ढाका: बांग्लादेश में चुनावी मौसम आते ही जिस पड़ोसी देश की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका की सबसे ज्यादा चर्चा होती है वह बेशक भारत है इसी तरह इस मुद्दे पर अटकलों का अंबार लग जाता है कि भारत बांग्लादेश के चुनाव में क्या चाहता है। बांग्लादेश में चुनावी समर का बिगुल बज चुका है। वहां 7 जनवरी, 2024 को 12 वीं बार संसदीय चुनाव होने जा रहा हैं। इसमें सत्तारूढ़ अवामी लीग का मुकाबला बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और जमात-ए-इस्लामी के विपक्षी गठबंधन से है।इस बार का चुनाव भी अपवाद नहीं है। विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के एक शीर्ष नेता ने तो सार्वजनिक रूप से यह आरोप भी लगाया है कि दरअसल दिल्ली ने बांग्लादेश के नागरिकों का (लोकतांत्रिक) भाग्य छीन लिया है। बांग्लादेश में ये मानने वालों की कमी नहीं है कि लगातार दो बार सवालों से घिरे संसदीय चुनाव कराने के बावजूद शेख हसीना सरकार जिस तरह लगातार 15 वर्षों से सत्ता में है, ऐसा भारत के सक्रिय समर्थन और सहयोग के बिना किसी हालत में संभव नहीं होता। ऐसे लोग सार्वजनिक रूप से भी यह बात कहते रहे हैं।दूसरी ओर, सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के नेताओं और मंत्रियों को अक्सर ताकतवर पड़ोसी भारत के प्रत्यक्ष समर्थन के लिए उसकी प्रशंसा करते भी देखा-सुना जाता रहा है।'बांग्लादेश का लोकतांत्रिक भविष्य':एक उम्मीदवार और पूर्व सांसद ने हाल में एक सरकारी अधिकारी को धमकी देते हुए कहा है, "यह याद रखें कि मैं शेख हसीना का यानी भारत का उम्मीदवार हूं। भारत ने हालांकि औपचारिक रूप से कभी इस बात को स्वीकार नहीं किया है कि पड़ोसी बांग्लादेश के चुनाव में उसकी कोई 'भूमिका' रही है या वह उसमें 'हस्तक्षेप' करता है।भारत की आधिकारिक तौर पर घोषित नीति यह रही है कि बांग्लादेश का लोकतांत्रिक भविष्य तय करने का अधिकार सिर्फ वहां के नागरिकों को ही है। लेकिन दिल्ली में अनौपचारिक बातचीत में सरकारी अधिकारी, कूटनीतिज्ञ और विश्लेषक यह बात मानते हैं कि दुनिया के तमाम देश चाहते हैं कि उनके पड़ोस में मित्र सरकार रहे और भारत भी इसका अपवाद नहीं है।भारत भी चाहता है कि बांग्लादेश में एक ऐसी सरकार सत्ता में आए जिसके साथ काम करने में सहूलियत हो और संपर्क भी सामान्य रहे। लेकिन बांग्लादेश में इस बात पर कम अटकलें नहीं लगती हैं कि ढाका में एक मित्र सरकार को सत्ता में देखने के लिए दिल्ली ने किस हद तक सक्रियता दिखाई है। बांग्लादेश के कई कूटनीतिज्ञ और पर्यवेक्षक मानते हैं कि दिल्ली की यह सक्रियता कुछ हद तक सार्वजनिक है, लेकिन ज्यादातर परदे के पीछे हैं। शेख हसीना के परिवार के साथ उनके बेहद नजदीकी निजी और पारिवारिक संबंध थे। हसीना प्रणब मुखर्जी को काका बाबू कह कर बुलाती थीं। प्रणब मुखर्जी की पुस्तक में इस बात का संकेत था कि इस नजदीकी के कारण ही उन्होंने जनरल मोईन यू अहमद को शेख हसीना की ओर से नौकरी नहीं जाने का भरोसा दिया था। भारत ये भी चाहता था कि वर्ष 2008 के चुनाव में बीएनपी किसी भी हालत में सत्ता में नहीं लौट सके।।