यूसीसी देश की राजनीति के सबसे विवादित मुद्दों में रहा है। हालांकि संविधान में भी नीति निर्देशक तत्वों के रूप में इसका उल्लेख है। समानता एक सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक लोकतांत्रिक मूल्य है। केंद्रीयगृह मंत्री अमित शाह ने यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर बड़ा बयान दिया है। उन्होंने कहा कि सरदार पटेल, मौलाना आजाद, जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद ने भी कहा था कि इस देश में समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी होना चाहिए। बंगाल में संदेश खाली, चोपड़ा हो या मालदा की घटना इसको लेकर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लग रहा है। मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति में लिप्त कांग्रेस, माकपा और तृणमूल कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों का इसे लेकर विरोध जस का तस है। ऐसे दल और संगठन भूल जाते हैं कि बहुसंख्यक हिंदुओं के अलावा बौद्ध, सिख और जैन समुदाय जैसे अल्पसंख्यक भी हिंदू कोड बिल के अंतर्गत ही आते हैं, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण कानून शामिल हैं। दूसरी ओर, मुसलमानों पर शरीयत आधारित मजहबी कानून लागू होते हैं। इन कानूनों में पितृसत्तात्मक संरचनाएं प्रभावी हैं। यह प्रवृत्ति महिलाओं के लिए समानता की संभावनाओं को सीमित करती है। परिणामस्वरूप विवाह, तलाक और उत्तराधिकार संबंधी मामलों में लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा मिलता है। इस्लामी न्यायशास्त्र की आड़ में बहुविवाह को भी वैधता प्रदान की जाती है। इन्हीं विसंगतियों को दूर करने के लिए समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार रेखांकित किया है। उसने एक सुसंगत कानूनी ढांचे के निर्माण की हिमायत की है। इनमें शाहबानो मामला (1985), सरला मुद्गल मामला (1995), जान वल्लमट्टम मामला (2003), डेनियल लतीफी मामला (2001) और जोसेफ शाइन मामला (2018) प्रमुख हैं, जब इस संहिता के लिए पैरवी होती दिखी। कुछ प्रमुख मुस्लिम देशों की बात करें तो तुर्की और ट्यूनीशिया जैसे देशों ने बहुविवाह को निषिद्ध किया हुआ है। अल्जीरिया, मोरक्को और सऊदी अरब जैसे देश भी लैंगिक समानता और सामाजिक कल्याण में सुधार के लिए अपने कानूनी ढांचे में परिवर्तन कर रहे हैं। रूस, अमेरिका, स्विट्जरलैंड, ब्राजील और जर्मनी जैसे देशों में अपने-अपने सर्वव्यापी सिविल कोड्स हैं। ये उदाहरण लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय के प्रति बढ़ती जागरूकता और उन्हें एकीकृत कानूनी ढांचे में समाहित करने की दिशा में वैश्विक सक्रियता को दर्शाते हैं। अब देश के अन्य राज्यों ने भी इस पर कानून बनाने की योजना बनानी शुरू कर दी है। अगर हर राज्य समान नागरिक संहिता पर अलग- अलग कानून बनाते हैं तो उससे जो संसद द्वारा कानून बनाए गए हैं, मसलन तलाक, उत्तराधिकार अधिनियम, विवाह जैसे अधिनियमों का क्या होगा? ऐसी स्थिति में केंद्र और राज्य सरकारों के कानूनों को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा हो जाएगी। इसलिए आवश्यक है कि केंद्र सरकार समान नागरिक संहिता के मामले पर अपनी चुप्पी तोड़े। उत्तराखंड में भाजपा की सरकार है। उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता को लागू करने का मुद्दा भाजपा के घोषणा पत्र का हिस्सा रहा है। इसलिए सवाल उठना लाजमी है कि क्या भाजपा लोकसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिलने के बाद समान नागरिक संहिता पर कानून बनाकर इसे पूरे देश में लागू करेगी? सवाल यह भी है कि अगर केंद्र सरकार ने देश में अपराधों को रोकने के लिए अलग कानून बनाए, तलाक के मामले में कानून बनाया, नकल रोकने के लिए संसद कानून बना रही है तो फिर समान नागरिक संहिता पर प्रदेश स्तर पर कानून बनाने का क्या औचित्य है? उत्तराखंड मंत्रिमंडल ने 4 फरवरी 2024 को समान नागरिक संहिता के मसौदे को मंजूरी दे दी। उत्तराखंड मंत्रिमंडल की मंजूरी मिलने के वहां की विधानसभा ने भी इसे पारित कर दिया। राज्यपाल की मंजूरी के बाद इस पर राष्ट्रपति की मंजूरी लेना आवश्यक होगा और उनकी मंजूरी मिलने के बाद यह कानून बन जाएगा। इस बिल के कानून बनने के बाद उत्तराखंड समान नागरिक संहिता लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन जाएगा। उत्तराखंड में इस बिल के पेश होते