- यहां आने वाले कभी नहीं होते निराश, ' जो लेते है "पखुआ पूजा' में शामिल
- उत्तर प्रदेश के कन्नौज से जुड़ा है पुजारियों का संबंध
सिलीगुड़ी: गुवाहाटी में मौजूद कामाख्या मंदिर में भी देश के दूसरे हिस्सों की तरह दुर्गा पूजा का उत्सव जारी है। लेकिन यहां की पूजा उनसे काफ़ी अलग है। नीलांचल की पहाड़ियों पर स्थित कामाख्या मंदिर में दुर्गा पूजा आयोजन का इतिहास क़रीब हज़ार साल पुराना है। कामाख्या मंदिर में यह उत्सव कृष्ण नवमी से शुरू होता है और अश्विन माह की शुक्ल नवमी के दिन समाप्त होता है। इसलिए इसे 'पखुआ पूजा' भी कहा जाता है। कामाख्या में दुर्गा पूजा अनोखे तरीके से की जाती है। यहां देवता (पीठ स्थान) का आनुष्ठानिक स्नान किया जाता है, भैंस, बकरी, कबूतर, मछली की बलि दी जाती है, साथ ही साथ लौकी, कद्दू और गन्ने भी चढ़ाए जाते हैं। पूजा उत्सव में 'कुमारी पूजा' के अनुष्ठान का बड़ा महत्व है। कामाख्या को विश्व का सर्वोच्च कुमारी तीर्थ भी माना जाता है। कामाख्या देवालय के धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष प्रबंधन समिति के प्रमुख मोहित चंद्र शर्मा ने वरिष्ठ पत्रकार अशोक झा से कहा, "हमारे यहां नवरात्रि से पूजा शुरू नहीं होती। यहां कृष्ण पक्ष की नवमी से ही दुर्गा पूजा प्रारंभ हो जाती है और शुक्ल नवमी अर्थात 15 दिनों तक चलती है। कहते हैं, ''नवरात्रि से हमारे यहां दुर्गा पूजा के साथ ही कुमारी पूजा शुरू होती है। नवरात्रि में बाहर से काफ़ी लोग यहां चंडी पाठ करने आते हैं। लेकिन हमारे यहां दुर्गा पूजा शुरू होने के पहले दिन से ही चंडी पाठ शुरू हो जाता है। किंवदंती है कि कोलासुर ने एक बार स्वर्ग और पृथ्वी पर क़ब्ज़ा कर लिया, देवता मदद के लिए महाकाली के पास गए, काली ने फिर से जन्म लेकर एक युवती के रूप में कोलासुर का वध किया।
आस्था रखनेवालों का कहना है कि नारी शक्ति की याद में कुमारी पूजा की जाती है जिसमें एक युवती को नई लाल साड़ी, माला, सिंदूर, आभूषण, इत्र आदि से ख़ूबसूरती से सजाकर देवी कामाख्या के रूप में पूजा जाता है।
युवती को सृजन, स्थिरता और विनाश को नियंत्रित करनेवाली शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। पूजा उत्सव से जुड़े मिहिर शर्मा बताते हैं, ''कुमारी पूजा हर साल नवरात्रि के पहले दिन से शुरू होती है। पहले दिन, एक कुमारी की पूजा होती है। दूसरे दिन दो कुमारियों की पूजा होती है। इस तरह, पांच साल की बच्चियों की पूजा भगवती कुमारी के रूप में की जाती है। कुल 45 कुमारियों को देवी के रूप में पूजा जाता है। कामाख्या मंदिर में पूजा की विधि की जानकारी देते हुए देवालय प्रबंधन समिति के प्रमुख मोहित चंद्र शर्मा कहते है, "कामाख्या मंदिर में हज़ारों साल पहले जिस विधि के तहत पूजा-अर्चना होती थी, आज भी उसी विधि के अनुसार पूजा होती है।''
उनका कहना हैं, ''यहां तक कि कोविड के समय भी हमारे एक पुजारी रोज़ाना पूजा करने मंदिर आते थे। उस दौरान किसी भी अन्य व्यक्ति को परिसर के भीतर भी आने की अनुमति नहीं थी। लेकिन कामाख्या में एक दिन भी पूजा बंद नहीं हुई। हमारे पुजारी ब्रह्म मूहुर्त में स्नान कर मंदिर आते है और पूरी विधि के साथ मां कामाख्या की पूजा करते है। "मां कामाख्या की सभी रूपों में पूजा होती है। मां कामाख्या के बाद ही अब दुर्गा के रूप में पूजा हो रही है। इसलिए देवी को प्रसन्न करने के लिए ऐसा कोई ख़ास मंत्र तो नहीं है, लेकिन जब हम मां कामाख्या को प्रणाम करते हैं तो यह मंत्र 'कामाख्या वरदे देवी नील पर्वतवासिनी त्वं देवी जगन्नमाता योनी मुद्रे नमोस्तुते ' बोलते हैं। मां की पूजा जब कामेश्वरी के रूप में करते हैं, तब 'कामाख्ये काम संपन्ने कामेश्वरी हर प्रिये...