पितृपक्ष विशेष- 2....पितरो के प्रति श्रद्धा के 15 दिन
अक्तूबर 05, 2023
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संजय तिवारी
भारतीय जीवन संस्कृति की अति महत्वपूर्ण विशेषता है अपने पूर्वजो के प्रति सम्मान की भावना। इसी सम्मान की अभिव्यक्ति के लिए हमारी सांस्कृति यात्रा में पितृपक्ष के रूप में वर्ष के पंद्रह दिन एक वार्षिक पड़ाव के रूप में आते है। इन दिनों में भारत की संस्कृति में विशवास करने वाला प्रत्येक मनुष्य अपने पितरो को याद करता है। यह अद्भुत परंपरा है जो सृष्टि के साथ ही विधान के रूप में चली आ रही है। सृष्टि में इस पृथ्वी नाम के उपग्रह पर मनुष्य जो जीवन व्यतीत करता है उसके बाद भी उसकी जीवन यात्रा चलती रहती है। सूक्ष्म रूप ग्रहण करने के बाद पृथ्वी वाला शरीर छोड़ चुके प्राणी की उस अनंत यात्रा को सफल और सुगम बनाने के लिए आवश्यक होता है कि उसके वंशज उसे श्रद्धा और सम्मान के साथ उस यात्रा के योग्य सुविधा संपन्न करे। इसी कार्य के लिए हमारे यहाँ पितृ पक्ष का विशिष्ट महत्व होता है। पितृ पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप में जाना जाता है, पितृपक्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को चालू होता है और सर्वपितृ अमावस्या पर 16 दिनों के बाद समाप्त होता है। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पूर्वज (पितृ) की पूजा करते हैं, खासकर उनके नाम पर भोजन दान और तर्पण के द्वारा। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार पितृ पक्ष के 16 दिनों में पितरों को यमलोक से मुक्त किया जाता है और उन्हें पृथवी पर जाने की इजाजत होती है।
पितृ पक्ष का आखिरी दिन ‘सर्वपित्रू अमावस्या या महालय अमावस्या’ के रूप में जाना जाता है, पितृ पक्ष का यह सबसे महत्वपूर्ण दिन है।अपने पूर्वजो के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए हमारी सभ्यता ने प्रति वर्ष 15 दिन निर्धारित किया है। इन दिनों में श्रध्दापूर्वक पितरो को याद कर उनके लिए विधि पूजन , पिंड दान और तर्पण का विधान हमारे शास्त्रो में बताया गया है। पितर दो प्रकार के होते है -
आज़ान पितर -
जिन पितरो की अंतिम क्रिया और संस्कार पूरी विधि और श्रद्धापूर्वक की जाती है वे आज़ान पिटर कहलाते है। इन पितरो को अपने वंशजो से पूर्ण श्रद्धा मिलती है और ये तृप्त होकर आज़ान पितर बन कर स्थापित होते है। वह से फिर अपने अपने प्रारब्ध के अनुसार इनकी मुक्ति या पुनर्जन्म की व्यवस्था बनाती है। इन्हें अपने वंशजो से किसी प्रकार की अतृप्ति नहीं होती।
मर्त्यपितर -
वे पितर जिनका श्रद्धा कर्म और अंतिम क्रिया विधि पूर्वक नहीं होती है वे सदैव अतृप्त होकर मर्त्य पितर के रूप में भटकते रहते है। इनको आज़ान बनाने का अवसर नहीं मिलपाता और ये सदैव अपने वंशजो की प्रतीक्षा में रहते है। पितरलोक में इनको स्थान ही नहीं मिलता। ये पितरलोक में प्रवेश के लिए अपने वंशजो द्वारा श्राद्ध कर्म किये जाने की हमेशा प्रत्यक्ष करते है।
शास्त्रो के अनुसार जब मनुष्य का अंतिम संस्कार विधिपूर्वक करने के बाद उसकी संतान के द्वारा पिंडोदक और पिंडछेदन की क्रिया सम्पन करा दी जाती है तब उस आत्मा को आज़ानपितर के रूप में पितरलोक में स्थान मिल जाता है और अपने वंशजो से उसकी कोई अन्य अपेक्षा शेष नहीं रह जाती। पितरो के प्रति इसी श्रद्धा की पूर्ती के लिए शास्त्रो ने विधान तय कर इस कार्य के लिए उत्तर भारत में गया जी नामक स्थान को निर्धारित किया है जहा प्रतिवर्ष पितृपक्ष में लोग अपने पितरो को अपनी श्रद्धा पूर्ण कर आज़ान पितर के रूप में पितरलोक में स्थापित करने जाते है।
पूजा से ही पितृ दोष से मुक्ति
विवाह के कई वर्षो बाद भी संतान सुख प्राप्त नहीं हो पा रहा हो ,वंश वृद्धि नहीं हो पा रही हो ,यदि आपके परिवार में अस्थिरता का वातावरण हो, परिवारजन मानसिक तनाव के दौर से गुजर रहे है , घर मे कलह क्लेश का वातावरण हमेशा बना रहता है , यदि आपको पग पग पर बाधा का सामना करना पड़ रहा है ,यदि आप किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित है तो मत्स्यपुराण का संकेत यह कहता है कि आपके घर मे पितृ दोष है यानि आपके घर के पितृ अतृप्त हैं| क्या आप अपने घर के पितरो की शांति के लिए साल मे एक बार आने वाले पितृ पक्ष मे पिंड दान, तर्पण और उनके निमित्त किये जाने वाले श्राद्ध श्रदा पूर्वक करते है ? जिस तरह आप अपने और अपने परिवार जनों के जन्म दिन मनाते है, शादी की साल गिरह बड़ी धूम धाम से मनाते है , साल मे आने वाले कई त्योहारों को श्रधा पूर्वक मनाते है और लाखो रुपये खर्च कर देते है पर क्या आप उतने ही धूम धाम से साल मे सिर्फ 15 दिन चलने वाले पितृ पक्ष पर्व मे अपने पितरो को ,आपके उन परिजनों को जो अब इस दुनिया मे नहीं है के नाम से श्राद्ध करते है, क्या आप पितृ पक्ष मे पिंड दान और तर्पण करके ब्रह्मिनो को भोजन कराते है ?
