स्वतंत्रता के आंदोलन में ऐसे क्रांतिकारी वीरों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया जो अंग्रेजी शासन को मिटाने के लिए युवा अवस्था मे ही सबकुछ त्याग कर मातृभूमि की रक्षा के लिए आगे खड़े रहे उनमें से एक युवा क्रांतिकारी बिरसा मुंडा थे। उत्तर बंगाल में जनजातियों की 13 लाख से ज्यादा जनसंख्या है। सांसद विधायक और जनप्रतिनिधि लगातार उन्हें याद कर रहे है। 15 नवंबर, 1875 को जन्मे बिरसा मुंडा की जयंती को लेकर विधायक मनोज तिग्गा और केंद्र के मंत्री जॉन बारला का कहना है कि पीएम नरेंद्र मोदी उनके गांव जाने वाले हैं। इस दौरान वह आदिवासी समाज के लिए 24 हजार करोड़ रुपये की एक परियोजना का भी उद्घाटन किया। इससे पहले आदिवासियों की फिक्र किसी सरकार ने नहीं किया। बिरसा मुंडा को आजादी की जंग में योगदान के अलावा आदिवासी समाज के धर्मांतरण से रोकने के लिए भी श्रेय दिया जाता है। बिरसा मुंडा का झारखंड पर कितना प्रभाव और मान्यता रही है, इसे इससे भी समझा जा सकता है कि जब बिहार से अलग राज्य का गठन भी उनकी जयंती के दिन ही हुआ था। छोटानागपुर पठार क्षेत्र की मुंडा जनजाति से ताल्लुक रखने वाले बिरसा मुंडा का बचपन आदिवासी गांवों में ही बीता। सालगा में शुरुआती पढ़ाई उन्होंने जयपाल नाग के मार्गदर्शन में की थी। यही नहीं जयपाल नाग के कहने पर बिरसा मुंडा ने जर्मन मिशन स्कूल में दाखिले के लिए ईसाई धर्म भी अपना लिया था। हालांकि कुछ समय बाद ही उनका ईसाइयत से मोहभंग हो गया था, जब उन्हें यह आभास हुआ कि मिशनरी के लोग तो आदिवासियों का धर्मांतरण ही कराने में जुटे हैं। यही नहीं उन्होंने ब्रिटिश सत्ता और उसके समर्थन से आगे बढ़ रहे मिशनरी के कामकाज को भी समझ लिया था, जो जंगलों में आदिवासियों का धर्मपरिवर्तन करा रहे थे। बिरसा मुंडा ने धर्मांतरण का विरोध किया और आदिवासी समाज से अपने उसी धर्म पर अडिग रहने को कहा, जिसके तहत वह प्रकृति पूजक थे। उन्होंने आदिवासी समाज को उनके ही धर्म की शिक्षा देने शुरू की और कुछ अरसे में उनकी ख्याति एक धर्मगुरु के तौर पर हुई। उनके अनुयायी बिरसैत कहलाने लगे और उसने एक समुदाय का ही रूप ले लिया। क्या था बिरसा मुंडा का बिरसैत पंथ, ईसाइयत की हुई काट। àमुंडा और ओरांव जनजाति के लोग ही प्रमुखता के साथ बिरसैत बने थे। इसके बाद मिशनरियों की धर्मांतरण की मुहिम को कड़ी चुनौती मिली। बिरसा मुंडा ने 1886 से 1890 का दौर चाईबासा में गुजारा था। यह क्षेत्र सरदारों के आंदोलन का केंद्र था। इसका l एलएलउन पर गहरा असर पड़ा था और वह धीरे-धीरे ऐंटी-मिशनरी और सरकार विरोधी बन गए। 3 मार्च, 1900 को जब बिरसा मुंडा 25 साल के भी पूरे नहीं हुए थे, उन्हें ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उन्हें सोते समय ब्रिटिश पुलिस ने अरेस्ट किया, जब वह अपनी गुरिल्ला सेना के साथ आराम कर रहे थे। बिरसा मुंडा की जेल में ही महज 25 साल की उम्र में 9 जून, 1900 को मौत हो गई थी। मुंडा विद्रोह तो खत्म हुआ, पर उनका असर कभी नहीं: बिरसा मुंडा की आयु बहुत लंबी नहीं थी, लेकिन उनका प्रभाव बहुत बड़ा था। जेल में उनकी मौत के साथ ही मुंडा विद्रोह को अंग्रेजों ने कुचल दिया, लेकिन आदिवासी समाज में वह आत्मसम्मान जगा गए। उन्हें अपने धर्म पर अडिग रहना सिखा गए। बिरसा मुंडा के बारे में जॉन हॉफ़मैन ने अपनी किताब 'इनसाइक्लोपीडिया मंडारिका' में लिखा था, 'उनकी आँखों में बुद्धिमता की चमक थी और उनका रंग आम आदिवासियों की तुलना में कम काला था। बिरसा एक महिला से शादी करना चाहते थे, लेकिन जब वो जेल चले गए तो वो महिला उनके प्रति ईमानदार नहीं रही, इसलिए बिरसा ने उसे छोड़ दिया।'ईसाई अध्यापक ने मुंडा जनजाति पर टिप्पणी की तो छोड़ी पढ़ाई
आदिवासी नायक बिरसा के ईसाई धर्म छोड़ने को लेकर भी एक किस्सा मशहूर है। कहा जाता है कि उनके एक ईसाई अध्यापक ने क्लास में मुंडा लोगों के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। बिरसा ने विरोध में अपनी कक्षा का बहिष्कार कर दिया। उसके बाद उन्हें कक्षा में वापस नहीं लिया गया और स्कूल से भी निकाल दिया गया। फिर बिरसा ने भी ईसाई धर्म छोड़ दिया और अपने ही मत का प्रचार करने लगे। बिरसा मुंडा को अंग्रेज बड़ी चुनौती मानते थे और उन पर 500 रुपये का इनाम घोषित किया था। @रिपोर्ट अशोक झा
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