कोलकाता: बंगाल में दिवाली की रात अमावस्या को हर एक काली मंदिर में विशेष अनुष्ठान आयोजित किया जाता है। यहां दूर-दूर से तांत्रिक यहां तंत्र साधना के लिए आते हैं। इस मौके पर तारापीठ मंदिर में भी विशेष पूजा की जाती है। यहां दूर-दूर से तांत्रिक यहां तंत्र साधना के लिए आते हैं।
आगे जानिए दिवाली की रात को ये पूजा क्यों की जाती है?
किसी भी दूसरे राज्य के मुकाबले पश्चिम बंगाल में शक्तिपीठों की संख्या अधिक है। हम आपको 51 शक्ति पीठ में से एक और तंत्र साधना के लिए मशहूर तारापीठ के बारे में विस्तार से बता रहे हैं। तारापीठ को सिद्धपीठ भी कहा जाता है। कहां है तारापीठ: तारापीठ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में मौजूद है। बीरभूम में तारापीठ के अलावा और भी कई शक्तिपीठ हैं जिनमें नलहाटी, नंदीकेश्वरी, फुल्लोरा और कंकालीतला प्रमुख हैं। लेकिन इन सभी शक्तिपीठों में तारापीठ सबसे अनोखे या यूं कहे डरावनी जगह पर मौजूद है। क्योंकि तारापीठ का सिद्ध मंदिर किसी सुन्दर जगह पर नहीं बल्कि तारापीठ महाश्मशान के उस पार मौजूद हैं। यानी तारापीठ मंदिर में जाने के इच्छुक हर एक भक्त को महा श्मशान पार करने के बाद ही मां के दर्शन मिलते हैं। इसे देवी मां की कृपा ही कही जाएगी कि बच्चे से लेकर बुढ़े तक तारापीठ महाश्मशान को पार करने से पहले एक बार नहीं हिचकिचाते हैं और निडर होकर श्मशान को पार करते हैं।
गिरे थे सती के नयनतारा: पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रजापति दक्ष के यज्ञ में पति शिव का निंदा बर्दास्त नहीं कर पाने की वजह से सती ने आत्मदाह कर लिया। इससे दुःखी होकर भगवान शिव माता सती के पार्थिव शरीर को लेकर तांडव करने लगे, तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के 51 टूकड़े कर दिये। पृथ्वी पर जिन-जिन स्थानों पर माता सती के शरीर के अंग गिरे थे, वहां शक्तिपीठ बन गये। पश्चिम बंगाल में कई शक्तिपीठ हैं जिनमें कालीघाट और तारापीठ सबसे प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि तारापीठ में माता सती की तीसरी आंख यानी नयनतारा गिरे थे। कालांतर में यहां तारापुर या तारापीठ गांव विकसित हुआ। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सर्वप्रथम ऋषि वशिष्ठ ने मां तारा का यह स्वरूप देखा था और उन्होंने ही सती की मां तारा के रूप में सर्वप्रथम पूजा की थी। उन्होंने तारापीठ आकर रात के समय तंत्र क्रियाओं में सिद्धी हासिल की थी। कहा जाता है कि उन्होंने तांत्रिक अनुष्ठान के साथ पांच निषिद्ध वस्तुओं से मां तारा की पूजा की थी, जिससे प्रसन्न होकर देवी मां ने उन्हें दर्शन दिया था।
मुंडमाला रखकर करने जाती नदी में स्नान: तारापीठ से जुड़ी कई कहानियां प्रचलित हैं। तारापीठ ही वह स्थान है, जहां तंत्र साधना में साधक वामाचरण या वामाखेपा को सिद्धी मिली थी। वामाखेपा का घर तारापीठ से महज 2 किमी दूर एक गांव में था। