पूर्वांचल का प्रवेश द्वार सिलीगुड़ी। उत्तर बंगाल समेत सीमांचल क्षेत्र में बड़ी संख्या में मिथिलांचल के लोग बसे हुए हैं। जहां यह रहते है वही पर अपनी परंपरा को निभाना नहीं भूलते। इनके द्वारा छठ के बाद अब सामा चकवा का
पर्व मनाने की तैयारी हो रही है। भाई बहन के प्रेम का त्योहार सामा चकेवा मिथिला का प्रसिद्ध लोक पर्व है। पर्यावरण, पशु-पक्षी और भाई बहन के स्नेह संबंधों को गहरा करने का प्रतीक है। भाई और बहन के प्यार का त्योहार सात दिनों तक चलता है। इस सामा चकेवा त्योहार की शुरुआत कार्तिक शुक्ल पक्ष के सप्तमी से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा की रात तक चलता है। इस वर्ष 26 नवंबर को दोपहर 03 बजकर 52 मिनट से हो रही है। इस तिथि का समापन अगले दिन 27 नवंबर को दोपहर 02 बजकर 45 मिनट पर होगा। उदयातिथि को देखते हुए कार्तिक पूर्णिमा 27 नवंबर 2023 को मनाई जाएगी।बता दें कि कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को महिलाएं सामा चकेवा बनाती हैं। इस पर्व को मनाने के दौरान महिलाएं लोक गीत गाती हैं और अपने भाई के मंगल कामना के लिए भगवान से प्रार्थना करती हैं। गांव में इस पर्व को बहुत धूमधाम से मनाया जाता है, चलिए जानते हैं इस सामा चकेवा के बारे में विस्तार से। सामा-चकेवा मिथिला का प्रसिद्ध लोक पर्व है। यह पर्व प्रकृति प्रेम, पर्यावरण संरक्षण, पक्षियों के प्रति प्रेम व भाई-बहन के परस्पर स्नेह संबंधों का प्रतीक है। कार्तिक शुक्ल सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा की शाम ढलते ही महिलाएं सामा का विसर्जन करती हैं। कार्तिक शुक्ल सप्तमी से आरंभ हुए भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक लोक पर्व सामा-चकेवा का कार्तिक पूर्णिमा की चांदनी में विसर्जन होगा। व्यापिनी पूर्णिमा में बहनें भाइयों को धान की नयी फसल का चुरा व दही खिला कर सामा-चकेवा की मूर्तियों को नदी- तालाबों में विसर्जित करेंगी। मिथिला का यह सामा त्योहार बडा ही रमणीक होता है।
स्कंद पुराण के इस निम्न श्लोक के आधार पर मनाया जाता है यह पर्व: यह खास कर यहां के महिला समाज का ही पर्व है. जो स्कंद पुराण के इस निम्न श्लोक के आधार पर मनाया जाता है.द्वारका में कृष्ण की पुत्री समति अत्यंत सुंदर थी। सांबा की बहन सामा की मां जांबाबती मंगलमय हैं। इस प्रकार कृष्ण के शाप से पृथ्वी का पक्षी सामा बन गया। वह चक्रवाक के नाम से जाना जाता था और अपनी प्रेमिका के साथ जंगल में था। उक्त पुराण में वर्णित सामा की कथा का संक्षिप्त वर्णन इस तरह है कि सामा नाम की द्वारिकाधीश श्री कृष्ण की एक बेटी थी, जिसकी माता का नाम जाम्बवती था और भाई का नाम सम्बा तथा उसके पति का नाम चक्रवाक था। चूडक नामक एक सूद्र ने सामा पर वृंदावन में ऋर्षियों के संग रमण करने का अनुचित आरोप श्री कृष्ण के समक्ष लगाया, जिससे श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो सामा को पंक्षी बनने का शाप दे दिया और इसके बाद सामा पंक्षी बन वृंदावन में उडने लगी। उसके प्रेम मे अनुरक्त उसका पति चक्रवाक स्वेच्छा से पंक्षी का रूप धारण कर उसके साथ भटकने लगा। शाप के कारण उन ऋर्षियों को भी पंक्षी का रूप धारण करना पड़ा। सामा का भाई साम्ब जो इस अवसर पर कहीं और रहने के कारण अनुपस्थित था और लौट कर आया तो इस समाचार को सुन बहन के बिछोह से दुखी हुआ। परंतु श्रीकृष्ण का शाप तो व्यर्थ होनेवाला नहीं था। इसलिए उसने कठोर तपस्या कर अपने पिता श्रीकृष्ण को फिर से खुश किया और उनके वरदान के प्रभाव से इन पंक्षियों ने फिर से अपने दिव्य शरीर का धारण कर अपने धाम को प्राप्त किया। इस अवसर के निम्य आगे दिए जानेवाले वरदान के रूप वचन के अनुसार स्वजन के अल्पआयु होने की आशंका और उसकी आयु वृद्धि की कामना से मिथिला में महिलाओं के द्वारा इस सामा की पूजा का प्रचार हुआ, जो अब तक चली आ रही है। नये खड के तिनकों से बनता है वृंदावन, सन से बनती है चूड़क की मूंछ : यहाँ चुडका और वृन्दावन की मूर्ति भी है। इस प्रकार सप्त ऋषियों को विभिन्न जातियों से अलंकृत किया गया। महिलाएं नये खड के तिनकों से वृंदावन तथा लंबी लंबीं सन की मूंछों से युक्त चूडक का प्रीतक उसकी प्रतिमा भी बनाई जाती है, जो वृंदावन और चुगला कहलाते हैं. सबके अंत में दो विपरित दिशाओं की ओर मुखातिब दो पंक्षियों की मूर्तियां एक ही जगह बैठी बनाई जाती है, जो बाटो-बहिनो कहलाती है। यह सामा और उसके भाई का प्रतीक माना जाता है जिन्हें भाग्यचक्र ने विमुख कर दिया था। इसके अतिरिक्त सामा चकेबा की भोजन सामग्री को रखने के लिए उपर एक ढंकन के संग मिट्टी की एक छोटी हंडी के आकार का बर्तन भी बनाया जाता है, जिसे सामा पौति कहते हैं। जिन्हें महिलाएं अपने हाथों से अनेक रंगों के द्वारा निम्य श्लोक के अनुसार रंगती हैं और जो बड़े ही आकर्षक दिखते हैं। दस दिनों में तैयार करती हैं इन मूर्तियों को महिलाएं: इस अवसर पर यहां की महिलाएं दस दिनों में कुल मूर्तियों को तैयार कर और उन्हें बांस की कमचियों से निर्मित एक प्रकार के डलिये जिसे चंगेरा कहते हैं, उसमें सजाकर पंक्षियों का दाना भोजन नया धान का शीश उसके भोजन के रूप में डाल देती हैं। इसके बाद एकदशी से जब चंद्र की चांदगी कुछ प्रकाशयुक्त हो जाती है, तो आगे दिए गए वचन के अनुसार अपने अपने चंगेरों को माथे पर रख जोते हुए खेतों में हर रात अपनी सखियों के संग जा और चंगेरों को खेतों में रख समायानुकूल सामा गीत तथा अनेक तरह के हास्य और विनोदपूर्ण क्रियाओं द्वारा सामा की अर्चना करती है। खेतों और मैदानों में, महिलाएं उत्सव के कमल के कपड़े पहनती हैं। यह सब किसी बर्तन में रखकर अपने सिर पर रख लें । रिश्तेदारों के घर सौगात के रूप में भेजी जाती है सामा की मूर्तियां: सामा त्योहार के समय आपस में अपनी अपनी रिश्तेदारों के घर सौगात के रूप में कुछ सामा चकेबा की मूर्तियां चुगला वृंदावन और चूडा तथा गूड चंगेरा में रख भेजना यहां की महिलाएं आवश्यक मानती हैं. जिनमें उच्च या निम्य वर्ग का भेद नहीं दिखता है और आपस में प्रेम बढ़ाने की भावना निहित है. इस त्योहार की अंतिम रात पूर्णमासी को मिथिला में जब महिलाएं अपने अपने आंगन मे अर्धरात के समय चौमख दीप से प्रकाशित और मिट्टी की मर्ति रिश्तेदारों के घर सौगात के रूप में भेजी जाती है सामा की मूर्तियां।सामा त्योहार के समय आपस में अपनी अपनी रिश्तेदारों के घर सौगात के रूप में कुछ सामा चकेबा की मूर्तियां चुगला वृंदावन और चूडा तथा गूड चंगेरा में रख भेजना यहां की महिलाएं आवश्यक मानती हैं। जिनमें उच्च या निम्य वर्ग का भेद नहीं दिखता है और आपस में प्रेम बढ़ाने की भावना निहित है। इस त्योहार की अंतिमरात पूर्णमासी को मिथिला में जब महिलाएं अपने अपने आंगन मे अर्धरात के समय चौमुख दीप से प्रकाशित और मिट्टी की मूर्ति तथाअन्य वस्तुओं से सुसज्जित चंगेरों को