1576ई.में पहली बार आयोजित हुई थी पूजा
सिलीगुड़ी:यूनेस्को से 2008 में जहां कोलकाता के ट्राम को विश्व धरोहर का दर्जा मिला। वहीं, 2018 में कोलकाता की दुर्गापूजा को भी सांस्कृतिक विरासत का दर्जा प्रदान किया गया। कोलकाता की 150 वर्ष पुराने ट्राम में विराजीं मां दुर्गा
अब यह संयोग ही है कि इस दोनों ही विरासत को एकाकार कर मां दुर्गा को 150 वर्ष पुराने ट्राम 'चैताली' के अंदर विराजमान किया गया है. यह पहल कोलकाता की एक एनजीओ 'सिड्ज फाउंडेशन' ने की है।
कोलकाता की 150 वर्ष पुराने ट्राम में विराजीं मां दुर्गा
यह एनजीओ कोलकाता के ट्रांससेक्सुअल लोगों के कल्याण के लिए कार्य करती है। ट्रांससेक्सुअल लोगों ने ही ट्राम के अंदर और बाहर की सजावट की है। सादे रंग की पोशाक व आभूषणों से सजी मां दुर्गा की प्रतिमा को ट्राम के अंदर प्रतिष्ठापित किया गया है।कोलकाता की 150 वर्ष पुराने ट्राम में विराजीं मां दुर्गा
पांच फुट ऊंची यह प्रतिमा बंगाल की पारंपरिक दुर्गा प्रतिमा है। प्रतिमा में 16वीं सदी की मूर्ति शिल्प कला की स्पष्ट छाप दिखायी देती है। मां दुर्गा प्रतिमा के साथ गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिकेय और महिषासुर भी हैं।
कोलकाता की 150 वर्ष पुराने ट्राम में विराजीं मां दुर्गा
पूजा आयोजक सामाजिक संस्था सिड्ज फाउंडेशन की संस्थापक अमृता सिंह बताती हैं कि जहां हमारा उद्देश्य बंगाल की ऐतिहासिक धरोहर ट्राम और कोलकाता की दुर्गापूजा के ऐतिहासिक महत्व को प्रस्तुत करना है। वहीं, हम समाज के वंचित समुदाय, ट्रांससेक्सुअल समाज को परित्यक्त दुर्गा थीम के माध्यम से रेखांकित करने का भी काम किया है। हर वर्ष ट्रांससेक्सुअल समाज के लोगों के साथ मिलकर दुर्गापूजा का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष हमने विश्व सांस्कृतिक धरोहर दुर्गापूजा को, विश्व धरोहर ट्राम में आयोजित किया है। बंगाल के इतिहास के पन्नों को पलटें तो हमें पता चलता है कि लगभग 16 वीं शताब्दी के अंत में 1576 ई में पहली बार दुर्गापूजा हुई थी। उस समय बंगाल अविभाजित था जो वर्तमान समय में बांग्लादेश है। इसी बांग्लादेश के ताहिरपुर में एक राजा कंस नारायण हुआ करते थे। कहा जाता है कि 1576 ई में राजा कंस नारायण ने अपने गांव में देवी दुर्गा की पूजा की शुरुआत की थी। कुछ और विद्वानों के अनुसार मनुसंहिता के टीकाकार कुलुकभट्ट के पिता उदयनारायण ने सबसे पहले दुर्गा पूजा की शुरुआत की। उसके बाद उनके पोते कंसनारायण ने की थी। इधर कोलकाता में दुर्गापूजा पहली बार 1610 ईस्वी में कलकत्ता में बड़िशा (बेहला साखेर का बाजार क्षेत्र) के राय चौधरी परिवार के आठचाला मंडप में आयोजित की गई थी। तब कोलकाता शहर नहीं था। तब कलकत्ता एक गांव था जिसका नाम था 'कोलिकाता'।
अश्वमेघ यज्ञ का विकल्प बनी दुर्गापूजा
