नाम । इस सत्य का साक्षात्कार हमारे जीवन की प्रतीक्षा का एक पड़ाव है।
जयसियाराम।।
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