गर कि फ़िरदौस बर रू-ए- ज़मी अस्त। हमीं अस्तो , हमीं अस्तो, हमीं अस्त।
लंबे अरसे से धरती का एकमात्र स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर को भीतर तक देखने-जानने की इच्छा थी जो बीते दिनों पूरी हुई, जीवनसंगिनी ज्योति जी Jyoti Srivastava के साथ। ..और हमारे गाइड थे ..वरिष्ठ पत्रकार अनिल माहेश्वरी Anil Maheshwari । अनिल जी श्रीनगर के वाशिंदे ही नहीं रहे थे ..हाल ही में फिर घाटी का दौरा करके आए थे।..तो जैसा उन्होंने कार्यक्रम बनाया ..हमने उसी हिसाब से अपने रिजर्वेशन कराए और निकल लिए यात्रा को। सफर की शुरुआत हुई रेल से । पहला गंतव्य था उधमपुर। सुबह 5:00 बजे हम जैसे कुछेक यात्री ही उस सोए हुए रेलवे प्लेटफार्म पर उतरे। सुबह तब तक हुई नहीं थी पर साफ सुथरा प्लेटफार्म और जगमगाती बिजली की रोशनी में हरियाली और खिले हुए फूल जैसे हमारा इंतजार कर रहे थे। किसी प्लेटफार्म पर इतने तरतीब से लगाए गए पौधे और गमले शायद पहली बार देखे थे। हमें अगली मंजिल पर ले जाने की जिम्मेदारी निभाने वाले सारथी को आने में अभी समय था तो रेलवे की विशिष्ट सेवाओं का लाभ लिया। माहेश्वरी जी का सुझाव शुरू में ही काम आ गया।उन्हीं का यह भी सुझाव था कि एक इलेक्ट्रिक केतली और टी बैग्स का कुछ इंतजाम अवश्य रखिएगा। वह यहां और आगे की यात्रा में कई बार काम आया ।
उस उनींदे से प्लेटफार्म के वेटिंग रूम के बाहर टहलते हुए गुलाबी ठंड का आनंद हमने चाय के कप के साथ लिया। धीरे - धीरे सूरज के उजाले ने अंधेरे की परतों को चीरते हुए अपने होने का एहसास कराया और हमने उन सुंदर पलों को अपने कैमरे में कैद कर लिया। यह अलग बात है कि सूरज देवता का साम्राज्य पूरी तरह फैलने से पहले सामने पहाड़ों पर बादलों ने अपना जलवा बिखेर दिया। खैर हमारे सारथी आसिफ मियां आ गये और अगले एक हफ्ते के लिए हम इन्हीं के हवाले थे। चल पड़े वेरी नाग की ओर। वही अनंतनाग का वेरीनाग , जो झेलम का उद्गम है ।
उधमपुर से वेरीनाग का सफर मात्र 117 किलोमीटर का है। दिल्ली वालों के हिसाब से दो घंटे का लेकिन आसिफ के हिसाब से पांच घंटे का। पर लगे इससे भी ज्यादा, सात घंटे।( रूकते - रूकाते)। पर सफर में थकान नहीं। सूदूर अनंतनाग की ओर साफ चौड़ी सड़कें, पहाड़ों पर फोर लेन हाइवे। अंतरराष्ट्रीय स्तर की नवनिर्मित नौ-नौ किलोमीटर लंबी आधुनिक सुविधाओं तथा संचार माध्यमों से लैस बिजली की रोशनी से झकझक जगमगाती सुरंगों से गुज़रना भी अलग ही एहसास था। कई बार सड़क अथवा सुरंग का निर्माण कार्य चलने से कभी- कभी रफ्तार धीमी अवश्य हुई। पर देखकर अच्छा यह लगा कि कभी उग्रवाद के शिकंजे में फंसी घाटी में इन्फ्रस्ट्रक्चर का काम ज़ोर पकड़ चुका है। पूरे रास्ते में हर बाजार में पेंट तथा