विवेकानंद विश्वविद्यालय में संस्कृत और दर्शन के प्रोफेसर राकेश दास ने बताया कि राजा कंसनारायण ने अपनी प्रजा की समृद्धि के लिए और अपने राज्य विस्तार के लिए अश्वमेघ यज्ञ की कामना की थी। उन्होंने यह इस बात की चर्चा अपने कुल पुरोहितों से की। ऐसा कहा जाता है कि अश्वमेघ यज्ञ की बात सुनकर राजा कंस नारायण के पुरोहितों ने कहा कि अश्वमेघ यज्ञ कलियुग में नहीं किया जा सकता। इसे भगवान राम ने सतयुग में किया था पर अब कलियुग करने का कोई फल नहीं है। इस काल में अश्वमेघ यज्ञ की जगह दुर्गापूजा की जा सकती है। तब पुरोहितों ने उन्हें दुर्गापूजा महात्मय बारे में बताया। पुरोहितों ने बताया कि कलियुग में शक्ति की देवी महिषासुरमर्दिनी मां दुर्गा की पूजा करें। मां दुर्गा सभी को सुख समृद्धि, ज्ञान और शाक्ति सब प्रदान करती हैं। इसी के बाद राजा कंसनारायण ने धूमधाम से मां दुर्गा की पूजा की। तब से आज तक बंगाल में दुर्गापूजा का सिलसिला चल पड़ा।
देवी भागवतपुराण में है दुर्गापूजा का उल्लेख
प्रोफेसर प्रेम दास ने बताया कि इतिहास के अनुसार राजा कंसनारायण की पूजा के पहले दुर्गापूजा की व्याख्या देवी भागवतपुराण और दुर्गा सप्तशती में मिलती है।दुर्गा सप्तशती और देवी भागवतपुराण में शरद ऋतु में होने वाली दुर्गापूजा का वर्णन है। देवी भागवतपुराण में इसका भी उल्लेख है कि भगवान राम ने लंका जाने से पहले शक्ति के लिए देवी मां दुर्गा की पूजा की थी। देवी भागवत पुराण की रचना की तिथि पर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह एक प्राचीन पुराण है और छठवीं शताब्दी ईस्वीं से पहले रचा गया था। कुछ के अनुसार इस पुस्तक की रचना 9वीं और 14वीं शताब्दी के मध्य ई. बीच हुई थी। अलग-अलग विधियों से होती है दुर्गापूजा
बंगाल में साढ़े 550 साल से अधिक पुरानी पूजा में विधियों को लेकर थोड़ा परिवर्तन हुआ है। फिर भी राज परिवारों में होने वाली पारंपरिक दुर्गापूजा चार अलग अलग विधियों में होती है। विद्वानों की माने तो पहली विधि कालिकापुराण की विधि के अनुसार है। दूसरी विधि वृहतनंदीकेश्वर विधि के अनुसार है। तीसरी विधि देवीपुराण के अनुसार और चौथी व आखिरी विधि मत्स्य पुराण के अनुसार है। राज्य के हर जिलों में होनी वाली इन्हीं चार विधियों में होती है। फिलहाल पूजा की मूल विधियां समान है पर अब थोड़ा बहुत अंतर है।
भाद्र कृष्णपक्ष की नवमी को ही शुरू होती है पूजा
रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के प्रोफेसर सुब्रत मंडल ने बताया कि बंगाल की सदियों पुरानी पारंपरिक दुर्गापूजा भाद्र मास के कृष्णपक्ष की नवमी को ही शुरूहो जाती है। हिसाब से यह पितृ पक्ष में ही पड़ती है। कोलकाता के शोभाबाजार राजबाड़ी, बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर के प्रसिद्ध राजपरिवार की दुर्गा पूजा भी इसी दिन से शुरू हो जाती है। इसके बाद षष्ठी के दिन मां दुर्गा का बोधन होता है। इसमें मां दुर्गा का आह्वान किया जाता है और बेल के पेड़ की पूजा की जाती है। सप्तमी के दिन नवपत्रिका पूजा होती है। इस नवपत्रिका पूजा में धान, मान अरवी, अरवी, हल्दी का पेड़, जयंती, अशोक, अनार की डाली और बेल की डाली को केले के पेड़ के साथ बांधकर पूजा की जा जाती है। उसके बाद गंगा में स्नान करवाया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि नवपत्रिका पूजा मां दुर्गा के नौ रूपों की प्रकृति की शक्ति स्वरूपा पूजा है। उसके बाद अष्टमी नवमी की संध्या को संधि पूजा होती है। दशमी के दिन पारंपरिक रूप में माता दुर्गा का विसर्जन होता है। @रिपोर्ट अशोक झा
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/