"बहुत दिन से अइल नाही गुरु जी, सब ठीक त हौ?
अरे सब ठीक हौ, बस मौक़ा नाही मिलल आये क।
आ जायल करा मौक़ा निकाल के, काफी दिन हो जाला त मन घबड़ाये लागला।"
लिम्बडी छात्रावास के सामने चाय की दुकान से मुझे आने की मनुहार करता ये संवाद मजनूँ जी का है। मेरे इस शिक्षक की आवाज मुझे रिश्तों को दिल की गहराइयों में बसाने का पाठ पढ़ाती है। उसे मालूम है कि मैं जितनी बार आऊंगा, पल्टन भी साथ आएगी, और उसे पैसा नहीं लेना है, पर उसे यह भी मालूम है कि खनखनाते सिक्के और कागज़ के टुकड़े रिश्तों से बड़े नहीं होते।
दरअसल मेरे वास्तविक गुरु तो चाय की दुकानें, चट्टी-चौमुहानियां, अड़ी-अड्डे और चलते-फिरते फ़क़ीर ही रहे हैं। इस डगर से उस डगर नापते हुए मैं इतना कुछ सीख गया जो बंद कक्षाओं में किताबों और कलम की रस्साकशी से नहीं सीखा जा सकता।
मुझ जैसे आजाद पक्षी की कक्षाएं कैंपस की सड़कों और चाय-पान की दुकाने थीं, जहां मुफ्त खान-पान के साथ-साथ वहां झगड़ रहे तमाम प्लेटो-अरस्तू, हॉब्स-लॉक -रूसो, चाणक्य-कणाद और शंकराचार्यों-मठाधीशों की बहस और ज्ञान से प्रवाह से ये पौधा पुष्पित-पल्लवित होता रहा।
सच तो यह है कि मंदिर पर बिहारी चा चाय वाले, बालकिशुन, राजकुमार, विनोद भाई, त्यागी जी, मंदिर के पीछे बचाऊ चाय वाला, बुलु नाऊ, आयुर्वेद में रामजी चाय वाला, मंदिर पर लाइ-चना और फुटकर अमरुद-जामुन बेचती दादियां, डालमिया के सामने सुभाष पंचर वाला और हाँ, रात का चौकीदार रामाश्रय यही सब मेरे गुरु हैं जिन्होंने मुझे इस झंझावाती दुनिया में टिके रहने के गुर सिखाये। जिन्होंने मुझे कंगाली में मुक्त-हस्त बांटना सिखाया, मुसीबतों में हंसना सिखाया, आंसुओं को जब्त करना सिखाया और सिखाया हर वो हुनर जो इस रंग बदलती दुनिया में छाती ठोंक कर जीने के लिए जरुरी है।
कैंपस से बाहर निकल कर गोपेश पांडे, सुशील त्रिपाठी, मंसूर आलम जैसे गुरु मिले जिन्होंने हर क्षण-हर पल कुछ ना कुछ सिखाया। ये बात दीगर है कि इन कक्षाओं को कई बार मुझे राकेश पांडे के साथ साझा करना पड़ा, जो इन्हीं कक्षाओं के बदौलत दैनिक-जागरण के सम्पादक हो गए, और मैं लंका पर स्थित "52 चाय वाली यूनिवर्सिटी" का स्वनियुक्त प्रोफ़ेसर हो गया।
डरना किसी से नहीं है का मूल मन्त्र पत्रकारिता के भीष्म पितामह गोपेश पांडे ने दिया। ईमानदार पत्रकार से प्रशासन कैसे थर-थर कांपता है और घिघ्घी बंधी रहती है, ये मैंने उनको देख कर जाना। उन्होंने मेरे ह्रदय में ईमानदारी के रुतबे, सत्य की ताकत और ठसक का वो बीज डाला जो एक घना पेड़ बनकर मुझे दुश्वारी में छांह दिए रहता है।
फकीरी-फक्कड़ई और अलमस्त जीवन जीने की कला सुशील त्रिपाठी ने सिखाई, और सिखाया कि दर्द को कैसे छुपाना है। यह भी सिखाया कि कैसे उस बड़ी से बड़ी इनायत को जूते की नोंक पर उछाल देना है, जो कलम विचार और सिद्धांतों से समझौता करने पर मिला करतीं हैं। पान की लालिमा से रंगे खिलखिलाते दांतो के साथ धुंए के छल्ले निकालते सुशील त्रिपाठी कभी फिदेल कास्त्रो, तो कभी चे ग्वेरा लगते थे, सिद्धांतों पर उनके तेवर भगत सिंह के जैसे थे और जिंदगी को उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद की तरह जिया।
सबसे अलबेले मंसूर आलम ने मुझे उस उस रूहानी तिलस्म से रु-ब-रु कराया जिसे तोड़ने के लिए बड़े-बड़े साधू-संत, फ़कीर-औलिया जीजान लगाए रहते हैं। सुबह नमाज के बाद एक टांग पर संकटमोचन जी में बजरंगबली की आराधना, तो मोबाइल पर बाबा विश्वनाथ की छवि को वॉलपेपर बनाना। हरदम मुस्कराते मंसूर से मैंने यारबाजी सीखी, मुस्कराना सीखा और "अबे छोड़ो, ये नहीं हुआ तो क्या जिंदगी चली गयी, ऊपर वाला और मौक़ा देगा" का जज़्बा सीखा।
आज भी छात्र की भूमिका निभा रहे मुझको याद नहीं कि कितनों ने सिखाया और जानता नहीं कि अभी कितने सिखाएंगे, पर ये तथ्य अविवादित है कि मुझे सिखाया तो पारस-पत्थरों ने है, जिन्होंने मुझे खरा सोना तो बनाया ही, चट्टानों जैसी मजबूती भी दी ताकि कभी डरूं नहीं-कभी बात से फिरूं नहीं।
मेरे सारे शिक्षकों को हार्दिक नमन और चरण-स्पर्श। ( बनारस के रस को रगों में पिरोेने के साथ दुनिया में बिखेरने वाले रत्नाकर त्रिपाठी की कलम से)
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