भारत-नेपाल की सीमा पर बसा दार्जिलिंग जिला का नक्सलबाड़ी प्रखंड। जो नक्सलवाद की जननी है। नक्सलवाद, एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन जिसकी जड़ें भारतीय सीमावर्ती उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी बंगाल में हैं। पिछले छह दशक में देश के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में विकसित हुआ है। विकास, रोजगार और सीमा क्षेत्र में तस्करी के बल पर नक्सलवाद पर यहां विराम लग गया था। एक बार फिर से नेपाल सीमा पर बढ़ती चुनौती और नक्सलबाड़ी क्षेत्र के प्रति विकास के प्रति सरकार की अनदेखी नक्सलवाद को धार देना शुरू कर दिया है। अपनी जड़े सींचने में लगा है। इसे मदद पड़ोसी मुल्क नेपाल से मिल रहा है।
नक्सल आंदोलन के जनक चारु मजूमदार के पुत्र अभिजीत मजूमदार के उस वक्तव्य को बल देता है की यह विचारधारा की लड़ाई है यह थम तो सकती है पर खत्म नहीं। इसका कारण भी समझ आने लगा है। नक्सलबाड़ी में पिछले कई विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बंगाल के सत्ताधारी दलों को जीत का स्वाद नहीं मिल पाया है। कई बार कांग्रेस तो इस बार भाजपा ने जीत दर्ज की है। माना जा रहा है की इन दिनों विकास के प्रति नक्सलबाड़ी की ओर सरकार ध्यान नहीं दे रही है। एक साल के अंदर कई राइस मिल्स और बड़े उद्योग बंद हो गए है। यहां 2300 से अधिक रोजगार सृजित थे। अब यह जाए तो जाए कहा। इतना ही नहीं जिस जमीन को लेकर नक्सली आंदोलन यहां जन्म लिया था आज चाय बगान समेत नदियों और सरकारी जमीन की फर्जी कागज बनाकर खरीद बिक्री हो रही है। यहां काम करने वाले मजदूर बेरोजगार हो फिर से लाल सलाम की ओर अपने हक की लड़ाई लड़ने की तैयारी में है। युवा नशे के गर्त में चले गए है। मानव तस्करी का बोलबाला है। घुसपैठ, मवेशी तस्करी समेत राष्ट्र विरोधी ताकतों का ये शिकार हो रहे है। इस क्षेत्र के भाजपा विधायक आनंदमय बर्मन का कहना है कि इस क्षेत्र में सरकार को सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए? लेकिन बदले की भावना से इस पूरे क्षेत्र का शोषण हो रहा है। केंद्र की सरकार के कारण यहां राष्ट्रीय राजमार्ग मिला नहीं तो यहां चल पाना भी मुश्किल था। इस क्षेत्र में फिर नक्सलवाद नहीं पनप पाए, इसके लिए राज्य सरकार को विकास की गंगा बहाना पड़ेगा। अपने ही नेताओं के हाथों इस क्षेत्र में पनप रहे भूमि माफिया से मुक्त करना होगा। रोजगार के अवसर देने होंगे। बंद कल कारखानों को खुलवाना होगा? उनकी समस्या को सुलझाना होगा? बदला नहीं बदल चाहिए के नारों को चरितार्थ करना होगा। विधायक ने स्वीकार किया की उत्तर बंगाल को अलग सीमांत प्रांत की मांग भी यह एक कारण है। कहते है की नक्सलवाद के मूल कारणों, जैसे भूमि विवाद, गरीबी और असमानता को संबोधित करने के लिए स्थायी परिवर्तन लाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रभावी नीति कार्यान्वयन की आवश्यकता है। नक्सली समूहों को बाहरी समर्थन और वित्तपोषण के आरोप लगते रहे हैं, जिससे भारत के आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप का संदेह पैदा होता है। नक्सलवाद की दृढ़ता भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियां पैदा करती है और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए व्यापक प्रभाव डाल सकती है। नक्सलवाद के मुद्दे को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए सुरक्षा उपायों और सामाजिक-आर्थिक विकास प्रयासों के बीच एक नाजुक संतुलन की आवश्यकता है। एक व्यापक और समग्र दृष्टिकोण स्थायी