उत्तर बंगाल में आज प्रकृति और वृक्ष से भावनात्मक तथा आध्यात्मिक जुड़ाव का पर्व करमा जो धूम धाम से मनाया जा रहा है। मांदर की थाप पर थिरक रहे है समाज के लोग। सोमवार को सरकारी अवकाश है। वोटबैंक के लिए इस उत्सव से विभिन्न जन प्रतिनिधि जुड़ रहे है।
करम एक वृक्ष है, जिसे आदिवासी समुदाय भादो महीने की एकादशी यानि आज को पूजा जाएगा। पूजा के पश्चात् रातभर नृत्य फिर सुबह में युवक-युवतियां नदी या किसी तालाब में पोरहो (विसर्जित) कर देती हैं। 'करम' महज एक वृक्ष नहीं है, ये आदिवासियों की ऐतिहासिक धरोहर है, अध्यात्म और जीवन का अभिन्न अंग है। 'करम त्यौहार' महज एक वृक्ष की पूजा नहीं है, बल्कि समस्त पृथ्वी और पुकराल (यूनिवर्स) को सजीव बनाये रखने का प्रतीकात्मक प्रयास है। आदिवासियों के जीवन दर्शन का हिस्सा है 'करम त्यौहार', जिसे जलवायु परिवर्तन और वैश्विक ऊष्मीकरण के वैकल्पिक इलाज की तरह देखा जा सकता है।
'करम त्यौहार' के लिए किसी और त्यौहार का संदर्भ लेने की जरूरत नहीं
करम 'भाई-बहन' के प्यार का त्यौहार है, करम 'भाई-भाई' के प्यार का त्यौहार है। करम, बहन-बहन के प्यार, और भविष्य में होने वाले पति-पत्नी और बच्चे की कल्पना का भी त्यौहार है।
करम जीवन-साथी की कल्पना और आने वाले पीढ़ी के सृजन की कहानी है। 'करम त्यौहार' आदिवासियों का रक्षा बंधन भी नहीं है, न ही इसका संबंध विश्वकर्मा से है। कुछ साथियों का मानना है कि 'करम पूजा' भाई-बंधन का रक्षा बंधन है। मेरी समझ से 'करम त्यौहार' के लिए किसी और त्यौहार का संदर्भ लेने की जरूरत ही नहीं है।
'करम' की कहानी थोड़े-बहुत फर्क के साथ प्रचलित है। विभिन्न आदिवासी समुदायों में 'करम' की कहानी थोड़े-बहुत फर्क के साथ प्रचलित है, लेकिन कमोबेश कहानी का आधारभूत ढांचा एक ही है। भादो के एकादशी को करम त्यौहार मनाया जाता है। करम त्यौहार के नौ दिन पहले गांव के युवक-युवतियां सुबह-सुबह खाली पेट खेत की ओर चले जाते हैं और कुछ बालू और कुछ मिटी उठाकर एक जगह थोड़ा सा प्राकृतिक खाद डालकर तथा विभिन्न प्रकार के बीज डालकर तैयार करती है। फिर गांव में युवतियों की संख्या अनुसार अपने-अपने घर से लाये गए टोकरी में डालकर हल्दी पानी से सींचते हैं। अब हर रोज सुबह-सुबह खाली पेट रहकर नहाने-धोने के बाद बीज वाले टोकरी में हल्दी पानी डाला जाता है और धीरे-धीरे बीज पौधे को बड़ा किया जाता है। ये प्रक्रिया नौ दिन तक जारी रहती है और अंतिम दिन लगभग सारे युवक और युवतियां उपवास करते हैं, जिसमें युवतियों की तादाद ज्यादा होती है। इनका मकसद अपने मंजिल प्राप्ति के लिए प्राकृतिक प्रतीक वृक्ष करम से आशीर्वाद लेना हो सकता है।
आदिवासियों के प्रायः त्योहार और शुभ कार्य बढ़ते चांद अर्थात् शुक्लपक्ष के दिनों में ही संपन्न करने की प्रथा रही है। पीला रंग सूर्य को समर्पित है। यह उर्जा, बौद्धिकता, शांति, नकारात्मक शक्तियों को दूर कर सुख-समृद्धि लानेवाला और शुद्धता का प्रतीक है, जो करम वृक्ष के काष्ठ का भी रंग है। शुद्ध रूप से हल्दी-पानी छिड़क कर पूजा और 'खोंसी' के लिये प्रयुक्त होने वाले 'जवा फूल' भी पीले होते हैं। भादो मास के शुक्लपक्ष एकादशी को उत्तर बंगाल व, झारखंड और इससे सटे राज्यों के अधिकांश आदिवासी-मूलनिवासी अपने देव-वृक्ष करम को परंपरागत अखाड़ा-आंगन में स्थापित कर प्रकृति के प्रति अपनी आस्था और अलौकिक दिव्य शक्ति की स्वयं में अनुभूति करते हुए अपने प्रकृति प्रेम, आध्यात्मिक जीवन-दर्शन, सामाजिक परंपरा और सामूहिकता का भाव प्रदर्शित करते हैं। धान की फसल लगने के बाद अर्द्ध सफलता वाली खुशी होती है, साथ ही पूर्ण सफलता के लिए कामना की जाती है कि खेतों में लगाया गया फसल सुरक्षित और अच्छा