इन खूबसूरत वादियों में इतिहास दबा है
तो सेब और अखरोट का अद्भुत आनंद लेते हुए हमारे सारथी ने हमें कुछ ऐसा बताया कि कोई सामान्य मंदिर वो ले जा रहा है। हम भी चल दिए। यह दिन तो खास ही नहीं ,बहुत खास निकला। हमारी आज की सूची में था मार्तंड (सूर्य) मंदिर।
लेकिन पहुंचते ही वो इतिहास सामने था जो कश्मीर की छवि से बिल्कुल अलग था।
हममें से ज्यादातर कश्मीर को एक सिर्फ जन्नत मानते हैं पर कश्मीर की इतिहास यात्रा अपने आप में बहुत विस्तृत है । कश्मीरी पंडितों के बारे में हम सबने कुछ न कुछ सुना है, कुछ फिल्मों ने बता दिया है लेकिन वहां की इमारतें , पुरातत्व अवशेष उसको और समृद्ध और गौरवशाली बनाते है। किताबें बता देंगी कि कश्मीर के पहले राजा ऋषि कश्यप थे और प्राचीन काल से ही कश्यप समाज का बोलबाला था। पत्थरों की गूंज बताती है कि 3000 ईसा पूर्व की कहानी कुछ और थी। लिखित इतिहास में कभी हिंदू / बौद्ध बाहुल्य राज्य का उल्लेख है।
दरअसल चौदहवीं शताब्दी के मध्य तक कश्मीर ज्यादातर हिन्दू शासकों के अधीन रहा। फला - पनपा भी। इसमें भी करकोटा वंश का शासन सातवीं और आठवीं शताब्दी में रहा। ‘करकोट’ पुराणों में वर्णित एक प्रसिद्ध नाग का नाम है उसी के नाम पर इस वंश का नाम पड़ा। करकोटा शासन का इतिहास उसके आर्थिक वैभव सम्पन्न होने और उसके संस्कृति तथा पांडित्य-प्रखरता का केंद्र बनने का भी था। ये मुख्यतः विष्णु के उपासक थे और इन्होंने न केवल भगवान विष्णु के मंदिर बनवाए बल्कि बौद्ध मत के अनुयायियों को स्तूप, विहार और चैत्य आदि स्थापित करने में सहायता भी की। उन्हीं ललितादित्य का बनवाया हुआ सूर्य मंदिर न केवल भारत का प्राचीनतम सूर्य मंदिर है अपितु उस काल का विशालतम भी। उसी प्रखर-पावन भूमि के दर्शन हमें आज करने थे। मन में आस्था मिश्रित उत्साह लिए हम जा रहे थे अपने पुरखों के इतिहास से पुनः साक्षात्कार करने। कारकोटा वंशज कायस्थ थे । आश्चर्य है कि इस महान राजा के बारे में हमें हमारी इतिहास पुस्तकों ने बहुत कुछ नहीं बताया। करकोटा वंश के राजा ललितादित्य मुकतापीड़ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है । इनका काल 697 ई. से 738 ई तक रहा। (ललितादित्य नाम का अर्थ है ललित अर्थात सुंदर तथा आदित्य अर्थात सूर्यदेव ) कश्मीर के प्रख्यात कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राजतरंगिणी में कश्मीर के राजाओं का वर्णन करते समय ललितादित्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
मार्ग में एक बार तो लगा कि हम एक कस्बे की गलियों से होकर गुजर रहे हैं। और अचानक ही हमारी गाड़ी रुक गई। दाहिनी ओर थे महान मार्तंड सूर्य मंदिर के भग्नावशेष। इतिहास, वास्तुशास्त्र,पुरातत्व और धर्म-अध्यात्म के अध्येताओं के लिए जीवित प्रयोगशाला। कन्दरिया महादेव, मध्य प्रदेश, और बृहदेश्वर मंदिर, तमिलनाडु का लगभग समकालीन यह मंदिर स्थापत्य-वैभव में किसी से कम नहीं था। सटीक वास्तु शास्त्र और खगोलीय गणना के समन्वय था यह मंदिर। पुरातत्व विभाग के गाइड सरदार हरिंदर सिंह ने बताया कि इस मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित सूर्य मूर्ति पर सूर्य की किरणें दिन भर पड़ती थीं। कैसे?? मंदिर के शिखर पर ऐसी एक मणि थी जिस पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें परावर्तित होकर मूर्ति पर गिरती थीं। यहाँ विष्णु की भी मूर्ति है और शिवोपासना के लिए शिवलिंग भी। मंदिर के प्रांगण में ही एक जलाशय है जिस में पानी कई किमी दूर लिद्दर नदी से एक चैनल के जरिये लाया जाता था। पानी के निकास की व्यवस्था भी है। प्रत्येक सूर्यग्रहण के बाद जलाशय को खाली कर दुबारा जल भरा जाता था और तुलसी, चंदन, केसर आदि अन्य पवित्र वस्तुओं से अभिमंत्रित किया जाता था। भग्न होने के बाद सूर्य अर्चना बंद हो गई। तब से अब तक बंद ही है। (खुद हरिंदर के पुरखे यहां कई वर्ष पूर्व आए और बीते कुछ वर्षों में बर्बादी के बाद भी वहीं टिके रहे..तेरे बिना जिंदगी भी कोई जिंदगी भी नहीं..की मुद्रा में। )
हर पत्थर हजारों वर्ष के इतिहास के गवाही देता है। प्रत्येक स्तम्भ, पट्टिका, प्रवेशद्वार आधार-पट्टिका पर देवी-देवताओं के चित्र उत्कीर्ण किए गए थे। कुछ मूर्तियाँ खंडित होने के बावजूद पहचानी जा सकती हैं, जैसे द्वार के दोनों ओर जय -विजय नाम के द्वारपालों की, गंगा तथा यमुना की- अपने अपने वाहन मगरमच्छ और कछुए के साथ, देवी सरस्वती, गजोदर, हनुमान, कृष्ण, कुबेर आदि। अपने स्थापना काल में कैसा भव्य और जीवंत रहा होगा। जब विश्व के अधिकांश भाग सभ्यता तथा संस्कृति से अछूते थे, उस समय ऐसी स्थापत्य कला का नमूना खड़ा करने के लिए कैसी विलक्षण प्रतिभा और कलाकारी दरकार रही होगी जिसमें बड़े-बड़े भारी पत्थरों को मात्र इंटरलाॅकिंग तकनीक के जरिए एक दूसरे पर जमाते हुए नागर शैली में मंदिर बनाया गया होगा। यहाँ पत्थरों पर तत्कालीन शारदा लिपि में कुछ लिखा गया है जो संभवतः खगोलीय गणना बताई जाती है।
मार्तंड मंदिर का लगभग डेढ़ सौ साल पुराना एक रेखाचित्र इसकी भव्यता बताने के लिए पर्याप्त है। देश और संस्कृति का दुर्भाग्य है कि पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मुस्लिम शासक सिकंदर बुतशिकन ने इसे ध्वस्त करने के आदेश दिया और इसको ध्वंस करने का कार्य लगभग एक वर्ष चला। इसके लिए पहले छैनी -हथौड़ी का प्रयोग हुआ, फिर नींव हटाने की कोशिश की गई, यहाँ तक कि मंदिर के गर्भगृह में लकड़ी भरकर आग लगा दी गई। अपने मत तथा सत्ता के मद में जो विनाशलीला रचाई गई उससे न केवल स्थापत्य तथा धर्म के एक अनूठे प्रतीक का नाश हुआ बल्कि सभ्यता, संस्कृति और सौहार्द का भी क्षय हुआ जिसका दंश पीढ़ियाँ आज तक ढो रही हैं।
लेकिन इसकी भव्यता को फिल्मकारों ने कुछ हद तक समझा । गुलजार की ' आंधी' फिल्म क गीत 'तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं’ की और हैदर फिल्म के गीत ‘ बिस्मिल-बिस्मिल’ की शूटिंग यहीं हुई थी। पर खेद है कि ऐसी अद्भुत धरोहर के बारे में कश्मीर आने वाले सैलानी कम जानते हैं और अधिकांश की सूची में यह नहीं आता। जबकि यह पहलगाम से मात्र 12 किमी की दूरी पर ही है। हमारे सारथी आसिफ ने भी हमेंं ऐसा ही मंदिर दिखाने की बात की थी जहां दो फिल्मों की शूटिंग हुई थी। उसको भी शायद इसके इतिहास से वास्ता कम था लेकिन उसने इसे दिखाने की पहल की , इसलिए उसका आभार।
सच, दरअसल कश्मीरियत एक तरह से ऋषि परम्परा और सूफी इस्लाम का मिलन है।
(देश के वरिष्ठ पत्रकार अकु श्रीवास्तव की कलम से)
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