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार वामाखेपा को मां तारा नियमित रूप से दर्शन व मार्गदर्शन दिया करती थी। तारापीठ मंदिर के आसपास ऐसे कई स्थान हैं, जिनका संबंध अघोरी व सिद्ध पुरुष वामाचरण व मां तारा से है और जो देखने योग्य हैं। तारापीठ मंदिर के पास ही पंचमुंडी का आसन है। कहा जाता है कि इसी आसन पर बैठकर अपने इर्द-गिर्द 5 खोपड़ियों को रखकर वामाखेपा तंत्र साधना किया करते थे। इसके अलावा तारापीठ के पास मुंडमालिनी है, जहां मां तारा की प्रतिमा स्थापित है। कहा जाता है कि महाश्मशान से होकर उल्टी बहती द्वारका नदी में स्नान करने जाते समय मां तारा अपने गले की मुंडमाला इसी स्थान पर उतारकर रखती थी, जिसे वापस लौटकर वह फिर से पहन लेती थी। वामाचरण की मृत्यु के बाद 1922 में उन्हें तारापीठ महाश्मशान के पास ही एक नीम के पेड़ के नीचे समाधी दी गयी थी, जो आज भी मौजूद है।क्यों कहा जाता है सिद्धपीठ: पश्चिम बंगाल जितने भी पीठ हैं, उनमें सबसे अधिक लोकप्रिय कालीघाट और तारापीठ हैं। तारापीठ को सिद्धपीठ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि तारापीठ में साधना करने वाले व्यक्ति या साधक को ज्ञान, आनंद और सिद्धी अथवा अलौकिक शक्तियां मिलती हैं। इसी वजह से तारापीठ को सिद्धपीठ कहा जाता है। भारत में हर जगह जहां नदी उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है वहीं तारापीठ में द्वारका नदी दक्षिण से उत्तर यानी उल्टी बहती है। इसे कहते हैं जादूनगरी:
तंत्र शास्त्र के अनुसार, कामाख्या को मायानगरी कहते हैं और तारापीठ को जादूनगरी। कहते हैं कि जो भी शक्तियां आप कामाख्या शक्तिपीठ से अर्जित करते हैं उन्हें दिवाली की रात तारापीठ में सिद्ध करना पड़ता है। तभी उसका फल प्राप्त होता है। मान्यता है कि माता जिस पर भी प्रसन्न होती हैं, उसे इसी श्मशान में दर्शन देती हैं। इसलिए इस श्मशान की रात को भी बहुत पवित्र माना जाता है। लोग इसे अपने घर लेकर पूजा करते हैं। दिवाली की रात है बहुत खास: तंत्र शास्त्र में तंत्र सिद्धि के लिए 4 रातों को बहुत ही खास माना गया है। इनमें से दिवाली की रात भी एक है। तंत्र भाषा में इसे कालरात्रि कहा जाता है। मान्यता है कि दिवाली की रात किए गए तंत्र प्रयोगों में जल्दी ही सफलता मिलती है। इसी कारण दिवाली की रात श्मशान आदि स्थानों पर तांत्रिकों का जमघट लगता है। प्रसिद्ध साधकों की उपलब्धियों के कारण ही आज भी बीरभूम का तारापीठ 'सिद्धपीठ' के नाम से जाना जाता है। मां तारा का यह परिसर मां तारा के खास भक्त बामा खेपा की चमत्कारी कहानियों से भरा पड़ा है। यह सिर्फ भक्ति नहीं है कि लोग पारंपरिक तारापीठ में आते हैं। इतिहास के कारण भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों से कई लोग यहां आए है। तारापीठ के अंशों में देवी के प्राकट्य एवं पौराणिक कथा का वर्णन है। कहा जाता है कि वशिष्ठमुनि ब्रह्मा के सातवें पुत्र थे। वह सप्तर्षियों में से एक थे।
तारापीठ के नाम के पीछे का रहस्य
ऐसा माना जाता है कि तारापीठ श्मशान के निकट वह मातृ आराधना में लंबी तपस्या में बैठे रहे। तपस्या से संतुष्ट होकर देवी दुर्गा प्रकट हुईं। चूँकि उनका जन्म माँ के गर्भ से नहीं हुआ था, इसलिए वशिष्ठमुनि ने देवी को माँ के रूप में प्रकट होने का प्रस्ताव दिया। समुद्र मंथन के दौरान महादेव ने विषपान किया था जिसके कारण उनका समूचा कंठ नीला पड़ गया था। देवी दुर्गा ने तारा रूप में महादेव को स्तनपान कराया। शुक्ल चतुर्दशी के दिन वही माँ तारा के रूप में उन्होंने वशिष्ठमुनि को दर्शन दी। तभी से इस स्थान को तारापीठ कहा जाता है। लेकिन इसे लेकर और लोगों का अलग-अलग राय हैं।
