गंगटोक: सिक्किम में जो आपदा आई, उसने भले ही सबको अचानक चौंका दिया हो, लेकिन तमाम जानकार कहते हैं कि ऐसा होना तय था। आज पूरे देश में इसकी चर्चा हो रही है। लोहनाक झील अकेली ऐसी झील नहीं है जिससे इस तरह का खतरा हो। ऐसी कई झीलें हैं जो इसी तरह का खतरा कभी भी पैदा कर सकती हैं। सिक्किम एक छोटा सा सूबा है। क्षेत्रफल और आबादी, दोनों लिहाज से। और, यह समूचा राज्य पहाड़ में है। देश के बाकी पर्वतीय राज्यों के उलट सिक्किम में मैदानी इलाका तकरीबन नहीं के बराबर है। इसलिए इसकी करीब 6 लाख से थोड़ा ज्यादा की समूची आबादी हिमालय के बेहद नजदीक है। यानी खतरे वाले सारे जोन बेहद कम फासले पर हैं। इसी वजह से इस राज्य को अपने प्रकृति व पर्यावरण पर और जलवायु में हो रहे बदलावों पर चौकस निगरानी रखने की जरूरत है। जिस लोहनाक झील के फटने से इस त्रासदी की शुरुआत हुई, वहां निगरानी व चेतावनी प्रणाली स्थापित करने का काम चल रहा था। पिछले ही महीने इस झील के स्तर पर निगाह रखने और वहां के मौसम की निगरानी रखने के लिए कैमरा और अन्य उपकरण स्थापित किए गए थे। अगर यह चेतावनी प्रणाली पूरी तरह चालू हो गई होती तो इससे निचले इलाकों में लोगों को सतर्क होने और नदी के पास के इलाकों को खाली करने के लिए थोड़ा वक्त मिल जाता। इस चेतावनी प्रणाली के काम में शामिल ज्यूरिख यूनिवर्सिटी के भूवैज्ञानिक साइमन एलन का कहना था कि इस घटना के दो ही सप्ताह पहले हमारी टीम इस लेक पर थी।योजना एक ट्रिपवायर सेंसर लगाने की थी जिससे लेक के फटने की नौबत आते ही चेतावनी जारी हो जाती और नीचे लोग सतर्क हो जाते। इन वैज्ञानिकों का अनुमान था कि इससे लोगों को करीब 90 मिनट का वक्त मिल जाता है ताकि प्रोजेक्ट के बांध के गेट खोले जा सकें और नदी के किनारे के इलाकों को खाली कराया जा सके। लेकिन रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार इस प्रणाली को इसी साल लागू करने को तैयार नहीं थी लिहाजा फिलहाल कैमरा ही लगाया गया था और किन्हीं कारणों से लेक के फटने से कुछ ही दिन पहले कैमरे का भी पॉवर खत्म हो गया, तो इसके कोई मायने नहीं रहे। जलवायु परिवर्तन पर कई सालों से आ रही तमाम रिपोर्टों में हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियरों के सिमटने और इससे पैदा होने वाले खतरों के बारे में कहा जा रहा है। ग्लेशियरों के सिमटने का ही नतीजा है वहां ग्लेशियल लेक बन जाना। इस तरह की झीलें अक्सर चट्टानों व पत्थरों की प्राकृतिक दीवार के पीछे बन जाती हैं और जितना ग्लेशियर पिघलते जाते हैं, उतनी ही ये झीलें बड़ी होती जाती हैं। एक वक्त ऐसा आता है जब या तो झील के पानी के दबाव के कारण या फिर किसी अन्य वजह से झील को रोके रखने वाली वह कुदरती दीवार ढह जाती है और सारा पानी उन चट्टानों व पत्थरों को साथ लेकर नीचे की ओर तूफान की तरह बह निकलता है।
पिछले साल हुए एक रिसर्च के अनुसार हिमालयी इलाकों में ऐसी तकरीबन 200 झीलें हैं जो खतरा बनी हुई हैं। खुद हमारे राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) भारत में इस तरह की झीलों की संख्या 56 मानता है। चीन, नेपाल, पाकिस्तान व भूटान में इस तरह की ग्लेशियर झीलों के लिए अग्रिम चेतावनी प्रणाली स्थापित करने का काम पहले ही शुरू हो चुका है।
