आज दीपावली का दूसरा पर्व छोटी दीपावली का दिन है। दीपावली में जहां धन की देवी मां लक्ष्मी की आराधना की जाती है, वहीं छोटी दीपावली की मध्य रात्रि में कुछ जगह पर मां काली की विशेष रूप से पूजा करने का विधान है।
इसी कारण इसे काली चौदस भी कहा जाता है। प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के दिन काली चौदस मनाया जाता है। आज 11 नवंबर 2023 के दिन शनिवार को काली चौदस है। आइये जानते हैं काली चौदस के दिन मां काली की पूजा करने के पीछे क्या मान्यता है। कार्तिक की अमावस्या मां काली पूजा के लिए विशेष: आज छोटी दीपावली के दिन मध्य रात्रि को अमावस्या तिथि लग जाएगी और कार्तिक मास की यह अमावस्या तिथि साल की सबसे घनी अमावस्या की तिथियों में से एक होती है। मां काली की साधना के लिए धार्मिक ग्रंथों में अमावस्या की तिथि को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। कार्तिक मास की अमावस्या साल की सबसे घनी अमावस्या होने के कारण यह मां काली की पूजा अर्चना करने के लिए और भी महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस लिए इसे काली चौदस कहा जाता है।
काली चौदस का महत्व: मां काली देवी शक्तियों में से एक हैं। इनका स्वभाव उग्र है और इनकी उपासना से शत्रु बाधा से मुक्ति मिलती है। मान्यता है कि काली चौदस में मां काली की पूजा करने से जीवन में चल रही सभी परेशानियों से मुक्ति मिलती है, रुके हुए कार्य पूर्ण होते हैं और जीवन में नकारात्मक विचारों से छुटकारा मिलता है। मां काली अपने भक्तों के ऊपर एक भी आंच नहीं आने देती हैं। देवी का यह स्वरूप सबसे शक्तिशाली है। मां काली ने अनेक राक्षसों का वध किया है और सारे देवता इनके आगे नत्मस्तक होते हैं। काली चौदस के दिन जो भी मां की पूजा करते हैं उनकी हर मनोकामना शीघ्र पूर्ण हो जाती है और वह शत्रु बाधा से भी मुक्त हो जाते हैं।
काली चौदस पूजा का शुभ मुहूर्त: काली चौदस - 11 नवंबर 2023 दिन शनिवारकाली चौदस पूजा मुहूर्त - 11 नवंबर की रात 11 बजकर 39 मिनट से 12 नवंबर की रात 12 बजकर 32 मिनट तक।पूजा का कुल समय - 53 मिनट।
मां काली की पूजा के नियम
मां काली की पूजा करने से पहले संकल्प लें।
पूजा स्थल पर मां काली की प्रतिमा रखने से पहले चौकी रखें और उस पर मां काली की प्रतिमा रखें।
उसके बाद हाथ जोड़ें और माता रानी को अक्षत, कुमकुम, रोली, कपूर, हल्दी और नारियल चढ़ाएं।
पूजा के दौरान मां की प्रतिमा के सामनें अखंड ज्योत जरूर जलाएं या हो सके तो एक दीप अवश्य जलाएं।
पूजा के शुभ समय में मां काली के मंत्रों का जाप करें और उनसे हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें। व्यक्ति को कोई सामग्री संग्रहित करने के लिए जैसे बिना टूटे-फूटे अच्छे पात्र की जरूरत होती है, वैसे ही भगवान नारायण की पत्नी लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए अधकचरेपन की प्रवृत्ति से दूर तो रहना ही चाहिए। इस संबंध में स्कन्दपुराण में कहा गया है कि मां लक्ष्मी वाह्यपूजा की अपेक्षा आंतरिक शुचिता पर अधिक प्रसन्न होती हैं. यदि उसका पालन किया जाये, तो बिना किसी टोना-टोटका के अगले एक वर्ष तक उपासक हर दृष्टि से खुशहाल रहेगा. उक्त पुराण के वैष्णव खंड के 110 वें अध्याय में पांच दिवसीय दीपावली पर्व तक पांच निषेधों को जरूर मानने की सलाह दी गयी है, जिसमें जीव हिंसा, परायी स्त्री के प्रति वासनात्मक भाव या संबंध, नशा, चोरी और छल (विश्वासघात)। इन दुष्प्रवृत्तियों से जब व्यक्ति दूर होता है, तब उसी क्षण महालक्ष्मी प्रसन्न हो जाती हैं. व्यक्ति सन्मार्ग पर चलता है. वह अपने जीवन का भौतिक, आध्यात्मिक, मानसिक, सांसारिक लक्ष्य निर्धारित करता है। निरुद्देध्य जीवन की जगह लक्ष्यपूर्ण जीवन जीना ही लक्ष्मी की प्राप्ति का उद्देश्य हो. यदि हम एक ओर सात्विक पूजा करें और दूसरी ओर अपवित्र आचरण, तो माता लक्ष्मी रुष्ट होती हैं. धर्मग्रंथों का कहना है कि लक्ष्मीजी की बड़ी बहन दरिद्र लक्ष्मी हैं, जो नारी की पीठ पर रहती हैं, इसलिए परायी