साधक बामाखेपा' की जन्मस्थली पर भी दर्शन करने जाते है लोग
कुछ लोगों का ऐसा मानना है जब सती का शरीर विष्णु के चक्र में खंडित हुआ था, तो नेत्रगोलक या तारा यहीं गिरा था। इसके अलावा और भी पौराणिक मत हैं. हालाँकि, वर्तमान तारा पीठ मंदिर का निर्माण 1818 में बीरभूम के मल्लारपुर के जमींदार जगन्नाथ राय द्वारा किया गया था। संत बामाखेपा की भक्तिमय और चमत्कारिक कहानियों से यह तारापीठ और भी प्रसिद्ध हो गया है. बामाचरण (बामाखेपा) चट्टोपाध्याय का जन्म 1837 में तारापीठ के निकट अतला गाँव में हुआ था। इसी तारापीठ में द्वारका नदी के तट पर साधना करके उन्होंने सिद्धि प्राप्त की थी। भक्त जब तारापीठ में मां तारा के दर्शन करते हैं तो वे लोग 'साधक बामाखेपा' की जन्मस्थली पर भी दर्शन किए बिना नहीं लौटते। इस तारापीठ मंदिर के बगल में एक तालाब है। कहा जाता है कि व्यापारी जयदत्त द्वारका नदी मार्ग से नाव लेकर जा रहा था। तारापीठ के पास उनके पुत्र की सर्पदंश से मृत्यु हो गई थी।
तारापीठ में है 'जीवित कुंड'
उस समय, व्यापारी के एक नौकर ने कटी हुई शोल मछली को मंदिर के बगल के मौजूद तालाब में धोने ले गया। बताया जाता है की पानी में धोते समय शोल मछली जीवित हो गई। नौकर ने दौड़कर आकर जयदत्त को यह बात बतायी। यह सुनकर वह अपने मृत पुत्र को तालाब में ले गए और स्नान कराया और जमीदार का पुत्र जीवित हो गया। इस घटना के बाद इस कुंड का नाम 'जीवित कुंड' पड़ गया। कहा जाता है कि इसी कुंड से माता तारा प्रकट हुई थीं। ऐसे अनेक चमत्कार, पौराणिक कथाएँ तारापीठ के विभिन्न तीर्थों में वर्णित हैं। यहां हर साल लाखों श्रद्धालु जुटते हैं। देश के बाहर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से लोग तारापीठ आते हैं। मंदिर, स्नान घाट, जीवित कुंड, दाह संस्कार, बामाखेपा के अटाला गांव जैसे पवित्र स्थान आदि की एक चमत्कारी कहानी है. तारापीठ मंदिर कमेटी के सचिव ध्रुव चट्टोपाध्याय ने बताया की, कौशिक अमावस्या, शुक्ल चतुर्दशी, काली पूजा आदि दिनों में लाखों भक्त इकट्ठा होते हैं. इन दिनों विशेष अनुष्ठानों के अनुसार मां की पूजा, स्नान, आराधना, संध्यारती की जाती है। कैसे पहुंचे तारापीठ: तारापीठ रेल और सड़क मार्ग से पूरी तरह से जुड़ा हुआ है। यह मंदिर पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में है। अगर आप ट्रेन से तारापीठ जाना चाहते हैं तो सियालदह या हावड़ा स्टेशन से आपको तारापीठ स्टेशन के लिए ट्रेन मिल जाएगी। स्टेशन के बाहर आपको ई-रिक्शा मिलेंगे जो आपको मंदिर के पास छोड़ देंगे। मंदिर के आसपास खाने-पीने के साथ-साथ रुकने के लिए भी कई होटल मिल जाएंगे। लेकिन काली पूजा के समय भीड़ अधिक होने की वजह से होटलों में कमरे मिलने में समस्या हो सकती है। आप चाहे तो कोलकाता में ही होटल किराए पर ले सकते हैं। सड़क मार्ग से आप किराए पर गाड़ी लेकर तारापीठ जा सकते हैं और पूजा के बाद वापस कोलकाता लौट आ सकते हैं। तारापीठ का सबसे नजदीकी एयरपोर्ट नेताजी सुभाषचंद्र बोस अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट, कोलकाता है। @रिपोर्ट अशोक झा
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