हर वर्ष वर्षा की रवानगी के पहले थालियों में अपने अंतहीन स्वाद की क्यारियों के साथ भूईफोर बाजार में दिखाई देने लगता है। जंगल के इलाको के भुईफोर जहां पतले होते हैं वही नहर मिट्टी के पटाव वाली जगह के भूईफोर उंगलियों के जितने मोटे होते है जो कि क्वार के महीने तक बाजार में बने रहते हैं जिनके इंतजार में पूरा का पूरा बरस बीत जाता है।
वर्षा ऋतु के प्रारंभ होते ही आसपास के जंगलों से सफड़ा बिकने के लिए बाजारों में आता है किंतु भादो के आखिरी में होने वाली बरसात में गांवों बागो के खेतों नहरो के पास की मिट्टी दरकने लगती है और उसके अंदर से झांकते हुई चीज को शौकीन पहचान लेते है दूधिया सफेद और सिर पर गोल टोपी का आकार लिए ये देशी मशरूम जिन्हे स्थानीय भाषा में भूईफोर कहते हैं लोगों की पहली पसंद होती है इसके प्रति लोगो की दीवानगी का आलम इस कदर होता है कि लोग बाग गाड़ी रोककर भावताव करते नजर आते है। मिट्टी से सने होने के बावजूद भी हल्का सा छिलने पर उज्ज़र रंग उसके ताजगी की बानगी होती है जो अपने साथ असंख्य स्वाद को गढ़ती हैं।
भूइफोर शाकाहारी होते हुए भी उन लोगो को विशेष रूप से भाती है जो नानवेज के शौकीन होते हैं साथ ही उन लोगो की खास पसंद होती है जो पूर्वकाल में नानवेज खाते रहे है भूइफोर उनके मन मस्तिष्क में संचित नॉनवेज के स्वाद को एक आकर देता है जो मसाले में पककर लगभग उसी के जैसा लगता है।
प्रकृति अपने साथ न जाने कितने उत्पाद हमारे बीच लाती है और हम सब उसे अपने स्वाद के अनुसार मनचाहा व्यंजन बनाते हैं।
तो आइए आपको एक ऐसे अनोखे स्वाद के सफर पर लिए चलते हैं।
इसकी तैयारी भी कम झंझट वाली नही एक बड़े से बर्तन में पानी में आकंठ तक डूबे भुईफोर को भिगोया जाता है और धीरे धीरे इसकी मिट्टी साथ छोड़ती जाती है और आसपास मौसम की पहली बारिस की मिट्टी की खुशबू से पूरा रसोई गुंजायमान हो उठता है उधर खड़े गरम मसाले भूइफोर को निहारते हैं तो लहसुन की छिली कलियां और कटे हुए प्याज की परत थालियों से झांकते हैं कि आज मुझे किस चीज में डाला जाएगा उधर प्याज गुलाबी होते हुए देखता है लहसुन अदरक के पेस्ट में मिलकर कड़ाही फूली नहीं समाती तेजपत्ते की पत्तियां किसी फूल की पंखुड़ी की भांति इठलाती हुई नजर आती है और अब गरम मसाले प्याज और लहसुन से लिपटकर रंग और स्वाद के अनंत यात्रा बढ़ने लगते है शेष योगदान हल्दी मिर्च का बना रहता है और अब भुईफोर को कई पानी से साफ करके कड़ाही में डाल दिया जाता है। जैसे वर्षो के बाद अपने मिलते है ठीक वैसे ही कड़ाही में भावनाओं का मिलन नई संभावनाओं के रंगो को गढ़ता है। उधर हरी धनिया मुस्कराती हुई कटने के लिय बेकरार रहती है। कुछ देर की उबाल और ढेरो स्वादो को लिए अब भुईफोर तैयार है। रोटियां गढ़ते हुए आज न जाने क्यों लोइयां कुछ अधिक बन जाती है इतने खूबसूरत स्वाद की कहानियों में कुछ एक रोटियां अधिक हो जाएं तो इसे अधिक नहीं कहते। (यूपी के बस्ती जिले के कलमकार मयंक श्रीवास्तव की कलम से)
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