- कालीपुजा में देश विदेश से आते है यहां भक्त, पूरी रात होती है पूजा
उत्तर बंगाल में सबसे लोकप्रिय में से एक के रूप में जानी जाने वाली सेवकेश्वरी काली मंदिर (सेवक ) मे इस वर्ष से बली प्रथा पर रोक लगा दी गई है। इसकी शुरुआत काली पूजा से की जायेगी।यह कमेटी और आम सहमति से लिया गया है। सेवक काली मंदिर समिति ने हाल ही में भक्तों के साथ कई बैठकों के बाद यह निर्णय लिया है। मंदिर समिति के उपाध्यक्ष स्नेहाशीष रॉय ने कहा, ''कोर्ट के आदेश के बाद प्रशासन बार-बार बलि रोकने को कह रहा था।' लेकिन मानसिक रूप से कई लोग इसे स्वीकार नहीं कर पाए। हालांकि, सभी से चर्चा के बाद हमने बलि रोकने का फैसला किया है। मंदिर के पुजारी स्वपन भादुड़ी ने कहा, “इसके बजाय, विभिन्न प्रकार की सब्जियों और फलों की बलि दी जाएगी।”अतुल्य भारत वेबसाइट के अनुसार, सेवकेश्वरी काली मंदिर की स्थापना 1730 में हुई थी। यूं तो यह मंदिर 300 साल पुराना है। देवी काली अपनी स्थापना के समय से ही मंदिर की अधिष्ठात्री देवी रही हैं। उनकी वार्षिक पूजा के दिन, भक्त सेवक के पास आते हैं। सिलीगुड़ी शहर से सेवकेश्वरी मंदिर तक देर रात तक बसें चलती हैं। पशु बलि इस पूजा के अनुष्ठानों में से एक थी। मन्दिर खून से भर गया। इस मंदिर में सिर्फ काली पूजा के दिन ही नहीं, बल्कि साल के अन्य समय में भी मन्नतें मांगी जाती थीं। मंदिर समिति के एक सदस्य ने बताया कि पशु बलि रोकने के कोर्ट के आदेश के बावजूद यहां दूर-दूर से श्रद्धालु बलि देने आते हैं। परिणामस्वरूप, पशुओं की बलि की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। हालांकि, फोन से जानकारी दी गई है कि इस साल से और कुर्बानी नहीं दी जा सकेगी। मंदिर परिसर में बलि संबंधी दिशा-निर्देश लगाए गए हैं।
मंदिर समिति सूत्रों के अनुसार काली पूजा के दिन और अगले दिन 35 से 40 बकरों की बलि दी गयी। वर्ष के शेष दिनों की संख्या लगभग 150 है। यहां काली पूजा के अलावा अमावस्या, पूर्णिमा के साथ-साथ शनिवार और मंगलवार भी मनाया जाता था। मंदिर समिति के उपाध्यक्ष ने कहा, हालांकि, बलि बंद होने पर भी मां के नाम पर बकरे या अन्य जानवर की बलि दी जा सकती है। सेवक काली मंदिर का निर्माण सिंचाई विभाग के कर्मचारी मैनागुड़ी निवासी नीरेन सान्याल ने कराया था। जहां अब केंद्रीय जल आयोग का कार्यालय है, वहां कभी सिंचाई विभाग हुआ करता था। कहा जाता है कि यहां काम करते समय नीरेन सान्याल को देवी के दर्शन का स्वप्न आया था। उस सपने के बाद उन्होंने एक पत्थर की मूर्ति बनाकर पूजा शुरू कर दी। मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगी। वर्तमान मंदिर अतुल्य भारत वेबसाइट पर 'धार्मिक पर्यटन स्थल' के रूप में सूचीबद्ध है। मालूम हो कि मंदिर की स्थापना के समय से ही मंदिर में पशु बलि होती आ रही है। हालाँकि, 1976 में मंदिर समिति के गठन के बाद से, समिति द्वारा किसी भी वर्ष बलिदान नहीं दिया गया है। वर्तमान में तीन पुजारी मुख्य रूप से पूजा से जुड़े हुए हैं। ये हैं स्वपन भादुड़ी, नंदा गोस्वामी और लक्ष्मण भादुड़ी। तपन गोस्वामी पूजा संग्रह और मां के भोग से भी जुड़े हुए हैं। उनमें से कोई भी इस बात से नाराज़ नहीं है कि बलि बंद कर दी गई है। @रिपोर्ट अशोक झा
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