शांति और प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। अंत में, नक्सलवाद भारत के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती बना हुआ है, जिसके लिए सूक्ष्म रणनीतियों की आवश्यकता है जो इस मुद्दे के राजनीतिक, सामाजिक-आर्थिक और मानवाधिकार पहलुओं पर विचार करते हैं। समावेशी विकास को प्राथमिकता देकर, संवाद में शामिल होकर, और मानवाधिकारों का सम्मान करते हुए कानून प्रवर्तन को मजबूत करके, भारत नक्सलवाद के प्रभाव को कम करने और अधिक स्थिर और न्यायसंगत समाज को बढ़ावा देने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठा सकता है।
कब और कैसे शुरू हुआ आंदोलन : 24 मई 1967 के दिन नक्सली आंदोलन का खूनी संघर्ष शुरू हुआ था। यह स्थान कहीं और नहीं बल्कि सिलीगुड़ी से 25 किलोमीटर दूर नक्सल बाडी है। यहां पुलिस के साथ संघर्ष के दूसरे दिन यानि 25 मई 1967 जहां पुलिस की गोली से धनेश्वरी देवी, सीमाश्वरी मल्लिक, नयनश्वरी मल्लिक, मुरुबाला बर्मन, सोनामति सिंह, फूलमती देवी, सामसरि सैरानी, गाउद्राउ सैरानी, खरसिंह मल्लिक, साथ में दो बच्चे भी मारे गए थे। उस समय गांव में कोई पुरुष नहीं मौजूद था। सभा कर रही निहत्थी महिलाओं को 24 मई की घटना के बारे में पता तक नहीं था। पुलिस ने सभी मृतकों के शवों को अपने कब्जे में ले लिया और उन्हें परिजनों तक को नहीं सौंपा। इस बर्बर हत्याकांड से नक्सलबाड़ी को नहीं रोका जा सका, बल्कि इसके खिलाफ जो तूफान उठा, वह नक्सलबाड़ी का झंझावात बनकर समूचे देश में फैल गया। यहां यहां शहीद स्तम्भ के पास माओ त्सेतुंग, चारु मजुमदार, सरोज दत्त की मूर्तियां भी लगी हैं। यहां प्रतिवर्ष नक्सली संगठन नक्सालबाडी दिवस मनाते हैं। और आज के नक्सलवाड़ी में काफी फर्क दिखाई देता है। जहां कल तक यहां लाल सलाम की गूंज सुनाई देती थी वही आज ज्यादातर घरों में जय श्रीराम के नारे लग रहे हैं। यहां से 2021 में विधायक भी भारतीय जनता पार्टी का चुनकर भारी मतों से सदन में पहुंचा है। आंदोलन की शुरुआत 1960 के दशक के अंत में हुई जब चारू मजूमदार और कानू सान्याल के नेतृत्व में कट्टरपंथियों के एक समूह ने भूमि अधिकारों और सामाजिक अन्याय के मुद्दों को संबोधित करने के लिए राज्य के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू किया।इस आंदोलन का नाम नक्सलबाड़ी के नाम पर रखा गया था और इसका उद्देश्य समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों, विशेष रूप से भूमिहीन किसानों और आदिवासी समुदायों की शिकायतों को दूर करना था जो शोषण और उपेक्षा का सामना कर रहे थे। यह आंदोलन नक्सलबाड़ी में भूमि सुधारों के कार्यान्वयन से भड़का था, जिसका उद्देश्य भूमिहीन किसानों को भूमि वितरित करना था। हालाँकि, जमींदारों के प्रतिरोध और सुधारों को प्रभावी ढंग से लागू करने में सरकार की असमर्थता के कारण हिंसक टकराव हुआ। इस घटना ने विभिन्न क्षेत्रों में विरोध और विद्रोह की लहर पैदा कर दी, जिससे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) या सीपीआई (एमएल) का गठन हुआ और एक क्रांतिकारी आंदोलन के रूप में नक्सलवाद का उदय हुआ। नक्सलवाद के उद्देश्य इसकी विचारधारा में निहित हैं जो सशस्त्र संघर्ष और जन लामबंदी के माध्यम से एक वर्गहीन और समतावादी समाज की स्थापना करना चाहता है। इस आंदोलन का लक्ष्य मौजूदा सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक ढांचे को उखाड़ फेंकना है, जिसे वह दमनकारी और शोषणकारी मानता है। @ रिपोर्ट अशोक झा
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