देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी एक-एक कर अपने हर एजेंडे को पूरा करती जा रही है और उसकी विचारधारा का परचम लगातार बुलंद होता दिख रहा है। इसी कड़ी में नागरिकता संशोधन कानून भी लागू हो चुका है। नागरिकता देने वाला ये कानून विवादों में है, मुस्लिम समुदाय की नागरिकता नहीं छीनी जा रही, लेकिन असमंजस जैसा बना हुआ है, विश्वास की कमी साफ दिख रही है। अब ये विश्वास की कमी इसलिए है क्योंकि समय के साथ बीजेपी बदल गई है। मुस्लिमों की नजर बीजेपी कभी भी एक विकल्प के तौर पर नहीं देखी गई है। बीजेपी खुद ही बनी मुस्लिम विरोधी: एक आम धारणा बन चुकी है कि बीजेपी को हराने के लिए देश का मुसलमान किसी भी दूसरे दल या शख्स को वोट देने को तैयार रहेगा। लेकिन बीजेपी से उसकी उचित दूरी रहेगी। अब ऐसा नहीं है कि मुस्लिमों ने अपने मन से ही ऐसी धारणा बना ली हो, सच्चाई ये है कि पार्टी ने भी अपने कदमों से इस नेरेटिव को गढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन बीजेपी को लेकर अगर ये कहा जाए कि वो हमेशा से ही ऐसी थी, तो ये गलत होगा। जैसे हिंदुत्व पर बीजेपी की राजनीति समय के साथ बदली, उसी तरह मुस्लिम पॉलिटिक्स में भी बदलाव हुआ है। जनसंघ से लेकर बीजेपी बनने तक, अटल युग से लेकर मोदी युग तक, हर दौर में बीजेपी की मुस्लिम राजनीति अलग दिखी है। यहां कभी नजदीकियां बढ़ी हैं, कभी दूरियां आई हैं, कभी तकरार देखने को मिली है तो कभी बड़े बदलाव लाने की कवायद भी हुई है।जनसंघ का समय, ना हिंदू ना मुस्लिम: बीजेपी की मुस्लिम पॉलिटिक्स को चार हिस्सों में बांटकर देखा जा सकता है- जनसंघ के समय, अटल युग, अडवाणी युग और मोदी युग। 1951 में कांग्रेस की विचारधारा से लड़ने के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की थी। उस समय की जनसंघ कोई हार्ड हिंदुत्व वाली राजनीति नहीं करती थी, ये कहा जाए कि वो मुस्लिमों के खिलाफ थी, तो ऐसा भी नहीं दिखा। वो सिर्फ एक ऐसी पार्टी थी जो राष्ट्रवाद के रास्ते पर चलकर कांग्रेस की नीतियों की आलोचना करती थी। अटल युग और गांधीवादी सोच: पहले श्यामा प्रसाद मुखर्जी और फिर दीन दलाय उपाध्याय के दौर तक जनसंघ ऐसे ही चलती रही। उनके निधन के बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी को जनसंघ की जिम्मेदारी मिली, मुस्लिमों को लेकर पार्टी का रुख और ज्यादा नरम हो गया। ये बात हर कोई जानता है कि अटल बिहारी वाजपेयी गांधीवादी विचारधारा से ज्यादा प्रेरित थे, धर्म के नाम पर राजनीति करना उन्हें ज्यादा पसंद नहीं था। ये वो समय था जब जनसंघ के साथ आरिफ बेग जैसे सोशलिस्ट नेता जुड़ गए थे।।हैरानी की बात ये रही कि जनसंघ की जो विचारधारा थी, उसमें गोरक्षा सुनिश्चित करना, मुस्लिम तुष्टीकरण का विरोध करना तक शामिल था। लेकिन तब आरिफ बेग जैसे मुस्लिम नेताओं ने बढ़ चढ़कर जनसंघ के लिए काम भी किया और इस विचारधारा को आगे बढ़ाने पर जो भी दिया। यानी कि उस दौर में ना मुस्लिम नेताओं से किसी तरह की दूरी थी और ना ही मुस्लिम नेताओं में आज की बीजेपी या तब की जनसंघ के लिए कोई वैसी खटास।