हार्डवेयर आदि की नई नवेली खुली दुकानें इस बात की गवाही दे रही थीं कि लोग अब अपने घरों की मरम्मत और साज संवार के लिए वक़्त और पैसा निकालने की स्थिति में हैं। और घरों की बाहरी संरचना तो क्या ही खूब आकर्षक थी। बारिश और बर्फ का सामना करने के लिए ढलावदार छतें, झरोखे, रोशनदान, खिड़कियां जैसे गुड्डे-गुड़िया का घर ही हो। प्यारे प्यारे खुशनुमा रंगों से सजे, बरामदे और घर के आगे-पीछे खिले फूलों से गुलज़ार।
छह दिनों के इस यात्रा में हमारा रात का ठिकाना वेरीनाग, दुकसूम (duksum), गुलमर्ग में J&K TOURISM के गेस्ट्हाउस थे, पहलगाम में होटल और श्रीनगर में हाउस्बोट थे। समुद्र से 1,876 m. (6217 फुट) की ऊंचाई पर स्थित वेरीनाग को कश्मीर घाटी के पर्यटन स्थलों की शुरुआत कहा जाता है। वेरीनाग स्प्रिंग को नीला नाग भी कहा जाता है। पुरातन काल में जम्मू कश्मीर राज्य की नींव रखने वाले ऋषि कश्यप के पुत्र के नाम के आधार पर इसे ‘नीला नाग’ कहा गया बताते हैं।
छोटी सी पहाड़ी पर सजे इस वेरीनाग गेस्ट हाउस के लॉन में बेशुमार रंग-बिरंगे मौसमी फूल खिल चुके थे। कॉटेज में सभी आधुनिक सुख सुविधाएं उपलब्ध थीं, सिवाय wi -fi के। इसी के ठीक सामने सड़क पार कर सरकारी डाक-बांग्ला था और सामने मुगल गार्डन। इस ताल को पहले मुगल बादशाह जहांगीर ने फिर शाहजहाँ-मुमताज़ ने इसके वर्तमान स्वरूप तक पहुंचाया एक सुंदर मुगल गार्डन के रूप मेें। यह एक अष्ट कोणीय ताल के चारों ओर छायादार मार्ग बना हुआ है और यहीं वितस्ता (झेलम) नदी का स्रोत भी बताया जाता है। इसी गलियारे में दो छोटे छोटे मंदिर भी दिखे जिन पर ताजे फूल भी चढ़े हुए थे, पर ताले बंद थे। बाग में नहर के दोनों ओर चीड़ के ऊँचे छायादार दरख्त और क्यारियों में मौसमी फूल। कुछ छोटी बारादरियाँ भी थीं जहां विश्राम किया जा सकता है। कश्मीरी पोशाक में तस्वीरें खिंचवाने के कई मौके थे। जब अपना लोभ संवरण न हो सका। यहीं पर सैंकड़ों वर्ष पुराने देवदार के विशाल पेड़ों का आकर्षण कम नहीं था।
गार्डन में आने वाले ज्यादातर सैलानी स्कूलों के किशोर लड़के-लड़कियां और स्थानीय लोग ही थे। लड़के जहां पैंट-शर्ट में थे तो लड़कियां पूरी बांह के सलवार कुर्ते में दुपट्टे और हिजाब के साथ।( पर सेल्फ़ी का शौक हर कहीं अपने शबाब पर था।) कुछ तो 200 किमी दूर लोलाब (land of love and beauty) से आए हुए थे। लोलाब के बारे में यह जानकारी हमें उनके टीचर-गार्जियन महोदय ने दी और साथ ही बार- बार बेहद इसरार के साथ हमें लोलाब आने का न्यौता भी । एक बात तो है- कश्मीर में आने वाले पर्यटक स्थानीय लोगों के लिए कौतूहल का विषय हैं। वे आपको देखकर मुस्कराते हैं, ज़ाहिर है आप भी मुस्कराए बिना नहीं रह पाते। वे बातचीत करने में पहल करने