लेकिन भारत में लोहनाक झील में यह देश का अग्रिम चेतावनी का पहला मॉडल होना था। इसे फिर सिक्किम में शाको चो और बाकी अन्य खतरनाक झीलों पर स्थापित होना था। तमाम वैज्ञानिक व शोधकर्ता सालों से इन झीलों के खतरे की ओर इंगित कर रहे थे, लेकिन कभी डिजाइन सही न होने के नाम पर तो कभी फंड न उपलब्ध होने के नाम पर चेतावनी प्रणाली स्थापित नहीं हो पाई और नतीजा हमारे सामने है। जो काम इस साल शुरू हुआ, उसे भी पिछले ही साल शुरू हो जाना था लेकिन भारत सरकार इस इलाके के लिए अभियान आयोजित नहीं कर पाई। क्यों नहीं कर पाई? इसके लिए अब तमाम सफाइयां आनी शुरू हो गई हैं। जैसे कि केवल जुलाई से सितंबर तक ही झील तक जाना मुनासिब होना, उपकरणों का वजन, सीमावर्ती इलाका होने से क्लीयरेंस वगैरह, वगैरह। लेकिन सब जानते हैं कि सवाल प्राथमिकता का है।
साउथ लोहनाक ग्लेशियर के सिमटने और उसकी बदौलत साउथ लोहनाक लेक का आकार बढ़ने की रफ्तार पर सालों से बात हो रही है। पिछले करीब तीन दशकों में ग्लेशियर करीब एक वर्ग किलोमीटर के आसपास सिकुड़ चुका है और उसका डूब इलाका 1990 से लेकर अब तक साढ़े तीन गुना बढ़ चुका है। सिक्किम के राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने 2019 में ही एक रिपोर्ट में कह दिया था कि लोहनाक झील खतरनाक है और बांधों को ढहाने व जान-माल का भारी नुकसान करने की स्थिति में है। उससे भी पहले 2016 में कई विदेशी शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में कहा था कि पांच देशों में हिमालयी ग्लेशियरों के नजदीक बने करीब 177 बांधों में से बीस फीसदी ग्लेशियल झीलों से जोखिम पर हैं। इन बांधों में तीस्ता परियोजना भी शामिल थी। 2021 में आशिम सत्तार व अन्य लोगों ने मिलकर खास तौर पर साउथ लोहनाक लेक के ही भविष्य में फटने की आशंका पर एक अध्ययन किया था जो जियोमॉर्फोलॉजी जर्नल में प्रकाशित हुआ था। जाने-माने ग्लेशियोलॉजिस्ट मौरी पेल्टो दशकों से इस इलाकों के ग्लेशियरों पर अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने मई 2012 में अपने ब्लॉग पर साउथ लोहनाक ग्लेशियर के लगातार सिमटते जाने के बारे में लिखा था। उन्होंने सैटेलाइट तस्वीरों की मदद से समझाया था कि 2000 से लेकर 2011 तक किस तरह से ग्लेशियर लगातार पीछे खिसक रहा था। साल 2000 से 2006 ग्लेशियर 350 मीटर और 2006 से 2010 तक 250 मीटर पीछे खिसक चुका था। इस दशक में 60 मीटर प्रति वर्ष की रफ्तार पिछले किसी भी दशक की तुलना में ज्यादा थी। लेकिन उसी दशक में यानी 2008 में तीस्ता III परियोजना की शुरुआत हुई, इन खतरों को नजरअंदाज करते हुए। इसी तरह का अध्ययन पेल्टो ने उस इलाके के बाकी ग्लेशियरों के बारे में भी किया है। 2013 में एक अध्ययन में बताया था कि साउथ लोहनाक ग्लेशियर 1962 से लेकर 2008 के बीच 1.9 किलोमीटर पीछे सरक चुका है। इसी अध्ययन में इससे बनी ग्लेशियर लेक के फटने की संभावना 42 फीसदी आंकी गई थी। और यदि लेक फट पड़ी तो 586 घन मीटर (5.86 लाख लीटर) प्रति सेकेंड की मात्रा में पानी बह निकलेगा। अंदाजा लगाया जा सकता है कि विनाश की आशंका कितनी प्रबल और कितने सालों से थी। फरवरी 2021 में उत्तराखंड में धौलीगंगा परियोजना में हुए इसी तरह के हादसे से भी हमने सबक न लिए। वह हादसा नंदा देवी ग्लेशियर के एक हिस्से के टूटने के बाद उसमें दबी अथाह जलराशि के अचानक नीचे पहुंचने से हुआ था। डर यही है कि हमारे देश के तंत्र में सबक सीखने की परंपरा काफी कम है। ऐसे में इस तरह की कई और आपदाओं की आशंका बराबर बनी रहेगी। @रिपोर्ट अशोक झा
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