ही देश में तुष्टिकरण की नीति पर चलने वाले कुछ सियासी दलों ने बवाल मचाना शुरू कर दिया है। इस मामले में सियासी दल मुसलमानों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं कि यह कानून मुसलमानों को टारगेट करने के लिए बनाया जा रहा है, जबकि यह पूरी तरह से भ्रामक तथ्य है। इसका उद्देश्य सभी धर्म और जातियों के नागरिकों में लैंगिक असमानता को समाप्त करना है। समान नागरिक संहिता को अगर पूरे देश में लागू किया जाता है तो सभी धार्मिक और आदिवासी समुदायों पर उनके व्यक्तिगत मामलों जैसे संपत्ति, विवाह, विरासत और गोद लेने आदि में लागू होगा। इसका मतलब यह है कि हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून आवेदन अधिनियम (1937) जैसे धर्म पर आधारित मौजूदा व्यक्तिगत कानून भंग हो जाएंगे। उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 के मुताबिक, 'राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।' यानी संविधान सरकार को सभी समुदायों को उन मामलों पर एक साथ लाने का निर्देश दे रहा है, जो वर्तमान में उनके संबंधित व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित है। दिलचस्प यह है कि भारतीय संविधान में हर धर्म की स्त्री और पुरुष दोनों को बराबरी से वोट डालने का अधिकार है। सभी के लिए आपराधिक कानून भी समान हैं। लेकिन शादी, तलाक, बच्चे और संपत्ति संबंधी मामलों में महिलाओं के साथ भेदभाव होता है। उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद सभी धर्मों की महिलाओं की विवाह की आयु एक हो जाएगी। महिलाओं को पुरुषों के बराबर संपत्ति पर अधिकार मिल सकेगा। महिलाओं के पुनर्विवाह के नियम एक जैसे होंगे। बहु-विवाह पर प्रतिबंध लग सकेगा। लिव इन रिलेशन से पैदा होने वाले बच्चों को कानूनी अधिकार मिल सकेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर समान नागरिक संहिता का कानून केंद्र सरकार बनाती है तो इससे जनसंख्या विस्फोट पर प्रतिबंध लग सकेगा। ध्यातव्य है कि सुप्रीम कोर्ट ने कई ऐतिहासिक निर्णयों में सरकार से समान नागरिक संहिता को लागू करने का आह्वान किया है और समय-समय पर न्यायालय ने केंद्र सरकार से इस पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा है। मोहम्मद अहमद बनाम शाह बानो बेगम के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला दिया और समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों की बजाय भारत के कानून सीआरपीसी को प्राथमिकता दी थी। इस फैसले में अदालत ने यह भी कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 44 बेकार पड़ा हुआ है वह महज एक शोपीस आर्टिकल बनकर रह गया है।सवाल यह भी है कि अगर समान नागरिक संहिता इंडोनेशिया, बहरीन, तुर्किए और लेबनान जैसे देशों में लागू हो सकता है तो भारत में क्यों नहीं? ऐसे में तुष्टिकरण की नीति करने वाले सियासी दलों या धर्म के ठेकेदारों की सरकार क्यों परवाह कर रही है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समान नागरिक संहिता की पुरजोर वकालत करते रहे हैं। उनका मानना है कि दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा? प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में एक चुनावी रैली के दौरान कहा था कि भाजपा ने तय किया है कि वह तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के बजाय 'संतुष्टिकरण' के रास्ते पर चलेगी। वास्तव में देखा जाए तो विपक्ष समान नागरिक संहिता के मुद्दे का इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय को गुमराह करने और भड़काने के लिए कर रहा है। प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि एक घर में परिवार के एक सदस्य के लिए एक कानून हो, दूसरे के लिए दूसरा, तो क्या वह परिवार चल पाएगा। फिर ऐसी दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चल पाएगा? सुप्रसिद्ध चिंतक एवं जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान नहीं चलेंगे। यह कोई हिंदुत्ववादियों का एजेंडा नहीं है। यह तो शाहबानो जैसी महिलाओं की जरूरत है। यही कारण है कि संविधान के पितामह डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने समान नागरिक संहिता के पक्ष में ही अपनी राय रखी थी। रिपोर्ट अशोक झा
देश और समाज के विकास का महत्वपूर्ण आधार बनेगी समान नागरिक संहिता
फ़रवरी 22, 2024
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