-कोठारी भाइयों ने विवादित ढांचे पर सबसे पहले 30 अक्टूबर को फहराया
था भगवा ध्वज
- बंगाल ही नहीं विश्व के राम भक्तों को है इनपर गर्व, जिन्हों ने बताया परिवार से बड़ा राष्ट्रधर्म
- राम-शरद कोठारी स्मृति समिति को शतत नमन, राम मंदिर निर्माण हमेशा देता रहेगा प्रेरणा
कोलकाता: बीते 33 वर्ष मानों कल की बात है। जब राम मंदिर के लिए एक रुपया एक ईट, राम लला हम आयेंगे मंदिर वही बनाएंगे। बच्चा बच्चा राम का जन्म भूमि के काम का नारा देश के प्रत्येक गलियों में गूंज रहा था। स्वतंत्रता के पश्चात सबसे बड़ा आंदोलन राममंदिर के लिए आरंभ हुआ, जिसमें कोठारी बंधु अप्रतिम और सर्वोच्च बलिदान से सदा-सदा के लिए अमर हो गए। वर्ष 1990 में कोलकाता निवासी सगे भाई 22 वर्षीय राम कोठारी व 20 साल के शरद कोठारी ने भी भागीदारी का निर्णय लिया। उसी वर्ष आठ दिसंबर को उनकी बहन पूर्णिमा कोठारी का विवाह था। स्वजनों ने कहा,राम और शरद में से कोई एक आंदोलन में जाए और दूसरा विवाह की तैयारियां देखे। रामनाम में रमें दोनों भाइयों ने अयोध्या आने का निर्णय लिया और विवादित ढांचे पर सबसे पहले 30 अक्टूबर को भगवा ध्वज फहराया। दो नवंबर 1990 को हुए गोलीकांड में दोनों भाई बलिदान हो गए। यह भारतीय राजनीति के इतिहास में एक असमान्य रूप से घटी सदी थी। किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि अगस्त 1990 में शुरू होने वाली घटना इस तरह से सामाजिक परिवर्तन करेगी और आजादी के बाद की स्थिति को पूरी तरह से बदलकर रख देगी। यह भारतीय राजनीति के इतिहास में एक असमान्य रूप से घटी सदी थी। किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि अगस्त 1990 में शुरू होने वाली घटना इस तरह से सामाजिक परिवर्तन करेगी और आजादी के बाद की स्थिति को पूरी तरह से बदलकर रख देगी। वीपी सिंह की अगुवाई वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को एक साल से भी कम समय हुआ था लेकिन लोगों में सरकार के प्रति असंतोष बढ़ता जा रहा था। उधर हरियाणा के मजबूत नेता और उप प्रधानमंत्री देवीलाल की पार्टी जनता दल सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर रही थी। चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था और इस इंतजार में थे कि कब फिजा उनकी तरफ का रुख करे और वह अपने पत्ते सबके सामने खोलें।
जिस समय वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे, उस समय विरोधाभासी फैसलों के चलते उनकी सरकार पर लगातार खतरा मंडरा रहा था. हालांकि एक प्रधानमंत्री के तौर पर वह एक सशक्त नेता थे. उनकी सरकार वामपंथियों के समर्थन पर चल रही थी।
1989 के आम चुनावों में बीजेपी अयोध्या लहर पर सवार थी और उसने चुनाव में सबसे ज्यादा 84 सीटों पर जीत हासिल की थी। भीतर और बाहर की चुनौती का सामना करने के लिए उस दौरान वीपी सिंह ने जनता पार्टी सरकार द्वारा गठित मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया। अगस्त में उन्होंने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की घोषणा की। हिंदू निर्वाचन क्षेत्राेंं में विभाजन को देखते हुए भाजपा ने राम मंदिर आंदोलन को हवा दी और मतदाताओं को अपनी तरफ करने