मैं कक्षा एक से पांच तक नगर पालिका बेसिक माडल पाठशाला नंबर एक ,डिप्टी का पड़ाव, कानपुर में पढ़ा। बगल में ही बेसिक माडल पाठशाला नंबर दो थी, जो लड़कियों का स्कूल था। यह पिछली सदी के छठे दशक की बात है। तब तक मांटेसरी पद्धति और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का चलन सुनने में न आता था। स्कूल दस बजे से अपराह्न चार बजे तक लगता था। अम्मा सबेरे सबेरे ही खाना बना देतीं थीं । मैं खाना खाकर ही स्कूल जाता। अपने पूरे विद्यार्थी जीवन भर मैं कभी भी टिफिन बाक्स और पानी की बोतल लेकर पढ़ने नहीं गया। यूनीफॉर्म वगैरह का भी कोई चक्कर नहीं था, सो अभिभावक मेरी पढ़ाई को लेकर तनाव से मुक्त रहे।
स्कूल में दोपहर में इंटरवल होता तो स्कूल के सामने खोमचे वाले आ डटते। चाट, चूरन ,चटनी, फल वाले सब। उनमें से मुल्लू मटर वाले की मुझे आज भी याद है। वह इंटरवल से थोड़ा पहले ही गरमा गरम मटर भरा पीतल का थाल एक हथेली पर कांधे तक उठाए, कांख में बेंत वाला मोढ़ा दबाये और दूसरे हाथ में एक डोलची टांगे आ जाता था। खट्टी, मीठी चटनी, नमक, मिर्च, मसाले की कटोरियों के अलावा उसकी डोलची में तले हुए पापड़ भी रहते। वेशभूषा के नाम पर वह पटरे की जांघिया और मारकीन की बंडी ही पहनता था लेकिन सिर पर तनिक तिरछी कर लगायी गयी टोपी जरूर होती थी जो उसकी ऐंठी हुई काली मूंछों की वजह से उस पर खूब फबती थी और उसके नक्शेबाज होने का पता देती थी। मटर बनाकर देने का भी उसका अपना ही अंदाज था। पत्ते पर मटर रखकर, उस पर नमक मिर्च मसाले और चटनियां डालकर चमचे से चाट बनाते वक्त उसकी गर्दन एक खास लय में हिलती रहती थी गोया जैसे किसी कीर्तन की लय पर मगन हो रहा हो ! चाट का पत्ता पकड़ाते हुए उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान जरूर रहती। उसकी चाट के लिए लड़के लाइन लगाए रहते।
मैं उसका लगभग स्थायी ग्राहक था। उसकी मटर की चाट होती ही इतनी स्वादिष्ट थी। तब बाबू ( पिता जी) मुझे रोज इकन्नी ( एक आना) देते थे। मैं मुल्लू से दो पैसे की मटर और एक पैसे का एक पापड़ लेता था जिसे वह मीसकर मटर में मिला देता था। मटर खाने के बाद नल से पानी पीकर जो आनंद मिलता था उसका क्या कहना! बचा हुआ एक पैसा चूरन चाटने या कम्पट चूसने के काम आता। मुझे याद नहीं पड़ता कि यह सब खाने पीने से मैं कभी बीमार पड़ा होऊं।
शायद हमारी पीढ़ी के बच्चे इतने छुई-मुई नहीं होते थे। हमारी प्रतिरोधक क्षमता इसलिए भी मजबूत होती रही होगी कि तब खान-पान में मिलावट और हवा पानी में प्रदूषण नहीं होता था। पढ़ाई लिखाई का भी कोई तनाव न होता था। कुल जमा तीन चार किताबें ही होती थीं। अब के बच्चों को पल्लेदारों की तरह बस्ते, टिफिन और पानी की बोतल का बोझ ढोते देखता हूं तो उन पर तरस आता है।
सोचता हूं कितना सुखद था हमारा बचपन! ज्यादा कुछ न सही, काम चलाउ जिन्दगी तो जी ही ली (कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार सुशील शुक्ला की कलम से)
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/