आपातकाल और मुस्लिम-बीजेपी साथ-साथ: इसके बाद देश में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया, ये वो समय था जब जनसंघ सही मायनों में मुस्लिमों के करीब आया। एक दौर तो ऐसा देखने को मिला जब जेल में जनसंघ के नेता बंद थे, साथ में जमात ए इस्लामी हिंद के कई नेताओं को भी अरेस्ट किया गया। उस दौर में एक तरफ अगर मुस्लिमों नेताओं के साथ जनसंघ का उठना-बैठना ज्यादा हुआ, सभी ने साथ मिलकर इंदिरा सरकार को उखाड़ फेंकने का सपना भी देखा। ये घटना भी बताने के लिए काफी है कि बीजेपी को शुरुआत से ही मुस्लिम विरोधी बताना गलत है, बल्कि उसका अस्तित्व तो सभी को साथ लेकर चलने से ही शुरू हुआ था।अटल के दोस्त सिकंदर बख्त की कहानी: उस समय अटल बिहारी वाजपेयी के एक काफी घनिष्ठ मित्र भी बन गए थे, नाम था सिकंदर बख्त जो आगे चलकर बीजेपी के सबसे बड़े मुस्लिम चेहरा भी बनने जा रहे थे। जड़ें कांग्रेसी थीं, लेकिन रास्ता जनसंघ का चुना और फिर बीजेपी में भी बड़े पद तक पहुंचे। बाद में जब जनसंघ से टूटकर बीजेपी का गठन हुआ, अध्यक्ष पद तो जरूर अटल बिहारी वाजपेयी के पास रहा, लेकिन साथ में उनके सिकंदर बख्त भी बैठे थे। ये वहीं सिकंदर बख्त हैं जो 90 के दौर में बीजेपी के राज्यसभा में फ्लोर लीडर हुआ करते थे। ये बात साबित करती है कि बीजेपी ने मुस्लिम चेहरों को एक समय काफी तरजीह दी है, इतनी ज्यादा कि राज्यसभा से लेकर केंद्र में बड़े मंत्री पद तक का सफर तय किया गया है।असल में ये अटल बिहारी वाजपेयी की ही शख्सियत का कमाल था कि उनके अध्यक्ष रहते बीजेपी में मुस्लिम नेताओं के आने की रफ्तार धीमी नहीं पड़ी थी। इसी वजह से यूपी से लेकर राजस्थान तक, कई राज्यों से पार्टी ने बड़े मुस्लिम नेताओं को बनाया। लेकिन जब लालकृष्ण अडवाणी ने बीजेपी की कमान संभाली और राम मंदिर का आंदोलन शुरू हुआ, कई सालों के लिए वाजपेयी बैकसीट पर बैठ गए और बीजेपी की राह भी हिंदुत्व की ओर बढ़ चली।आडवाणी का युग और राम मंदिर आंदोलन: आडवाणी के अग्रेसिंह हिंदुत्व ने एक तरफ बीजेपी को मुस्लिमों से दूर करने का काम किया तो वहीं दूसरी तरफ उसी वजह से पार्टी को बड़े चेहरों के रूप में उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा मिलीं। उनके आने से ही बीजेपी की छवि एक हिंदूवादी और हिंदी पट्टी वाली पार्टी की बनने लगी। ये सब इसलिए हुआ क्योंकि वाजपेयी की गांधीवादी विचारधारा पीछे छूटने लगी थी। लेकिन फिर जब सत्ता में आने की कोशिश करनी थी तो एक बार फिर वाजपेयी को ही सक्रिय किया गया और उनके प्रधानमंत्री बनते ही बीजेपी की मुस्लिम सियासत भी फिर कुछ आक्रमक होती दिखी।कई चेहरों को मंत्रिमंडल में जगह मिली। मुख्तार अब्बास नकरी और शहनवाज हुसैन, वाजपेयी के प्रिय बन गए। इसी तरह कांग्रेस को छोड़ नजमा हेपतुल्ला ने भी बीजेपी का ही दामन थामा। अटल बिहारी वाजपेयी क्योंकि लखनऊ की राजनीति में भी काफी सक्रिय रहे, उसका फायदा बीजेपी को शिया मुसलमानों के समर्थन के रूप में मिला। उसी वजह से एजाज हसन रिजवी, तनवीर हैदर उस्मानी जैसे नेताओं को आगे किया गया।
मोदी-शाह ने बदली मुस्लिम पॉलिटिक्स: अब बीजेपी के साथ मुस्लिम नेताओं के जुड़ने का दौर तो कुछ साल तक जारी रहा, लेकिन उस समुदाय का वोट उसे नहीं मिला। इसके बाद जब मोदी युग की शुरुआत हुई, यानी 2014 का साल, मुस्लिम राजनीति ना सिर्फ बीजेपी के लिए बदल गई, बल्कि पूरे देश में भी उसके मायने बदल गए। पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह की हिंदुत्व और विकास वाले नेरेटिव ने ऐसी हवा बनाने की कोशिश की कि अगर कोई दूसरा दल मुस्लिमों की बात भी करता तो उसे तुष्टीकरण के चश्मे से देखा जाने लगा। इसी वजह से कई दल खुलकर मुस्लिमों का समर्थन नहीं कर पाए और उनका प्रतिनिधित्व भी सिकुड़ता चला गया।पासमांदा मुस्लिम और बीजेपी की बढ़ती रुचि: बीजेपी की बात करें तो 2014 के बाद से उसकी तरफ से एक अलग तरह की मुस्लिम सियासत को धार देने का काम हुआ। एक तरफ अगर तीन तलाक जैसी कुप्रथा को रोककर मुस्लिम महिलाओं के दिल में जगह बनाने की कोशिश दिखी तो दूसरी पासमांदा मुसलमानों को साथ लाने का एक प्रयास भी। 2019 के बाद से ये देखा गया है कि बीजेपी का फोकस पासमांदा मुस्लिमों की ओर शिफ्ट हो चुका है। उसकी तरफ से सवर्ण मुसलमानों के बजाय ओबीसी मुस्लिम नेताओं को ज्यादा तवज्जो देने का काम हुआ है। इसी वजह से मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान गुलाम अली खटाना, साबिर अली, आतिफ रशीद जैसे नेताओं को आगे किया गया। मुस्लिम महिलाओं का वोट और CAA: अब बीजेपी मुस्लिमों के बीच पैठ जमाने की कोशिश तो कर रही है, लेकिन 2014 और फि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे 8 फीसदी के करीब ही वोट मिल पाए। इसी वजह से इस बार फिर पार्टी ने इस समुदाय को रिझाने के अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं। अब लाभार्दी वोटबैंक बनाने के चलते मुस्लिम महिलाओं को तो कई तरह के फायदे देने की कोशिश हो रही है। लेकिन CAA जैसा कानून लाकर उसी समुदाय में विश्वास की कमी भी उत्पन की जा रही है। जानकार मानते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में भी मुस्लिम वोटों को कोई बहुत बड़ा शिफ्ट देखने को नहीं मिलने वाला है।वैसे भी अयोध्या में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के बाद ध्रुवीकरण बड़े स्तर पर हुआ है। क्योंकि कांग्रेस ने उस कार्यक्रम से दूरी बनाए रखी, ऐसे में उसे मुस्लिमों का ज्यादा वोट मिलने का अनुमान है। इसी वजह से बीजेपी का मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय होना अभी कठिन राह दिखाई पड़ती है। @रिपोर्ट अशोक झा
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