से नहीं चूकते, पहला सवाल तो यही होता है-आप कहाँ से आए हैं। दिल्ली? दिल्ली में कहाँ?? अधिकतर लोग दिल्ली के मुख्य क्षेत्रों से परिचित लगते हैं। (उनमें से कई स्वयं या उनके परिवार के लोग पढ़ाई अथवा कारोबार के सिलसिले में, ट्रेड फेयर में, दिल्ली आते-जाते रहते हैं।) और अगले ही पल वे आपको अपने घर “चाय-शाय” और “कश्मीरी खाने” के लिए आमंत्रित भी कर डालते हैं। हम मुस्कराकर आभार जता आगे बढ़ जाते हैं क्योंकि हमारा आगे का कार्यक्रम तय होता है। और ऐसा एक नहीं कई बार हुआ। दिन में हमने ‘नदरू यखनी’ का लुत्फ उठाया। वेरीनाग की शानदार शाम के बाद सुबह कब हुई ,पता ही नहीं चला। अल सुबह सैर भी कर डाली। आशंकाएं मन में थीं। इसलिए अनजान सड़कों पर जाने से बचे। लेकिन जहां तक भी गए दुआ- सलाम होती रही और सबकी सुरक्षा कर रहे सेना के जवानों से जयहिंद भी उतनी ही बुलंदी से। लौटते समय कुछ बच्चों को एक पेड़ पर पत्थरबाजी करते देखा तो यह जानने में देरी नहीं हुई कि यह अखरोट का फल है। उधर उनके अब्बू धान को सुखाने में लगे थे और ये बच्चे कच्चे अखरोट को तोड़ने और बीनने में । उन्होने हमें भी उपकृत किया और दो अखरोट भेंट किए। एक खिलाया भी। कच्चे अखरोट का अलग ही आनंद होता है। सोंधापन और मीठापन।
तो अगले सुबह ताजादम होकर अचबल के लिए रवाना हो गए। यहाँ बाग की वास्तुकला और संरचना ने ‘उदयपुर’ की प्रसिद्ध ‘सहेलियों की बाड़ी’ की याद दिला दी। बहरहाल कपासी बादलों की छाँव में आबशारों की हल्की हल्की फुहारों, चिड़ियों की निरंतर चहचहाहट और बच्चों की किलकारियों का आनंद लेते हमने कुछ सुकून के पल अचबल बाग में बिताए।
हमारे कश्मीर यात्रा के लिए सितंबर का समय चुनने का एक विशेष कारण था- इस समय सेब के बागान फलों से भरे होते हैं। हमारा विशेष आग्रह भी यही था। यों तो विदेशों में हमने सेब की पेड़ देखे और एक आध बार खाए भी लेकिन बाग या बागों का आनंद नहीं था। अखबारी व्यस्ताओं ने श्रीनगर या आसपास जाने के मौके पर बार - बार ब्रेक लगाई। पर इस बार इन बागों के कारण ही घाटी आने का एक प्रण पूरा हो रहा था। वेरीनाग आते समय हमने रास्ते में पड़ने वाले बागों को जैसे ही देखा, बौरा से गए । सारथी आसिफ मियां ने बाकायदा हमारी फरमाइश पूरी की और बागों के पास खड़ा कर दिया और सच बात तो यह है कि हम चाह कर के भी शरीफ बनने का नाटक न कर पाए और कुछ सेब तोड़ ही लिए। पेड़ों के सेबों की तुलना दिल्ली में मिलने वाले सेबों से तो नहीं की जा सकती। क्या स्वाद और रस था , इन सेबों में। सेब कथा आगे भी चलती रहेगी। (पंजाब केसरी समूह का दिल्ली से प्रकाशित हिंदी दैनिक नवोदय टाइम्स के प्रधान संपादक अकु श्रीवास्तव की कलम से)
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/