कोलकाता: बंगाल में जयनगर के बामुनगाची में टीएमसी नेता की हत्या के बाद तनाव बरकरार है। वहीं घटनास्थल की ओर जा रहे माकाप नेताओं को पुलिस ने रोक लिया। इस दौरान दोनों के बीच में धक्का-मुक्की भी हुई। बंगाल में राजनीतिक हिंसा मानो वहां की संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है। ऐसा कोई चुनाव नहीं होता, जिसमें बड़े पैमाने पर हिंसा नहीं होती। चुनाव की घोषणा होने के साथ ही हिंसा का दौर शुरू हो जाता है और चुनाव के बहुत बाद तक चलता रहता है।
अब तो लगता है कि वहां राजनीतिक वर्चस्व के लिए हिंसा एक प्रमुख औजार बन गया है। पहले यह आरोप भाजपा के द्वारा लगाया जाता था अब यह आम जनता समझने लगी है। ऐसा होता रहा तो लोग राजनीति से खुद को दूर कर लेंगे।चौबीस परगना जिले में तृणमूल कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की हत्या और उसके बाद भीड़ द्वारा एक हमलावर को पीट-पीट कर मार डालना तथा कई घरों में तोड़फोड़ और आगजनी उसी सिलसिले की एक कड़ी है। जिस व्यक्ति की हत्या कर दी गई, वह तृणमूल कांग्रेस की क्षेत्रीय इकाई का अध्यक्ष था। उसकी पत्नी पंचायत की प्रधान है। अब तृणमूल इस हत्या के पीछे माकपा और भाजपा समर्थित गुंडों का हाथ बता रही है। हर हिंसा के बाद इसी तरह आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं, मगर इस पर रोकथाम का कोई पुख्ता इंतजाम नजर नहीं होता। राज्य सरकार कुछ फौरी कार्रवाइयों के अलावा प्राय: हाथ पर हाथ धरे बैठी देखी जाती है। यही वजह है कि वहां पूरे साल राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हिंसा और प्रतिहिंसा करते पाए जाते हैं। इसकी वजहें भी छिपी नहीं हैं। इस साल जुलाई में वहां पंचायत चुनाव हुए, जिसमें बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। उसमें राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार बारह लोग मारे गए। हालांकि मरने वालों की वास्तविक संख्या इससे अधिक बताई जाती है। इसके पहले हुए विधानसभा चुनावों में भी व्यापक हिंसा हुई थी। उसके पहले भी हर चुनाव में बड़े पैमाने पर हिंसा होती रही है।उन्हीं घटनाओं से सबक लेते हुए पिछले पंचायत चुनाव में कड़े सुरक्षा इंतजाम किए गए थे। बड़ी तादाद में केंद्रीय सुरक्षा बलों को तैनात किया गया, मगर फिर भी बाकी चुनावों की तुलना में पिछली बार अधिक लोग मारे गए। यों तो देश का शायद ही कोई राज्य हो जहां चुनावों के दौरान राजनीतिक हत्याएं नहीं होतीं, मगर राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार इस मामले में पश्चिम बंगाल सबसे आगे है। वहां हर साल औसतन बीस राजनीतिक हत्याएं होती हैं। जाहिर है, यह सिलसिला हर समय वहां बना रहता है। दरअसल, पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दल जनाधार मजबूत बनाने के लिए खुद अपने कार्यकर्ताओं को हिंसक गतिविधियों के लिए प्रोत्साहित करते देखे जाते हैं। हर गांव-कस्बे में दलगत आधार पर खेमेबंदी है। खेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर क्लब बने हुए हैं, जिन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। इस तरह वहां सदा राजनीतिक वर्चस्व के लिए संघर्ष चलता रहता है। एक समूह दूसरे के खिलाफ हिंसा करता है, तो दूसरा भी प्रतिहिंसा पर उतर आता है। फिर, एक बड़ा कारण वहां की पंचायतों की अतिरिक्त सक्रियता है। वे अपने इलाके में चल रही व्यावसायिक गतिविधियों को नियंत्रित करती हैं। रेत, कोयला आदि के अवैध खनन भी उनके संरक्षण में होते बताए जाते हैं। इस तरह पंचायतों पर कब्जा जमाने के लिए संघर्ष बना रहता है। अक्सर राज्य की सत्ता पर काबिज दल के कार्यकर्ता ही पंचायतों में भी होते हैं, इसलिए उन्हें सत्ता का स्वाभाविक संरक्षण प्राप्त होता है। ऐसी हिंसक घटनाओं पर राज्य प्रशासन का पक्षपातपूर्ण रवैया भी छिपा नहीं है। ममता बनर्जी बेशक स्वच्छ प्रशासन की बात करती हों, पर वे भी अपने उपद्रवी कार्यकर्ताओं को अनुशासित करती कभी नहीं देखी गई। बिना दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के वहां हिंसा का सिलसिला नहीं रुक सकता। @ रिपोर्ट अशोक झा
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