खालिदा जिया के दूसरे कार्यकाल (2001-2006) के दौरान वीना सीकरी लंबे समय तक ढाका में भारतीय उच्चायुक्त रही थीं। प्रणब मुखर्जी के मंत्रालय की ओर से जारी उस बयान में कहा गया था, बेहद करीबी और मित्र पड़ोसी देश में मुक्त, निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव के जरिए जिस तरह बहुदलीय लोकतंत्र बहाल हुआ है उसके लिए भारत बांग्लादेश के लोगों का अभिनंदन करता है। "शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग और महागठजोड़ की यह ऐतिहासिक जीत पूरे दक्षिण एशिया की लोकतांत्रिक राजनीति में मील का एक बड़ा पत्थर है। भारी तादाद में वोटरों की भागीदारी और चुनावी प्रक्रिया का निष्पक्ष संचालन दरअसल लोकतंत्र की महान जीत है. बांग्लादेश के लोगों ने लोकतांत्रिक परंपरा के प्रति एक बार फिर अपनी आस्था जताते हुए विकास और प्रगति के पक्ष में सर्वसम्मत फैसला दिया है। वैसे, हसीना ने छह साल पहले भारत की तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार पर बीएनपी-जमात गठबंधन का समर्थन करने और विदेशी खुफिया एजेंसी रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के ऑपरेशन के जरिये उनकी सरकार को गिराने का आरोप लगाया था। उनकी कट्टर प्रतिद्वंद्वी और 2001 से 2006 तक बांग्लादेश की प्रधानमंत्री रहीं खालिदा जिया का कार्यकाल भी भारत के लिए बुरा रहा क्योंकि इस दौरान बांग्लादेश स्थित इस्लामी कट्टरपंथियों या जातीय अलगाववादियों द्वारा पूर्वी और उत्तर-पूर्व भारत में आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया गया। बेगम हसीना के साथ भारत के रिश्ते बेहतर रहे और उन्होंने पूरी सख्ती के साथ आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को सिरे चढ़ाया और इस तरह भारत की सुरक्षा और कनेक्टिविटी चिंताओं को पूरी मजबूती के साथ संबोधित किया। इसके साथ ही पारगमन और तटीय शिपिंग समझौतों ने भारत की मुख्य भूमि और उत्तर-पूर्व के बीच कनेक्शन को आसान बना दिया। वैसे, नदी जल बंटवारे के मुद्दे का समाधान न निकलने के कारण उन्होंने दक्षिणपंथी हिन्दुत्व पार्टी से थोड़ी दूरी बना ली। इस प्रकार, जबकि भारत स्पष्ट रूप से बीएनपी के साथ अपने दांव लगाने को तैयार नहीं है, वह अवामी लीग के भीतर एक मजबूत इस्लामी लॉबी की बढ़ती ताकत को रोकने में हसीना की हालिया विफलता से भी असहज है।हसीना के सलाहकार सलमान फजलुर रहमान और सूचना मंत्री हसन महमूद के नेतृत्व में इस्लामवादियों ने पार्टी में अधिकतम चुनावी नामांकन हासिल करने में कामयाबी हासिल की है और 1971 के मुक्ति संग्राम की विरासत के प्रति दृढ़ता से जुड़ी भारतीय समर्थक हस्तियों को किनारे कर दिया है। भारत समर्थित आजादी की लड़ाई के दिग्गज और पूर्व उद्योग मंत्री अमीर हुसैन अमू की जगह पर मोहम्मद शहाबुद्दीन चुप्पू (सलमान रहमान के बेक्सिमको और मसूद एस. आलम समूह द्वारा समर्थित) जैसे अपेक्षाकृत छोटे कद के व्यक्ति को राष्ट्रपति के रूप में चुनना अपने आप में सारी कहानी बयां करता है। हाल ही में अवामी लीग ने जिन्हें टिकट दिए, उन 300 उम्मीदवारों में से 69 का जमात जैसी इस्लामी पार्टियों से सक्रिय नाता रहा है जबकि 48 चीन के साथ मजबूत व्यापार संबंध वाले व्यवसायी हैं।