माथे पर धारण किए मधुर स्वरसे लोक गीत गोते पंक्तिबद्ध हो निकली हैं और जोते हुए खेतों में पहुंच अपने-अपने चंगेरों को आगे रख मंडलाकार बैठ विनोदयुक्त हंसी की किलकारियों से आकाश को गुंजित करने लगती हैं तो उस समय ऐसा रमणीक तसवीर मालूम पडता है मानो चंद्रमा अनेक रूप धारण कर जमीन पर उतर आया हो और मधुर कंठों से निनादित वह लोकगीत सुन आनंद के मारे अपने पूर्ण कलाओं से युक्त हो प्रसंन्नता से हंस रहा हो, जिसकी हंसी प्रकाशित चांदनी के रूप में जमीन पर बिखर गई हो।आंचल शीरी पर रख आपस में एक दूसरे से बदलती हैं बहनें:
इस समय सामा खेल के अवसर पर प्रत्येक महिला एक निश्चित मंत्र उच्चारण के संग शीरी सामा को अपने अपने आंचल के छोडों पर रख आपस में एक दूसरे से बदलती हैं, जिसका तात्यपर्य अपने प्रियजनों की आयु को परस्पर आदान प्रदान कर प्रत्येक पुरूष को लंबी आयुवाला बनाने का रहता है. इस बदलोबदल का दूसरा तात्यपर्य यह भी रहता है कि प्रत्येक पुरूष आपस में एक दूसरे का भाई बना रहे। इस तरह इस कार्य में एकता की भावना छिपाई गई है। इसी लिए बिना भाईवाली बहन के संग यह बदलाव करना महिलाओं के लिए वर्जित होता है। काफी देर तक विनोद पूर्ण लोकगीत के संग हर्षयुक्त खेल खेलने के बाद अंत में ये महिलाएं वृंदावन के तिनकों में आग लगा कर एक तय मंत्रों के साथ चुगला के
मूंछों को जला देती हैं और इसके बाद उन अर्ध जली मूंछोंवाली मूर्तियों को उनके नीचे लगी लकडियों के सहारे उन जोते हुए खेतों में खडा कर गाड देती हैं, ताकि उनकी दुर्दशा दुनिया के लोग देख सके और चुगली करने की आदत छोड़ दे। मूर्तियों को तोड़-फोड़ कर खेतों छोड़ घर लौटती है बहनें। इसके बाद ये महिलाएं अपने अपने सामा चकेबा की मूर्तियों को तोड़-फोड़ कर उन खेतों में डाल अपने अपने घर की ओर रवाना हो जाती हैं और रास्ते में बाटो बहिनो की मूर्तियों को रखते हुए अपने घर को पहुंच बचा कर रखे हुए बाकी सामा को भाई के हाथों तोडबा देती हैं। इन सब बातों का यह तात्पर्य है कि इन सब मूर्तियों के रूप में श्रीकृष्ण की बेटी सामा शाप मुक्त होकर दिव्य शरीर धारण कर बाट जोहते हुए अपने भाई के पास फिर से अपने धाम को पहुंच गई और चूडक जिसने चुगली कर सामा पर कलंक लगाया था वृंदावन के संग जला कर राख बना दिया गया, ताकि उस प्रकार के लोगों का नामोनिशान मिट जाए।
सामा खेल में छुपा है कुछ धार्मिक तात्पर्य: मिथिला के इस सामा खेल में कुछ धार्मिक तात्पर्य भी छुपा है. वह यह है कि जैसे ये महिलाएं यह सामा खेलने के लिए कितने मेहनत से तरह तरह से सुंदर मूर्तियों का अपने हाथों से निर्माण तथा रंग रोगन कर खेल के अंत में उन्हें अपने और अपने भाई के हाथों तोड़ देती हैं और दूसरे साल फिर से उसका निर्माण करती है, उसी तरह भगवान अपने मनोरंजन के लिए अपने हाथों से सुंदर से सुंदर वस्तुओं का निर्माण कर जमीन पर सृष्टि की रचना करता है और अपने ही इच्छानुसार अपने हाथों उसे नष्ट भी करता है. अर्थात यह सृष्टि अनित्य है। इन सब कारणों से मिथिला में यह सामा का त्योहार प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। इसी से ज्ञात होता है कि पौराणिक युग से ही मूर्तियों पर चित्रण करने की कला यहां की महिलाओं के संग चली आ रही है, जो इस समय भी लोक चित्रकला के रूप में प्रचलित है। आज यह बंगाल में भी प्रसिद्धि पाने लगा है। @रिपोर्ट अशोक झा
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