के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर निर्माण के लिए रथ यात्रा की घोषणा कर दी। यह यात्रा 15 सितंबर 1990 को गुजरात के सोमनाथ मंदिर से शुरू की गई । इस यात्रा को अगले 45 दिनों तक देश के अलग-अलग कोने से होते हुए 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचना था। मंदिर आंदोलन का समर्थन करने के लिए आडवाणी ने फैसला किया था कि वह प्रतिदिन 300 किलोमीटर की यात्रा करेंगे, जिसमें छह सार्वजनिक सभाओं को संबोधित किया जाएगा।
राम मंदिर के लिए 1990 में हुई कारसेवा में शामिल होने को राम कोलकाता से अपने छोटे भाई शरद के साथ अयोध्या पहुंचे थे।।जहां दोनों भाई चार दिन बाद हुई गोलीबारी का शिकार हो गए।
राम और शरद कोठारी नियमित रूप से बुराबार की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शाखा में जाया करते थे। 22 और 20 साल की उम्र के इन दोनों भाइयों ने आरएसएस की तीन साल की होने वाली ट्रेनिंग के दो साल बहुत ही बेहतरीन तरीके से पूरे किए थे. कई आरएसएस कार्यकर्ताओं की तरह ही राम और शरद ने भी विहिप के कारसेवकों के तरह ही अयोध्या में राममंदिर के निर्माण में अपनी सेवा देने का फैसला किया. 20 अक्टूबर 1990 को उन्होंने अपने पिता हीरालाल कोठारी को अयोध्या यात्रा की योजना के बारे में बताया। उनके पिता उन्हें इस यात्रा में भेजने के इच्छुक नहीं थे क्योंकि उनकी बेटी पूर्णिमा का विवाह दिसंबर में था। वो चाहते थे कि कम से कम एक भाई तो शादी समारोह में शामिल रहे. उस समय दोनों ही भाई अपने फैसले पर कायम रहे और उन्होंने यात्रा में जाने का फैसला किया। ‘मेरे पिता एक शर्त पर सहमत हुए कि दोनों भाई उन्हें हर दिन पत्र जरूर लिखेंगे। अयोध्या जाने से पहले, उन्होंने कई पोस्टकार्ड खरीदे ताकि वे पत्र लिख सकें; मैंने रोना शुरू कर दिया जब मैंने सुना कि मेरे दोनों भाई अयोध्या जाने वाले हैं. पूर्णिमा कहती हैं, उन्होंने मुझसे वादा किया था कि वे वापस आकर मेरी शादी में शामिल होंगे। ’ 22 अक्टूबर को राम और शरद अयोध्या के लिए एक ट्रेन में सवार हो गए। साल था 1990 और महीना था दिसंबर। पहले हफ्ते के एक दिन डाकिया आज के कोलकाता और तब के कलकत्ता के खेलत घोष लेन स्थित एक घर में पोस्टकार्ड लेकर पहुॅंचता है। बकौल पूर्णिमा कोठारी, “चिट्ठी देख मैं बिलख पड़ी। उसने मॉं और बाबा का ध्यान रखने को लिखा था। साथ ही कहा था कि चिंता मत करना हम तुम्हारी शादी में पहुॅंच जाएँगे।” यह पत्र था पूर्णिमा के भाई शरद कोठारी का जो अपने बड़े भाई रामकुमार के साथ अयोध्या में 2 नवंबर को ही शहीद हो चुके थे। चिट्ठी शहादत से कुछ घंटों पहले ही लिखी गई थी। 22 साल के रामकुमार और 20 साल के शरद कोलकाता में अपने घर के करीब बड़ा बाजार में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में नियमित रूप से जाते थे। दोनों द्वितीय वर्ष प्रशिक्षित थे। कई अन्य स्वयंसेवकों की तरह ही राम और शरद ने भी विहिप की कार सेवा में शामिल होने का फैसला किया। 