आज सवेरे कलकत्ता से आशीष का फोन आया और मैंने तपाक से कहा शुभ-विजय... हमेशा की तरह उत्साह में रहने वाले आशीष ने धूमिल स्वर में प्रतिउत्तर दिया ‘शुभ-विजय’। यह सुन कर हृदय धड़का... मन थोड़ा घबराया और जब आशीष ने कहा, भइया नहीं रहे तो अचानक मन कहीं अज्ञात से सन्नाटे में बैठ गया। अपना भाई कृष्णा कुमार शाह नहीं रहा... जनसत्ता का अपना सहयोगी सहकर्मी कृष्णा नहीं रहा। कृष्णा का छोटा भाई आशीष हमेशा हमारे सम्पर्क में रहा, मेरे भी सगे छोटे भाई की भूमिका में रहा। आज भी आशीष ने कृष्णा का पार्थिव शरीर श्मशान के लिए विदा होने के पहले मुझे सूचना देने का कर्तव्य निभाया। सब कुछ ठीक था। दुर्गा अष्टमी के दिन सब भाई परिवार आपस में मिले थे। दुर्गा पूजा की खुशियां बांटी थीं। नवमी की शाम को कृष्णा की तबीयत खराब हुई, अस्पताल में भर्ती हुआ और शरीर में वापस नहीं लौटा। दशमी को मां दुर्गा की विदाई के पहले ही कृष्णा रवाना हो गया। शास्त्रज्ञ इस मृत्यु को पुण्य-निर्वाण बताते हैं। कृष्णा के लिए उसका जाना पुण्य-निर्वाण भले ही हो, हमारे लिए तो यह अत्यंत दुखदाई है।
अखबार में काम करते हुए भी कृष्णा की यादें बार-बार सामने तस्वीर की तरह आकर खड़ी हो जाती हैं। मैं जनसत्ता के दिनों में लौट जाता हूं और कृष्णा के साथ बिताए वो सुनहरे दिन फिर से हरे हो उठते हैं। जनसत्ता के कलकत्ता संस्करण के लिए चुने जाने के बाद जिस दिन मुझे ज्वाइन करना था, उस दिन दफ्तर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी। उत्तरी कलकत्ता के अहिरी टोला स्थित जनसत्ता के दफ्तर पहुंचा तो समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह ने मेरी ज्वाइनिंग ली, मुझे चाय पिलाई और मुझे आदेश दिया, ‘आपको क्राइम, इन्वेस्टिगेशन और सेना बीट दी गई है। आप फौरन लाल बाजार चले जाएं।’ मैंने हां में सिर तो हिलाया, लेकिन मेरी समझ में नहीं आया कि समाचार संपादक मुझे बाजार जाने को क्यों कह रहे हैं। दफ्तर के बाहर निकल कर एक स्थानीय सहकर्मी मन्ना से पूछा तब पता चला कि लाल-बाजार कलकत्ता के पुलिस मुख्यालय को कहते हैं। खैर, उस दिन लाल-बाजार और राइटर्स बिल्डिंग (सचिवालय) वगैरह से होता हुआ दफ्तर पहुंचा और खबरें लिखने कम्प्यूटर पर बैठ गया। खबरें काफी थीं, रिपोर्टिंग डेस्क पर अन्य सारे रिपोर्टर काम में व्यस्त थे। काफी देर बाद अचानक ध्यान गया कि पूरा डेस्क खाली हो गया है। सारे रिपोर्टर जा चुके हैं। एक भारी आवाज कान में गई, 'कहां जाएंगे..? अब तो 12 से ज्यादा बच चुके हैं।‘ मैंने घड़ी देखी तो मध्य रात का करीब सवा बारह बज रहा था। मैंने कहा, मैं तो कुछ जानता ही नहीं। आते ही मुझे रिपोर्टिंग के लिए भेज दिया गया। अब यहीं दफ्तर में ही सो जाऊंगा। उस भारी सी आवाज वाले कृष्णा कुमार शाह ने अपना परिचय दिया, मेरा परिचय लिया और कहा, 'भाई देखो, यह कलकत्ता है, महानगरों में भी महानगर है। यहां कोई किसी का नहीं। और अगर हो भी तो कहां रखे! अब देखो न, मेरे चार भाई, मेरे माता-पिता, मेरी पत्नी और दो बच्चे दो छोटे कमरे में रहते हैं।' मैंने कृष्णा से कहा, मेरे लिए परेशान न हों, मैं यहीं दफ्तर में रह लूंगा और कल देखूंगा। कृष्णा ने मुझसे पूछा, ‘मेरे घर के पास मेरे परिचित की छोटी सी दुकान के आगे फुटपाथ पर छोटी सी जगह है, क्या तुम वहां सो लोगे? खाना हमलोग घर पर खा लेंगे।