लिद्दर लव
हमारा अगला पड़ाव था पहलगाम। मार्तंड (सूर्य ) मंदिर के बाद सारथी आसिफ के घर में हुई खातिरदारी का आनंद उठाया । आसिफ के अब्बू का भी बहुत इसरार था कि हम खाना खा कर जाएँ पर समय कम होने से ऐसा हो नहीं सका। उनके बेटे के ब्याह में आने का वादा कर हम पहलगाम की ओर चल पड़े। अचानक ही जैसे एक हल्के-दूधिया पानी की एक धारा हमारे साथ हो ली। कहीं शांत, कहीं शोर मचाती, उफनाती और कहीं पतली सी। पता चला इसका नाम ‘लिद्दर’ है। लेकिन पहलगाम पहुंचते ही पता चला कि आप यहां अपनी टैक्सी से नहीं घूम सकते । यानी जो गाड़ी हमने अपनी पूरी यात्रा के लिए ली थी , वो अब काम नहीं आएगी। आगे घूमना है तो दूसरी टैक्सी लेनी होगी। यानी पहलगाम के पहलवानों की टैक्सी। इन लोगों ने बाकायदा यहां यूनियन बना रखी है और अपनी श्रद्धा से आस- पास की जगहों के रेट तय कर रखे हैं। मजबूरी थी। टैक्सी यूनियन की शरण में जाना पड़ा और दूसरी टैक्सी ली गई। अब हम जा रहे थे प्रसिद्ध चंदनवाड़ी की ओर। इस बार हमारा ड्राइवर सारथी एक किशोर था जिसका ताज़ा ताज़ा ड्राइविंग लाइसेंस बना था। रास्ते एक घुमावदार कोणों में उसने हमें अपने खूब जौहर दिखाए। कुछ समझाया तो मुंह में तम्बाकू के साथ हमें समझाने की कोशिश की। खैर रास्ते की खूबसूरती को निहारते-सराहते जा रहे थे। लिद्दर नदी साथ चल रही थी और हमें कई बार रास्ते में झरने के रूप में तो कहीं झील सरीखी दिखी थी। पहलगाम की खूबसूरती का कोई जवाब नहीं है । इसी वजह से होटलों के रेट अनाप शनाप । जम्मू - कश्मीर टूरिज्म के हट बहुत शानदार लेकिन दो महीने पहले से वो आरक्षित थे। हाल कम्युनिटी सेंटर का था और वो भी उपलब्ध नहीं था। रास्ते भर में अमरनाथ जी के जाने के बीच में यात्रियों के लिए बने भव्य इंतजामों की हम निहारते गए। अब तक की यात्रा में हमें जगह जगह - ‘जम्मू कश्मीर में अमरनाथ जी के यात्रियों का स्वागत है’ के कई बोर्ड दिखे। यात्रियों की सुविधा के लिए कई स्थायी मार्ग, रिहायशी केंद्र, सहायता शिविर, स्वास्थ्य शिविर भी दिखे थे । पैदल चलने वालों के लिए सड़क के किनारे अस्थायी कारीडोर भी बनाया गया था जिसे अब हटाया जाने लगा था। सुरक्षा पूरी। खैर हमारी एक मंजिल चंदनवाड़ी आ गई और यही था श्रद्धा का एक और केंद्र और थी वह सीढ़ी -मार्ग जो अमरनाथ जी की गुफा के लिए था। लगा शायद इस जन्म में अमरनाथ जाना तो होगा कि नही होगा, इसलिए हमने उस सीढ़ी की माटी को प्रणाम किया।
चंदनवाड़ी में अधिक रुकने का कुछ अर्थ न देख हम लौट पड़े और आ गए ' बेताब घाटी'। नाम कुछ अजीब लगा होगा शायद। दरअसल यह लिद्दर घाटी ही है जहां वर्षों पहले फिल्म बेताब की शूटिंग हुई थी। तब से इसका नाम ‘बेताब घाटी’ रख दिया गया है। हालांकि यह अब अपने प्राकृतिक स्वरूप में नहीं है और इसे टूरिज़्म के नजरिए से काफी बदल दिया गया है पर बदलाव अच्छा है, निस्संदेह। 1983 में आई जावेद अख्तर की लिखी यह फिल्म धर्मेन्द्र ने अपने बेटे सनी द्योल के लिए बनाई थी और ' जब हम जवां होंगे ..और तुमने दी आवाज..' ऐेसे हिट गाने देने वाले शब्बीर कुमार यहीं से आगे बढ़े थे और अपनी जिंदगी भी ढर्रे पर लगी थी । पहली फिल्म भी हमने उनके साथ देखी थी जिनके साथ हम बेताब घाटी में थे । काफी देर रहे यहां और यहां क्या पहलगाम में आपको कई सेल्फी प्वाइंट मिल जाएंगे।
पहलगाम में वापस आकर हम अपने होटल के लिए निकल पड़े जो मुख्य शहर से काफी पीछे राफ्टिंग पॉइंट के पास था। लिद्दर नदी यहाँ भी थी और थी उसके किनारे उग आए बेशुमार होटलों की कतार। हम शहर से इतनी दूर आ गए थे कि एक बार होटल में सामान धरने, चाय -पानी के बाद कहीं जाने का मन नहीं रह गया था। वैसे बताते हैं कि पहलगाम में घोड़े की सवारी खूब होती है आस पास के टूरिस्ट स्थानों के लिए जिसमें ‘मिनी स्विट्ज़रलैंड’ खास है। .. फिर कभी सही। होटल में सेब के पेड़ों के साथ हमने शाम और रात गुजारी। (देश के वरिष्ठ पत्रकार अकु श्रीवास्तव की कलम से)
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