20 अक्टूबर 1990 को उन्होंने अयोध्या जाने के अपने इरादे के बारे में पिता हीरालाल कोठारी को बताया। उसी साल दिसंबर के दूसरे हफ्ते में बहन पूर्णिमा की शादी होनी तय थी। पिता ने कहा- कम से कम एक भाई तो घर पर रुको ताकि शादी के इंतजाम हो सके। पर दोनों भाई इरादे से पीछे नहीं हटे। बकौल पूर्णिमा, “आखिर में एक शर्त पर पिता राजी हुए। उनसे हर रोज अयोध्या से खत लिखते रहने को कहा। अयोध्या के लिए निकलने से पहले उन्होंने ढेर सारे पोस्टकार्ड खरीदे ताकि चिट्ठियॉं लिख सके। मुझे जब पता चला कि भाई अयोध्या जा रहे हैं तो मैं दुखी हो गई। उन्होंने वादा किया कि वे मेरी शादी तक जरूर लौट आएँगे। दिसंबर के पहले हफ्ते में पूर्णिमा को जो चिट्ठी मिली वो इनमें से ही एक पोस्टकार्ड पर लिखा गया था। पूर्णिमा की शादी भी उसी साल दिसंबर में हो गई। लेकिन, बहन से किया वादा पूरा करने दोनों भाई घर लौट नहीं पाए। राम और शरद ने 22 अक्टूबर की रात कोलकाता से ट्रेन पकड़ी। बनारस आकर दोनों भाई रुक गए। सरकार ने गाड़ियॉं रद्द कर दी थी तो वे टैक्सी से आजमगढ़ के फूलपुर कस्बे तक आए। यहॉं से सड़क रास्ता भी बंद था। 25 तारीख से कोई 200 किलोमीटर पैदल चल वे 30 अक्टूबर की सुबह अयोध्या पहुॅंचे। 30 अक्टूबर को विवादित जगह पहुॅंचने वाले शरद पहले आदमी थे। विवादित इमारत के गुंबद पर चढ़कर उन्होंने पताका फहराई। दोनों भाइयों को सीआरपीएफ के जवानों ने लाठियों से पीटकर खदेड़ दिया। शरद और रामकुमार अब मंदिर आंदोलन की कहानी बन गए थे। अयोध्या में उनकी कथाएँ सुनाई जा रही थी। दोनों भाइयों के साथ कोलकाता से अयोध्या के लिए निकले राजेश अग्रवाल के मुताबिक, वे 30 अक्टूबर को तड़के 4 बजे अयोध्या पहुॅंंचे। वे बताते हैं कि मस्जिद की गुंबद पर भगवा ध्वज फहरा कोठारी बंधुओं ने उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव की दावे की हवा निकाल दी थी। मुलायम ने कहा था, “वहॉं परिंदा भी पर नहीं मार सकता।” फिर आया 2 नवंबर का दिन। दोनों भाई विनय कटियार के नेतृत्व में दिगंबर अखाड़े की तरफ से हनुमानगढ़ी की ओर बढ़ रहे थे। जब सुरक्षा बलों ने फायरिंग शुरू की तो दोनों पीछे हटकर एक घर में जा छिपे। एक इंस्पेक्टर ने शरद को घर से बाहर निकाल सड़क पर बिठाया और सिर को गोली से उड़ा दिया। छोटे भाई के साथ ऐसा होते देख रामकुमार भी कूद पड़े। इंस्पेक्टर की गोली रामकुमार के गले को भी पार कर गई। दोनों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। उनकी अंत्येष्टि में सरयू किनारे हुजूम उमड़ पड़ा था। बेटों की मौत से हीरालाल को ऐसा आघात लगा कि शव लेने के लिए अयोध्या आने की हिम्मत भी नहीं जुटा सके। दोनों का शव लेने हीरालाल के बड़े भाई दाऊलाल फैजाबाद आए थे और उन्होंने ही दोनों का अंतिम संस्कार किया था। राम कोठारी आज जिंदा होते तो बीकानेर में अपना कारोबार कर रहे होते या फिर कोलकाता में पिता का व्यवसाय संभाल रहे होते। लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।भाइयों की याद में पूर्णिमा उनके दोस्त राजेश अग्रवाल के साथ मिलकर ‘राम-शरद कोठारी स्मृति समिति’ नाम से एक संस्था चलाती हैं। अब दोनों के नाम पर अयोध्या में सड़क भी होगी।।आज मंदिर निर्माण चरितार्थ होता देख ऐसा लगता है की गुंबज पर फहराने बाला हर धर्मध्वज कोठारी भाई का है। @रिपोर्ट अशोक झा
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