हो, फसलों के तैयार होने तक पर्याप्त बारिश हो ताकि गांव-समाज में अन्न-धन की प्रचुरता और संपन्नता बनी रहे। वानिकी संकाय में सहायक प्राध्यापक-सह-वैज्ञानिक ज्योतिष कुमार केरकेट्टा 'पहान' का कहना है कि करम, हल्दू, हरदू जैसे नामों से जाने और पाये जाने वाले बंगाल,झारखंड की माटी के बहुवर्षीय देव-वृक्ष का वानस्पतिक नाम एडाईना कॉर्डीफोलिया है, जो रुबियेसी कुल की एक प्रजाति है। रुबियेसी कुल का विस्तृत विवरण रोबर्ट स्कॉट ट्रूप के छठे वॉल्यूम (1921) 'द सिल्विकलचर ऑफ इंडियन ट्रीज' के पृष्ठ संख्या पांच से 46 तक में संकलित हैं। भारत में यह वृक्ष अधिकांशतः पश्चिम के राजस्थान को छोड़कर नम तथा शुष्क पतझड़ वनों में अन्य वृक्षों के साथ मिश्रित रूप से पाया जाता है। हिमालय की तलहटी, ढाल, यमुना से लेकर पूरब की ओर असम तक कहीं-कहीं सघन रूप से भी पाया जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, मेघालय तथा दक्षिण भारत के प्रायः राज्यों में पाया जाता है। इसका फैलाव बर्मा, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों में भी है। भारत में उत्तराखंड राज्य के एक नगर हल्द्वानी का नाम भी इस वृक्ष प्रजाति के नाम पर पड़ा है। यहां यह वृक्ष प्रचुर मात्रा में पाया जाता था।कुमाऊंनी भाषा में 'हल्द्वेणी' या 'हल्दू वणी' का तात्पर्य ही हल्दू के वन से है. हलांकि, यह शुष्क 1000 से 2500 मिलीमीटर की औसत वार्षिक वर्षा वाले इलाकों में रहना पसंद करता है, किन्तु 4000 मिलीमीटर की औसत वार्षिक वर्षा को भी सहन कर सकता है। यह अपने बड़े प्राकृतिक अनुकूलन क्षमता को प्रदर्शित करता है. इसकी लकड़ी अत्यंत चिकनी रेशे वाली, पीले रंग तथा तने के छाल और पत्ते के रसों में एन्टीसेप्टिक गुण होते हैं।
अंग्रेजी में इसके वानस्पतिक नाम में प्रयुक्त कॉर्डीफोलिया का आशय कॉर्डियक अर्थात दिल से है। नामकरण के दौरान यह देखा और माना गया कि इस प्रजाति की पत्तियों का आकार इंसानी दिल के समान है। यह वृक्ष अपने अधिकतम आयु और वृद्धि को प्राप्त करते हुए इसके धड़ अंदर से खोखले हो जाते हैं। अतः ये प्राकृतिक रूप से गुफानुमा बन सकते हैं। भारतवर्ष में पूजनीय वृक्ष के रूप में पीपल और बड़गद सर्वविदित हैं, जबकि कई वृक्षों और तुलसी स्वरूप पवित्र पौधे ग्रह-नक्षत्रों और देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, ऐसा बताया गया है। देवदार अथवा प्राचीन शब्द 'देवदारु', जिसे देवताओं का प्रिय वृक्ष भी कहा गया है, की लकड़ियों का प्रयोग हवन सामग्री के रूप में होता है। हो, मुंडारी और संताली भाषा में प्रयुक्त होने वाले 'दारू' अथवा 'दारे' शब्द का अर्थ भी वृक्ष होता है, जो हो, मुंडा और संताल आदिवासी समुदायों द्वारा बोली जाने वाली इसकी प्राचीन संज्ञा है। उत्तर बंगाल, झारखंड के आदिवासी प्रकृति से जुड़ाव और नववर्ष का स्वागत, शुरुआत मार्च-अप्रैल माह से सखुए के वृक्ष में नए फूलों और कोमल पत्तों के आने पर सरहुल पर्व से इस कामना के साथ करते हैं कि सृष्टि की रक्षा, सृजन और जनकल्याण हो। इसे धरती और सूर्य के विवाह के तौर पर भी मनाया जाता है। पूरे वर्ष के कृष्ण और शुक्ल पक्ष के कुल चौबीस एकादशी तिथियों के साथ-साथ पीले रंग के अपने धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। धान की फसल लगने के बाद अर्धसफलता वाली खुशी होती है। साथ ही पूर्ण सफलता के लिए कामना भी की जाती है कि खेतों में लगाई गई फसल सुरक्षित रहे. हानिकारक कीट-व्याधि न बढ़े, फसलों के तैयार होने तक पर्याप्त बारिश हो, ताकि गांव-समाज में अन्न-धन की प्रचुरता और संपन्नता बनी रहे. इसी उम्मीद के साथ इस दिन के बाद से ही युवक-युवतियों के नए रिश्ते के लिए चर्चा शुरू