नारी को पीठ की ओर से देखने वाला लक्ष्मी की जगह उनकी बड़ी बहन दरिद्र लक्ष्मी का उपासक हो जाता है, फिर उसके घर-प्रतिष्ठान में दरिद्र लक्ष्मी डेरा डाल देती हैं और वह परेशान तथा विपन्न होने लगता है। त्रिरात्रि का विशेष महत्व : इस पांच दिवसीय दीपावली पर्व पर घर के मुख्यद्वार और आंगन में तिल के तेल का दीपक जरूर जलाना चाहिए, क्योंकि तिल के तेल में लक्ष्मी का वास होता है. धर्म में त्रिरात्रि का विशेष महत्व है, क्योंकि नरक चतुर्दशी को ही भगवान विष्णु ने वामन बन कर राजा बलि से तीन पग जमीन मांगा और तीन दिन में तीनों लोक ले लिया. बलि ने इन तीन दिनों तक धरती पर उत्सव की प्रार्थना की थी. विष्णुजी ने धनतेरस से अमावस्या तक हर वर्ष उत्सव की बलि की प्रार्थना स्वीकार कर ली थी। दीपावली पर्व पर घर के बड़े सदस्यों के सम्मान के साथ पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करना चाहिए, क्योंकि उनकी ही कृपा से जीवन मिला है। इस प्रकार मन की पवित्रता यदि नहीं है, तो महंगे से महंगे सामानों, वस्तुओं से भी पूजा का लाभ नहीं मिलेगा। पांच दिवसीय प्रकाश के इस पर्व का आशय भी पांच ज्ञानेंद्रियों को पवित्रता के दीये में सत-आचरण के तेल और निर्मल मन की बाती से प्रकाशित करने का मुख्य रूप से है।पंच ज्ञानेंद्रियों को करें आलोकित : मनुष्य का मन दृश्य (आंख), गंध (नासिका), स्पर्श (त्वचा), स्वाद (जिह्वा) शब्द (कान) से ही संचालित और प्रभावित होता है. इन्हीं को प्रज्वलित करने का पर्व दीपोत्सव है।
धन्वन्तरि जयंती : धनु+अंतरी का अर्थ अंतर्मन के धनुष को सही-सलामत रखना है. नेत्रों को धनुष कहा गया है. मन को सर्वाधिक प्रभावित करने का काम आंखें करती हैं. लिहाजा इसको सकारात्मकता प्रदान करने का पर्व है यह।
नरक चतुर्दशी (छोटी दीवाली) : शरीर नाड़ियों के जाल से संचालित है. मां के गर्भ से जन्म लेते समय इसी नार से अलग होकर स्वतंत्र जीवन की शुरुआत होती है. इसे सही-सलामत करने के लिए प्राणायाम किया जाता है. इसमें नासिका (नाक) का योगदान है। त्वचा के रोम-छिद्र (बड़ी दिवाली) : रोम छिद्रों से सूर्य और चंद्रमा की किरणें शरीर में प्रवेश करती हैं. यानी असंख्य दीप हैं हमारे शरीर में. यह दिन प्रकृति के संपर्क में रहकर इन्हें ज्योतित करने का संदेश देता है।जिह्वा का दिन अन्नकूट : यह 56 भोग, हर प्रकार के लाभप्रद वस्तुओं के सेवन का दिन. इसी दिन गो-वर्धन पूजा की जाती है. ग या गो इंद्रियों को भी माना गया है। भैया दूज (कान) : प्रेम की शुरुआत मृदुल शब्दों से और युद्ध कठोर शब्दों से। अत: सकारात्मक शब्दों को मस्तिष्क में रखें और नकारात्मक को मिटा देने की सीख देता है यह दिन।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ये कविता आपने भी पढ़ी होगी या कभी सुनी भी होगी लेकिन मैं खुशनसीब हूं कि मुझे यह कविता अटलजी से आमने-सामने सुनने का सौभाग्य मिला।
मैंने उनसे पूछा था कि फिर से दिया जलाएं का आशय क्या है? उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में मेरी ओर देखा और इसी कविता की आगे की पंक्तियां फिर से सुना दीं।
हम पड़ाव को समझे मंजिल,
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल,
वर्तमान के मोहजाल में,
आने वाला कल न भुलाएं,
आओ फिर से दिया जलाएं।
आज अटलजी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी यह अमर कविता हमारे बीच है और मुझे तो लगता है कि जब भी ं या सुनें, एक नई ऊर्जा मिलती है। एक दीपक जिस तरह अपनी छोटी सी रोशनी से घने अंधेरे से भी लड़ने की हिम्मत दिखाता है, वह हिम्मत यह कविता भी पैदा करती है। न केवल अटलजी बल्कि दीपक जलाने को लेकर हरिवंश राय बच्चन की यह रचना भी कम मौजूं नहीं है! उन्होंने लिखा...
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ रागिनी,
तुम आज दीपक राग गाओ,
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ!
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ,
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ!
