चवन्नी का जमाना चला गया लेकिन दिल-दिमाग में बसी खूबसूरत यादें आज भी जिंदा है। सोशल मीडिया पर चवन्नी की फोटो देखकर बचपन के दिन याद आ गए जब एक,दो,तीन,पांच,दस,बीस व पच्चीस पैसे के सिक्के होते थे। आज के बच्चों शायद ही जानते हो कि 25 पैसे के सिक्के को चवन्नी कहा जाता था। चवन्नी बवपन में अपने लिए बहुत बड़ी चीज थी। बस्ती शहर में राजकीय इंटर कालेज के पास मौजूद प्राइमरी पाठशाला में पढ़ने जाने के दौरान इन सब सिक्कों से अपना गहरा नाता था। नार्मल स्कूल के बाद जब राजकीय इंटर कालेज बस्ती में नाम लिखाया गया तो इंटरवल में कुछ खाने के लिए इन सिक्कों को अम्मा-पापा हाथ में थमा देते थे बहुत खुशी होती थी। एक पैसे का चौकोर, दो पैसे और दस पैसे का अष्टकोण, तीन और बीस पैसे का षटकोण, पांच पैसे का चौकोर तथा गोल चवन्नी यानी चार आने के सिक्के बाजार की शान हुआ करते थी। बीस पैसे का पीला पीतल का सिक्का जिस पर कमल का फूल बना होता था उसकी शान देखते ही बना करती थी। एक आना मतलब छः पैसे हुआ करता था। इस लिहाज से पच्चीस पैसे को चार आना या चवन्नी, पचास पैसे को आठ आना या अठन्नी और दोनों सिक्के मिलकर होते थे बारह आने। फिर एक रूपए का मतलब सोलह आना हुआ करता था। किशोर कुमार अभिनीत सिनेमा में ‘पांच रूपैया बारह आना . . . तो राज दिल मांगे चवन्नी उछाल के. . .। जैसे गीतों की बहार हुआ करती थी गुजरे जमाने में। नायिका के ठुमके या नायक के डायलाग सुनकर दर्शक पर्दे की ओर सिक्के उछाला करते थे। अनेक एसे दृश्य हुआ करते थे जिनमें सिक्कों की खनक टाकीज में सुनाई दे ही जाती थी।
अपने बचपन में चवन्नी ( 1957 में दशमलव प्रणाली प्रचलन में आने के बाद 25 पैसे का सिक्का ) अपने लिए बहुत मूल्यवान हुआ करती थी। भरपेट चाट खा सकते थे, चाय पी जा सकती थी, रिक्शे की सवारी की जा सकती थी। मगर धीरे धीरे उसके मूल्य का क्षरण होता गया और आखिरकार जून,2011 में वह काल कवलित हो गई। उसके सारे छोटे भाई भी। नयी पीढ़ी तो उससे अपरिचित ही रहेगी।कभी कभी आदमी को चवन्नी कम करार दिया जाता था।अमें छोड़ो ये तो चवन्नी कम है। अस्सी के दशक की बात है बस्ती शहर में कटेश्वरपार्क पर नागपंचमी के मौके पर पैंतीस पैसा लेकर मेला देखने गया था, मेले में चाट, पट्टी, व गुल्लइया खाये थे और पांच पैसा वापस भी लेकर आये थे। एक जुमला भी चलता है चवन्नी छाप कहीं के।। यह मुहावरा आज भी प्रचलित है --चवन्नी भर की अक्ल नहीं है। 1957 के बहुत बाद तक चवन्नी, अठन्नी और पुराने आने चलन मेन रहे हैं। किसी समय पकके चौराहे से रोडवेज तक रिक्शे पर एक सवारी चार आने में शेयर कर पहुँच जाते थे। रिक्शे वाले आवाज देते रहते - एक सवारी रोडवेज बस डिपो! चार आने की चाय की चुस्की संग अखबार पढ़ने का नशा पक्के पर कल्लू के चाय की दुकान से ही लगा। एक एक करके बाजार से सिक्के गायब होते जा रहे हैं। कागज के नोट का स्थान अब डिजिटल मनी ने ले लिया है। एक समय था जब लोग सैर सपाटा या दूसरे शहर जाते थे तो पास में आने जाने के साथ ही साथ खर्च के लिए पर्याप्त धनराशि ‘अंटी‘ में बांधकर ले जाया करते थे। आज समय बदल गया है। लोग कम ही पैसा अपने पास रखते हैं। जरूरत पड़ने पर एटीएम डेबिट या क्रेडिट कार्य के माध्यम से पैसा निकाल लिया जाता है। आज की युवा पीढ़ी के लिए आने या एक, दो, तीन, पांच, दस, बीस पैसे के सिक्के क्या होते हैं यह कोतुहल का विषय हो सकता है। अस्सी के दशक तक आते आते रूपहले पर्दे पर जब खलनायक अजीत ‘पांच हजार‘ के हीरे की स्मगलिंग करता था तब लोग उसे कोसा करते थे। आज पांच हजार की औकात क्या बची है? अगर पच्चीस पैसे के महत्व को अपने जीवन में देखा जाए तो सरकार का यह फैसला पीड़ादायक ही लगता है। एक दशक से ज्यादा समय से ‘सवा‘ शब्द को सुनने और जीवन में महत्वपूर्ण इस सवा का अब अंत हो गया। बाजार से चवन्नी के गायब होने से श्रद्धालुओं को सवा रूपए का भोग प्रसाद लगाने में तकलीफ का सामना करना पड़ेगा। आस्था के साथ ही साथ चवन्नी से लोगों का अपनापन का नाता गहरा हो चुका है। उम्रदराज हो रही पीढ़ी तो इस चवन्नी का भरपूर उपयोग कर चुकी है।
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