ढाका में इस तरह की चर्चाएं गरम हैं कि विवादों और संभवत: हेराफेरी से घिरे इस चुनाव में इस समूह के कामयाब होने की उम्मीदें हैं और अगर ऐसा होता है तो वह सलमान रहमान को उप प्रधानमंत्री और उनके साथियों को प्रमुख मंत्रालय देने की मांग करेगा। इस तरह की अटकलों का बाजार इसलिए भी गर्म है कि हाल ही में दिल्ली में आयोजित ग्लोबल इकोनॉमिक पॉलिसी फोरम की बैठक में वित्त मंत्री मुस्तफा कमाल ने नहीं बल्कि रहमान ने भाग लिया था। पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि रहमान का पीएम हसीना पर पूरा नियंत्रण है और उन्हें ही 'असली' पीएम के रूप में देखा जाता है। इतना ही नहीं, हसीना के बेटे सजीब वाजेद जॉय की रहमान के साथ एक मजबूत व्यापारिक साझेदारी है। उनकी प्रमुख कंपनी बेक्सिमको और उसकी सहायक कंपनियों ने 1971 के नरसंहार को लेकर बांग्लादेशी संवेदनाओं को दरकिनार करते हुए 14 अगस्त को पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में मोटे पैसे वाले विज्ञापन दिए। हसीना ने बेशक ज्यादा दर पर अडानी के साथ बिजली खरीद समझौता करके दिल्ली को खुश कर दिया लेकिन भारत का राष्ट्रीय सुरक्षा और राजनयिक प्रतिष्ठान एक भरोसेमंद सहयोगी को तेजी से चीन की ओर जाते देख चिंतित है। अमेरिकी दबाव और घरेलू इस्लामवादियों के घरेलू राजनीतिक पैंतरेबाजी- दोनों से बचने के लिए बाहरी समर्थन के लिए। इस तरह भारत की स्थिति इधर कुआं, उधर खाई वाली हो गई है। भारत बांग्लादेशियों के बीच तेजी से अलोकप्रिय भी हो रहा है। वे हसीना और उनके भारतीय समर्थकों को 2013-14 और 2018-19 में निष्पक्ष चुनाव से वंचित करने के साथ-साथ बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और अनियंत्रित मूल्य वृद्धि के लिए दोषी ठहराते हैं। हसीना को प्रभावित करने की भारत की क्षमता अब तक के सबसे निचले स्तर पर है क्योंकि हसीना भारतीय समर्थन से ज्यादा फायदेमंद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीनी वीटो को मानती हैं। हसीना को प्रभावित करने की नई दिल्ली की क्षमता सीधे तौर पर अवामी लीग के भीतर भारत के प्रभाव से जुड़ी है। यदि ढाका में दिल्ली के पसंदीदा लोगों को व्यवस्थित रूप से बाहर कर दिया जाता है, तो इसका असर दूसरे तरीके से भी पड़ेगा। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के दूरसंचार और बुनियादी ढांचे क्षेत्र में चीन की लगभग पूरी पैठ हो चुकी है जिसमें तीस्ता नदी की चीनी-वित्त पोषित ड्रेजिंग जैसी परियोजनाएं भी शामिल हैं।अमेरिका द्वारा हसीना को सत्ता से हटाने के लिए सड़क पर आंदोलन तेज करने के लिए इस्लामी गठबंधन का समर्थन करने के साथ-साथ भारत पर यह दबाव कि वह हसीना को पद छोड़ देने के लिए मनाए, फिलहाल की स्थिति में भारत और चीन रक्षात्मक मुद्रा में आ गए हैं और राउंड-1 में अमेरिका हावी दिख रहा है। यह अजीब बात है कि भारत और चीन एक क्षेत्रीय मुद्दे पर खुद को एक ही पाले में पा रहे हैं। रिपोर्ट अशोक झा
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