सिलीगुड़ी: बंगाल के जंगल महल (अब कुछ भाग पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में) के आदिवासी जमीनदारों, सरदारों, पाइकों और किसानों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जल, जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1766 में जो आन्दोलन आरम्भ किया, उसे 'चुआड़ विद्रोह' कहते हैं। सन सत्तावन की क्रांति से पहले भी देश में कई आंदोलन हो चुके थे। हालाँकि ये बात अलग है कि उन विद्रोहों के बारे में इतिहास की किताबों में पन्ने बेहद कम मिले। बँगाल मुख्य रूप से इसमें भागीदारी कर रहा था। ईस्ट इंडिया कंपनी ऐसी करूर एवं दमनकारी नीतियाँ लेकर आ रही थी जिससे किसानों, मजदूरों की जमीन, जंगल सब दाँव पर लगते जा रहें थे। इसी के साथ सरकार के ख़िलाफ़ रोष भी बढ़ता जा रहा था बात 1766-69 ई. की है, जब बँगाल के जंगलमहल में रहने वाले आदिवासियों, किसानों, जमीदारों आदि में सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया। इतिहास में इसे चुआर विद्रोह के नाम से जाना गया।
दरअसल, चुआर विद्रोह की एक वजह और भी थी। चुआर जंगलमहल जिले की एक छोटी जाति थी जो अक़सर जंगलों से कुछ पशु-पक्षियों का शिकार करके, कुछ खेती बाड़ी या फिर जंगलों से मिलने वाली चीजों को बेचकर अपना गुजारा किया करते थे। इन्हीं में से कुछ लोग आस-पास के जमीदारों के यहाँ सिपाही यानी पाइक के तौर पर कार्य करने लगे। इस तरह, चुआरों को कुछ जमीनों का मालिकाना हक़ भी मिल गया। उधर, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी षडयंत्रकारी रूप से जमीन और जंगल हड़पने की गतिविधियों को चला रही थी। उन्होंने सभी पाइकों को हटा दिया और उनकी जगह नए सिपाही भर्ती कर लिए। इसके अलावा, कंपनी ने इस क्षेत्र से मालगुजारी भी लेना शुरू कर दिया। अपनी पाइकाना जमीन, रोजगार आदि सब चले जाने से चुआर समुदाय दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो गया। ऊपर से बँगाल में अकाल भी पड़ चुका था। ऐसे में भी ब्रिटिश सरकार ने भारी कर वसूलना और किसानों, मजदूरों का शोषण करना जारी रखा। जब सरकार की तरफ़ से कोई राहत नहीं मिली, तब आख़िरकार भूमिज जनजाति समुदाय ने सरकार के ख़िलाफ़ क्रांति का बिगुल फूंक दिया। जब फ़िरंगियों ने अपने मुख़बिरों से इनके बारे में पता करवाया तो उन्होंने प्रदर्शनकारियों को चुआर यानी नीची जाति के लोग कहा। इस तरह अपने अस्तित्व और सम्मान की लड़ाई के लिए शुरू हुआ इस विद्रोह का नाम चुआर विद्रोह हो गया। चुआर विद्रोह में पाइक, किसान, कुछ जमीदार, मजदूर शामिल थे। इन सभी की साझेदारी से विद्रोह की लपटे बेहद उग्र हो चुकी थी। रघुनाथ महतो, जगन्नाथ पातर, श्याम गंजम, मोहन सिंह, लाल सिंह, सुबल सिंह, दुर्जन सिंह आदि इस आन्दोलन के बड़े नाम साबित हुए। इस दौरान, रघुनाथ महतो के द्वारा दिया गया फ़िरंगियों के ख़िलाफ़ नारा बड़ा प्रसिद्ध हुआ। नारा था अपना गाँव अपना राज, दूर भगाओ विदेशी राज।' लगभग तीनदशक से भी ज़्यादा लंबे समय तक चलने वाला ये आन्दोलन 18वीं सदी के अंत में चरम पर पहुँच गया था। ऐसा तब संभव हुआ जब मिदनापुर, घाटशिला, घाटशिला के चुआर भी इसमें शामिल हो गए। बस फिर क्या था, फ़िरंगियों के पैरों तले जमीन खिसकने लगी। इस समय के दुर्जन सिंह और उनके सहयोगी बेहद आक्रामक हो चुके थे। आख़िरकार, लेफ्टिनेंट गुडयार, नन, कैप्टेन फोरबिस की दमनकारी कोशिशों के बाद विद्रोह का रंग तब फ़ीका पड़ने लगा, जब कुछ लोगों ने समर्पण कर दिया और कुछ लीडर मारे गए। जमीन, जंगल और आत्म-सम्मान के लिए शुरू हुआ चुआर विद्रोह इतिहास में इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये पहला ऐसा आंदोलन था जिसने लंबे समय तक फ़िरंगियों की नींद उड़ा दी थी। @रिपोर्ट अशोक झा
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