तो सवाल यह है कि क्या हम कोई बुझा दीपक जलाने की कभी अपने तईं कोई कोशिश करते हैं? आप कहेंगे कि दिवाली के दिन जब कोई दीपक हवा के झोंकों से बुझ जाता है तो आप उसे जरूर फिर से जला देते हैं लेकिन ये तो त्यौहार की बात हुई। असल जिंदगी में क्या वाकई दीपक जलाने की कोशिश करते हैं?
पहली बात तो यह है कि दीपक जलाने का आशय क्या है? इसके लिए हमें दीपक को प्रतीक रूप में देखना होगा। हमारी भारतीय और आध्यात्मिक संस्कृति में दीपक को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। दीपक की लौ को इतना पवित्र माना जाता है कि हम आरती के बाद लौ की गर्मी को अपनी हथेली में समेट कर माथे पर लगाते हैं। इसका मतलब यह है कि इस नश्वर संसार में ज्ञान से बढ़कर कुछ और नहीं है। आप ज्ञान का उजाला जितना अपने भीतर भरेंगे, आपका अंतर्मन उतनी ही उज्ज्वलता से परिपूर्ण होगा। मन उज्ज्वल होगा तो निर्मलता आएगी। निर्मलता आएगी तो जीवन से कटुता समाप्त होने लगेगी। आप निष्पाप हो जाएंगे। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध से लेकर हमारे तमाम ऋषि-मुनियों और धर्म उपदेशकों ने हमें यही संदेश दिया है लेकिन मौजूदा वक्त का दुर्भाग्य है कि हम मन की उज्ज्वलता और निर्मलता को खोते जा रहे हैं। हमारे भीतर का अंधकार हमारे पूरे परिवेश को कालिमा से भर रहा है। नफरत की आंधी बह रही है और बहुत तेज बह रही है। केवल हमारे यहां नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बह रही है। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि मनुष्यता की जड़ें उखाड़ने पर आमादा है नफरत की ये आंधी! मौजूदा वक्त के लिए यह घनघोर चिंता का विषय होना चाहिए। सवाल है कि वाकई कितने लोग चिंतित हैं? आप सोच रहे होंगे कि दिवाली के इस खुशनुमा त्यौहार पर मैं ये क्या बातें करने लगा! जी! इस तरह की बातें करने का यही मौजूं मौका है। दिवाली खुशियों का त्यौहार है और ऐसे में दुनिया के किसी भी कोने में समाज का कोई भी हिस्सा अंधेरी घनी रात में सिसक रहा है तो यह निश्चय ही हमारी चिंता का विषय है। अपनी जिंदगी में तो हमें दीपक जलाना ही चाहिए, हमें दूसरों के लिए खुद को दीपक भी बनाना चाहिए। हमारी संस्कृति की यही विशेषता है और यही विशेषता हमें दुनिया में श्रेष्ठ बनाती है। हम श्रेष्ठ संस्कृति के लोग यदि कुछ नहीं करेंगे तो कौन करेगा? हमारे यहां तो तानसेन जैसे महागायक पैदा हुए जिनके बारे में कहा जाता है कि जब वे राग मेघ मल्हार गाते थे तो बादल बरस पड़ते थे और जब राग दीपक गाते थे तो दीपक जल उठते थे। ऐसी कहानी प्रचलित है कि उस जमाने के बादशाह अकबर उन्हें अपने दरबार में ले गए। एक बार अकबर ने हठ ठान लिया कि वे तानसेन से राग दीपक सुनकर ही रहेंगे। राजहठ के आगे तानसेन को झुकना पड़ा। उन्होंने राग दीपक गाया, दीपक जल भी उठे लेकिन माहौल में इतनी गर्मी पैदा हो गई कि वहां मौजूद सभी लोग जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। उसी तपन ने बाद में तानसेन की जान ले ली! मुङो नहीं पता कि इस कहानी में कितनी सच्चाई और कितनी वैज्ञानिकता है लेकिन संदेश स्पष्ट है कि यदि उजियारा फैलाना है तो दीपक को प्रज्ज्वलित करना होगा और जरूरत पड़े तो खुद की आहुति भी देनी होगी! इसीलिए अटलजी ने लिखा...
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज्र बनाने,
नव दधीचि हड्डियां गलाएं,
आओ फिर से दिया जलाएं! तो इस दिवाली बस इतनी सी गुजारिश है कि हम सब मिलकर जाति, पंथ और धर्म की काली विषमताओं को मनुष्यता के दीपक से उज्जवल कर दें। आप सभी को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं। खासतौर पर अन्नदाता किसानों, मजदूर भाइयों तथा घर से बहुत दूर सीमा पर बिन बुलाए मेहमानों को रोकने में जुटे जवानों और उनके परिवारजनों को बधाई देता हूं। मेरा दिल कह रहा है...
हम दीप से दीप जलाएं,
प्यार के गीत गाएं,
जिसे जो मिल गया
या जिसे जो न मिला
उनके घर भी दीप जलाएं
हम दीप से दीप जलाएं।
@रिपोर्ट अशोक झा
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