कामनां देहि मे नित्यं कामेश्वरी नमोस्तुते' के मंत्र का उच्चारण करते हैं। मंत्र चाहे कोई भी हो, लेकिन देवी की मन से भक्ति करने पर ही वो प्रसन्न होती हैं। "असम में ज़्यादातर मंदिरों के मुख्य पुजारी की तरह इस मंदिर के पूजारी भी 'बोरदेउरी समाज' के हैं। इस शब्द का इस्तेमाल अहोम राजाओं के समय से ही होता रहा है। मोहित चंद्र शर्मा का परिवार भी कन्नौज से कामाख्या आया था। वो बताते हैं, "कामाख्या मंदिर में पुजारियों का इतिहास एक हज़ार साल पुराना है। 10वीं सदी में असम में पाल राजवंश का साम्राज्य था। उस दौरान राजा धर्मपाल ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज से पांच पुजारियों के परिवार को यहां लाकर बसाया था।
शर्मा के अनुसार, ''हमारा परिवार तब से कामाख्या देवी की पूजा करता आ रहा है। इस समय चार ही परिवार बचे हैं। उनके परिवार के कुल पुरुषों की संख्या 465 है। यही लोग कामाख्या मंदिर के मूल पुजारी हैं। एक निश्चित समय के बाद प्रत्येक परिवार के पुजारी की कामाख्या मंदिर में पूजा करने की बारी आती है।"कामाख्या मंदिर देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है। इसका उल्लेख कालिका पुराण में मिलता है।
पौराणिक कथा है कि सती ने जब अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अग्नि समाधि ले ली, उसके बाद उनके वियोग से परेशान भगवान शिव, सती का शव अपने कंधे पर लेकर तीनों लोकों में तांडव करने लगे और तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव को काट दिया। जहां-जहां उनके शरीर के अंग गिरे, वहां शक्तिपीठ स्थापित हुआ। मान्यता है कि माता सती की योनि का भाग कामाख्या में गिरा था और तब यहां कामाख्या पीठ की स्थापना हुई थी।
कामख्या में मौजूद मंदिर, 15 वीं सदी में हुआ था निर्माण
51 शक्तिपीठों में से सिर्फ़ कामाख्या मंदिर को ही महापीठ का दर्जा हासिल है। मंदिर में दुर्गा और जगदंबा का कोई चित्र या उनकी मूर्ति नहीं है। पूजा के लिए कुंड पर फूल अर्पित किया जाता है। इस कुंड को हमेशा फूलों से ढककर रखा जाता है। यह कुंड माता सती की योनि का भाग है जिसकी पूजा-अर्चना की जाती है। इस कुंड से हमेशा पानी रिसता रहता है। इसलिए इसे फूलों से ढक कर रखा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि हर साल जून महीने में यहां होने वाले अंबुबाची मेले के दौरान पास बहने वाले ब्रह्मपुत्र का पानी तीन दिनों के लिए लाल हो जाता है। मान्यता है कि पानी का ये लाल रंग कामाख्या देवी के मासिक धर्म के चलते होता है। दूसरे शक्तिपीठों से अलग कामाख्या देवी के मंदिर में प्रसाद के रूप में भक्तों को लाल रंग का गीला कपड़ा मिलता है। कहा जाता है कि जब मां को तीन दिनों के लिए मासिक धर्म होता है, तो सफेद रंग के कपड़े को मंदिर के अंदर बिछा दिया जाता है। तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाज़े खुलते हैं, तब वो कपड़ा माता के रज यानी लाल रंग से भीगा होता है । @रिपोर्ट अशोक झा
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