राम औतार घर परिवार से बाहर की दुनिया का मेरा पहला दोस्त था। जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया तब स्कूल में ही पहली बार हमारी मुलाकात हुई थी। कैसे और क्यों, यह सब तो अब याद नहीं। स्वभाव से भी हम दोनों एक दूसरे से बिल्कुल अलग थे। मैं अन्तर्मुखी, शर्मीला और संकोची, बल्कि कहें दब्बू किस्म का था जब कि राम औतार मुंहफट, खिलंदड़ा और दबंग था। स्वभाव से एक दूसरे के विपरीत होना ही शायद हमें नजदीक लाया होगा। अनजाने ही हम एक दूसरे के पूरक बन गए होंगे। लेकिन इन बातों की समझ तब कहां थी? मासूमियत की खूबी यही है कि वह तर्क के शास्त्र की कायल नहीं होती।
हमारे साथ महेश चन्द्र गुप्ता नाम का एक लड़का पढ़ता था, जो खुद को बकैत समझता था। किसी न किसी से जब तब उसका पंगा हुआ करता था। एक दिन, याद नहीं किस बात पर, वह मुझे हड़काने लगा। राम औतार ने आव देखा न ताव, लपक कर उसका कालर पकड़ लिया। गरज कर बोला, " अबे पहले हमसे बात कर! उससे बोला तो पटक कर मारेंगे। " महेश ने राम औतार का तेवर देखा तो चुपचाप खिसक लिया। इसके बाद वह मुझसे दूर ही रहता। इस तरह जाने अनजाने राम औतार स्कूल में एक तरह से मेरा संरक्षक जैसा बन गया था।
उसका घर स्कूल के पास ही एक हाते में था। कभी कभी इंटरवल में वह घसीट कर अपने घर ले जाता था। उसके पिता जी सब्जी और फल बेंचने के लिए फेरी लगाते थे। राम औतार खुद खाना खाता था और मुझे अमरूद या केला खिलाता था।
पांचवें दर्जे के बाद प्रायमरी स्कूल छूटा तो राम औतार का साथ भी छूट गया। कुछ पता नहीं कि उसकी जिन्दगी कैसी कट रही होगी या कटी होगी। (कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार सुशील शुक्ला की कलम से)
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