जो मनुष्य अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार, श्रद्धा, तर्पण आदि विधिपूर्वक न करके उसे सिर्फ व्यर्थ व औपचारिक समझते हैं उन्हें पैतृक प्रकोप से शारीरक कष्ट, आंतरिक पीड़ाएँ, बुरे स्वप्न, या स्वप्न में पूर्वजों का दर्शन, संतानहीनता, अकाल मृत्यु, धन, हानि, परिवार में कलह, दुर्घटना व अपमान प्राप्त होता है। उस घर व उस परिवार का किसी प्रकार का कल्याण नहीं होता है.वही जो मनुष्य पितृ पक्ष मे तत्परता से श्राद्ध आदि कर्म करते हैं, उनके पूर्वजों को गति से सुगति प्राप्त होती हैं। परिणमतः उनकी (श्राद्ध) कर्ता की प्रगति व उन्नति होती है। सुख, शांति, यश, वैभव, स्वस्थ जीवन, पुत्र, धन आदि उसे प्राप्त होते हैं।
तीन ऋणों से मुक्ति
पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्र्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात तीन प्रकार के ऋण होते हैं। पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण। पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध साल के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें हम उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त हो सकते हैं। महाभारत के प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा कि मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे उपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी मे जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्धतर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी। जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृ गण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है।
अपात्र ब्राह्मण से न कराएं श्राद्ध
श्राद्ध करने का सीधा संबंध पितरों यानी दिवंगत पारिवारिक जनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।जीवन मे अगर कभी भूले-भटके माता पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृपक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल, फल, मेवा, दाल-भात, पूरी पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा ताऊ, चाचा, पड़दादा, नाना आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की तिथियों में ही किए जाएं।यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृपक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति में इसका खास प्रावधान है।
किसका श्राद्ध कौन करे?
पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके पुत्र को ही है किन्तु जिस पिता के कई पुत्र हो उसका श्राद्ध उसके बड़े पुत्र, जिसके पुत्र न हो उसका श्राद्ध उसकी स्त्री, जिसके पत्नी नहीं हो, उसका श्राद्ध उसके सगे भाई, जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है।पूर्वजों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध शास्त्रों में बताए गए उचित समय पर करना ही फलदायी होता है।
तर्पण और श्राद्धकर्म के लिए श्रेष्ठ समय
पितृ शांति के लिए तर्पण का श्रेष्ठ समय संगवकाल यानी सुबह 8 से लेकर 11 बजे तक माना जाता है। इस दौरान किया गया जल से तर्पण पितरों को तृप्त करने के साथ पितृदोष और पितृऋण से मुक्ति भी देता है। इसी प्रकार शास्त्रों के अनुसार तर्पण के बाद बाकी श्राद्ध कर्म के लिए सबसे शुभ और फलदायी समय कुतपकाल होता है। ज्योतिष गणना के अनुसार यह समय हर तिथि पर सुबह 11.36 से दोपहर 12.24 तक होता है।ऐसी धार्मिक मान्यता है कि इस समय सूर्य की रोशनी और ताप कम होने के साथ-साथ पश्चिमाभिमुख हो जाते है। ऐसी स्थिति में पितर अपने वंशजों द्वारा श्रद्धा से भोग लगाए कव्य बिना किसी कठिनाई के ग्रहण करते हैं।
श्राद्ध की विधि
जिस तिथि को आपको घर मे श्राद्ध करना हो उस दिन प्रात: काल जल्दी उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हो जाये . पितरो के निम्मित भगवन सूर्य देव को जल अर्पण करे और अपने नित्य नियम की पूजा करके अपने रसोई घर की शुद्ध जल से साफ़ सफाई करे, और पितरो की सुरुचि यानि उनके पसंद का स्वादिष्ट भोजन बनाये | भोजन को एक थाली मे रख ले और पञ्च बलि के लिए पांच जगह 2 - 2 पूरी या रोटी जो भी आपने बनायीं है उस पर थोड़ी सी खीर रख कर पञ्च पत्तलों पर रख ले| एक उपला यानि गाय के गोबर का कंडे को गरम करके किसी पात्र मे रख दे| अब आप अपने घर की दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके बैठ जाये| अपने सामने अपने पितरो की तस्वीर को एक चोकी पर स्थापित कर दे| एक महत्वपूर्ण बात जो मै बताना चाहता हू वो यह है की पितरो की पूजा मे रोली और चावल वर्जित है। रोली रजोगुणी होने के कारण पितरों को नहीं चढ़ती, चंदन सतोगुणी होता है अतः भगवान शिव की तरह पितरों को भी चन्दन अर्पण किया जाता है। इसके अलावा पितरों को सफेद फूल चढ़ाए जाते हैं तो आप भी अपने पितरो को चन्दन का टिका लगाये और सफ़ेद पुष्प अर्पण करे| उनके समक्ष धूप और शुद्ध घी का दीपक जलाये. हाथ जोड़ कर अपने पितरो से प्रार्थना करे।
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