होने और विवाह की परंपरा रही है। आदिवासी-मूलनिवासी करम को देव-वृक्ष के रूप में पूजते हैं। इसे अन्न, धन और संपन्नता की वृद्धि कराने वाला माना गया है। करमा त्योहार के दिन अखड़ा में पूजा में शामिल होने और गांव के पाहन या किसी बुजुर्ग द्वारा करमा की कहानी सुनाई जाती है। कहानी की गूढ़ता पर गहराई से गौर किया जाए, तो यह परिवार और समाज के लिए आदर्श आचरण अथवा नीति-शिक्षा जैसी प्रतीत होती है। अर्थात पूजा और अन्य अच्छे कर्म की सफलता और संपन्नता प्राप्ति के लिए धार्मिक, परिवार-समाज में आपसी प्रेम, दया, समरसता-सामूहिकता आदि सद्गुणों का होना जरूरी माना गया है। बुरे कर्मों का फल बुरा बताया गया है, किंतु पुनः अच्छाई की ओर प्रवृत्त होने पर सफलता और संपन्नता फिर से लौट आती है। करमा पूजा की कहानी गांव की जुबानी, गर ऊपर डहर रहे, डहर ऊपर शहर रहे... इनमें सिंगापुर, लंदन की बात कह गए पुरखा
धार्मिक-सामाजिक व्यवस्था में करम वृक्ष के माध्यम से प्रकृति की शक्ति को साधने की विधि और फल प्राप्ति हेतु सुझाई गई पूजा विधि, अच्छे कर्म तथा सद्गुणों के धागों से मानो गांव, परिवार और समाज को पुरखों द्वारा पिरोया गया था, जो आज भी यहां के गांवों में देखने को मिल जाते हैं. आर्थिक और पेशेगत अंतर हो सकते हैं, किन्तु ऊंच-नीच के जाति भेद नहीं पाए जाते. आर्थिक और पेशेगत अंतर को पाटने के लिए भी गांव समाज ने 'मदईत' (मदद) व्यवस्था बना रखा था, जिससे हर घर में अन्न, धन और संपन्नता बनी रहे, ताकि त्योहारों में सभी सामूहिक रूप से नाच-गा सकें और विपत्तियों में भी सभी एकजुटता का परिचय दे सकें। गांवों की यही खूबसूरत पहचान रही है, जो परंपरागत शासन व्यस्था के कमजोर होने के वाबजूद सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से यहां के लोगों को जोड़े हुए है। भोजन अथवा शिकार की तलाश में अपने भाइयों के जाने से पहले कुंवारी बहनें अपने भाईयों के लिए याचना करती होंगी कि वे सुरक्षित घर लौटें। सकुशल लौटकर आने वाले भाइयों ने बताया होगा कि वे कैसे हिंसक जंगली जानवरों के हमले होने पर भागकर और छिपकर करम वृक्ष के खोडरों में जान बचाते और आश्रय पाते होंगे। घायल-चोटिल अथवा खरोंच लगने पर करम के संक्रमण-रोधी पत्ती-छाल का उपयोग कर ठीक होते रहे होंगे। पूर्वजों द्वारा स्थापित करम वृक्ष के साथ भावनात्मक सोच की झलक शायद आज भी करम पूजा के दौरान वृक्ष के सम्मान और कहानी के रूप में देखे-सुने जा सकते हैं, जो रक्षा एवं सुरक्षा का प्रतीक हैं। अतः इसे देव वृक्ष माना गया होगा। करमा त्योहार सामान्य जनों के अलावा विशेष रूप से कुंवारी बहनें अपने भाइयों के लिए उपवास रखती हैं और अपने भाइयों की सुख-समृद्धि की कामना एवं उनके दीर्घायु के लिए पूजन करती हैं।
करमा पूजा में जावा उठाने की परंपरा बेहद खास, लोकगीत की गूंज के साथ 7 दिनों तक धूमधाम से मनेगा प्रकृति पर्व
औषधीय जरूरतों को छोड़ इसके काष्ट के घरेलू उपयोग को स्थानीय समुदायों ने वर्जित माना है। पूजा के लिए करम देव को गांव-घर में भादो मास की शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन ही आमंत्रित करने से लेकर स्थापन और विसर्जन तक विशेष विधान पुरखों द्वारा सुझाए गए हैं, जो प्रकृति की वृक्ष शक्ति को साधने की सामूहिक पुरातन विधि मालूम होती है, ताकि गांव-परिवार की रक्षा, फसलों और हर धन की सुरक्षा हो एवं समाज में सामूहिकता के साथ संपन्नता आवे. यह पर्व प्रकृति की उदारता, उसके प्रति हमारी कृतज्ञता, संरक्षण और प्रकृति के साथ सामूहिक उत्सव का एक आदर्श भाव प्रस्तुत करता है। ( पश्चिम बंगाल के कलमकार अशोक झा की कलम से )
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/