‘ कृष्णा ने साथ चलने की जिद की, कहा, ‘अब तो होटल वगैरह भी बंद हो गए होंगे। बिना खाना खाए तो मैं सोने नहीं दूंगा।’ इस बातचीत में करीब 15-20 मिनट और खप गया था। कृष्णा के प्रेम और अधिकार से भरे इस बुलावे पर मैं उसके साथ चल पड़ा। तब मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे। कृष्णा के घर पर लैंड लाइन नहीं था। तब सामान्य अर्थ-स्तर के परिवार लैंड लाइन भी कहां लगा पाते थे! अहिरी टोला से खिदिरपुर जाते-जाते एक घंटे से ज्यादा लग गया। वह रात मेरी जिंदगी से जाती नहीं। रात के दो बजे कृष्णा के पुकारने से घर में जाग हो गई। ऊपर पहुंचे तो कृष्णा के पिताजी, उनकी माताजी, कृष्णा की देवीस्वरूपा पत्नी, छोटे बच्चे और भाई सब ऐसे स्वागत के भाव से मिले कि जैसे उन्हें मेरा काफी अर्से से इंतजार था। सब उत्साह और अपनापन से भरे। कृष्णा के पिता और कृष्णा की मां तो जैसे मेरे अपने पिता और मां सदृश। उस रात भाभी और मां ने मिल कर खाना तैयार किया। जिस प्यार और स्नेह से मैंने रोटियां खाईं, ऐसा अवसर मुझे याद नहीं कि कहीं और किसी जगह घटित हुआ हो। और ल बबुआ... और ल प्रभात... पिता जी आदेश देते रहे और मेरी थाली में रोटियां आती रहीं। भाभी रोटियां सेंकने में और मां रोटी-सब्जी परोसने में लगी रहीं। उस रात के बाद तो मैं जैसे कृष्णा के परिवार का सदस्य बन गया। मैं फुटपाथ पर ही सोया, फुटपाथ पर ही नहाया, फिर कम किराये वाले एक चाल में कृष्णा ने जगह दिला दी। तब इतने पैसे भी नहीं थे कि किराये पर अच्छा सा घर लेता। चाल में इतनी ही जगह थी कि पैर सीधा करने के लिए दीवार पर पैर उठा कर रखना पड़ता। लेकिन चाल के उस बेहद तंग कमरे को भी मैं महीनों इसलिए नहीं छोड़ पाया कि मैं बेहद विशाल और आलीशान हृदय वाले कृष्णा कुमार शाह, उसके माता-पिता और पूरे परिवार की आत्मा में रहने लगा था। कृष्णा के घर में खुशी का मौका हो, कोई समस्या हो या कोई मसला हो, पिता जी हों, मां हों या भाई सब मुझसे ही पूछते, मुझसे ही सलाह लेते और मेरी सलाह पर अमल करते। कलकत्ता जनसत्ता से लखनऊ हिंदुस्तान आना मेरे करियर के लिए क्या अच्छा हुआ और क्या नहीं... इसकी समीक्षा करने का यह वक्त नहीं। लेकिन कलकत्ता छोड़ने की पीड़ा मेरा पीछा आज तक नहीं छोड़ रही। इस पीड़ा का अधिकांश हिस्सा मेरे प्रिय मित्र कृष्णा कुमार शाह, पिताश्री और माताश्री, सब भाई और बच्चे और भाभी से बिछुड़ने की तकलीफ से संलग्न है। लखनऊ आने के बाद सुना पिताजी चले गए, मां चली गईं और कृष्णा भी चला गया। ...और मैं सोचता ही रह गया कि कलकत्ता इन लोगों से मिलने जाना है। अखबार का काम यही पीड़ा देता है कर्तव्य-परायणता और प्रतिबद्धता के एवज में।
जनसत्ता में काम करते हुए कृष्णा कुमार शाह की चुटीली टिप्पणियां, उसकी प्रखर लेखनी, रिपोर्टिंग पर पकड़ और उसका सीधा-सादा स्वरूप मेरी अंतःस्मृतियों तक समाया हुआ है। कलकत्ता प्रवास के अनगिनत संस्मरणों में से मैंने एक भावुक हिस्सा आपको सुनाया। ऐसे कई हिस्से हैं मेरे जीवन के किस्से के... कृष्णा उन किस्सों का एक बेहतरीन पात्र था। बांग्ला संस्कृति में कोई नहीं कहता, मैं जा रहा हूं। सब कहते हैं, आमी आश्छी... আমি আসছি (मैं आता हूं)। कृष्णा तुम बिना कुछ कहे चले गए। तो मैं ही कहता हूं, मैं भी आता हूं कृष्णा... आमीओ आश्छी कृष्णा... আমিও আসছি কৃষ্ণ...
প্রভাত রঞ্জন দীন (देश के वरिष्ठ पत्रकार प्रभात रंजन दीन की कलम से)
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