मेरी कोई 6 दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। लेकिन कभी कोई किताब पैसा दे कर नहीं छपवाई। न ऐसी कभी नौबत आई। बल्कि शुरू के समय में तो प्रकाशकों ने बिना मांगे , सम्मानजनक पैसे भी दिए। लगातार दिए। किताब छापने के पहले ही। एडवांस। लेकिन इधर मंज़र बदल गया है। पैसे वालों की बीवियों ने , भ्रष्ट अफसरों और विश्वविद्यालयों , डिग्री कॉलेजों के प्राध्यापकों ने अपना हराम का पैसा प्रकाशकों को दे-दे कर उन का दिमाग ख़राब कर दिया है। आदत बिगड़ गई है प्रकाशकों की। अजब मंज़र है कि पैसा दे कर अपना श्रम भी दीजिए। ऐसी क्या लाचारी है भला। यह तो लेखकों की हिप्पोक्रेसी है।
यह तो किसानों से भी गई गुज़री बात हो गई। कोई किसान भी ऐसा ढूंढे नहीं मिलेगा कि अपनी उपज भी दे और पैसा भी दे। लेकिन सब के हक़ की बात करने वाला लेखक , अपना ही हक़ मारते हुए , अपने परिवार के हिस्से का पैसा भी प्रकाशक को दे देता है। ऐसी कौन सी लाचारी है भला। यह तो एक तरह से दहेज़ देना हुआ। कि बेटी भी किसी परिवार को दीजिए और दहेज़ भी। प्रकाशकों को दहेज़ देना बंद कीजिए। प्रकाशक काग़ज़ , छपाई , बाइंडर को एडवांस पैसा देता है। ख़रीद के लिए अफ़सर और मंत्री को लाखो की रिश्वत देता है। दुकानदार को बेचने के लिए कमीशन देता है। सारे खर्च करते हुए अपने कर्मचारियों को वेतन भी देता है। बस नहीं देता तो बस लेखक को रायल्टी। उलटे अब लेखक से पैसे मांगता है।
सच बताऊं मेरे लिए जिस दिन पैसा दे कर किताब छपवाने की नौबत आई , मर जाना पसंद करुंगा। लिखना बंद कर दूंगा। फिर कोई मेरी किताब छापे या भाड़ में जाए , मेरा ब्लॉग सरोकारनामा तो है ही। 13 लाख से अधिक लोग पढ़ते हैं हमारा सरोकारनामा। इस इंटरनेट युग में प्रकाशक अब बाध्यता नहीं हैं। रचनाकारों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि रचना से प्रकाशक हैं , प्रकाशक से रचना नहीं। जिस दिन रचनाकार अपना आत्म-सम्मान और स्वाभिमान का मान करना सीख लेंगे तय मानिए पैसा दे कर किताब छपवाने का मंज़र बदल जाएगा। अब प्रकाशक सीधे पैसा देने से आनाकानी करते हैं तो मैं उन से एक सौ किताब एकमुश्त ले लेता हूं। दोस्तों में बांट देता हूं। किताबों की बढ़िया चर्चा हो जाती है। फ़िलहाल यही मेरी रायल्टी है।
अपनी किताब खुद छापना , बतौर प्रकाशक और बात है। प्रेमचंद , जैनेंद्र कुमार , यशपाल , उपेंद्रनाथ अश्क जैसे बहुतेरे लेखक अपनी किताबों को बतौर प्रकाशक छापते रहे हैं। आप खुद प्रकाशक बन कर अपनी किताब छापिए , बेचिए कोई हर्ज नहीं। लेकिन पैसा दे कर किताब छपवाइए , यह तो अपराध है , पाप है , अपने लेखक के प्रति।
बस यही दिक्कत है। प्रकाशक लोग किताब दुकान पर रखते नहीं। और कहते हैं कि किताब बिकती नहीं। किसी किताब की दस-बीस प्रति छाप कर आप यश:प्रार्थी लेखक को तो मूर्ख बना सकते हैं, विशाल पाठक वर्ग को नहीं। फिर लेखक की पूंजी पर किताब छाप कर अगर कोई प्रकाशक बनने का भ्रम पालता है तो नि:संदेह मैं इसे बेशर्मी ही कहना चाहूंगा। कहते रहने दीजिए ।
ऐसे किस्से बहुत हैं मेरे पास। एक सुना देता हूं। एक लेखक , संपादक हुए हैं अरविंद कुमार। हिंदी थिसारस के लिए जाने जाते हैं। प्रकाशक से वह 15 प्रतिशत रायल्टी का अनुबंध करते थे। प्रकाशकों की बेइमानी से सर्वथा परिचित थे। सो अनुबंध में दर्ज करवा देते थे कि प्रति वर्ष न्यूनतम रायल्टी इतनी तो देनी ही पड़ेगी। नहीं दे सकेंगे तो किताब वापस ले लूंगा। राजकमल प्रकाशन जैसे लोग उन को यह न्यूनतम रायल्टी प्रति वर्ष अग्रिम दे देते रहे हैं। साल के आखिर में अवशेष रायल्टी भी दे देते हैं। एक बार पेंग्विन ने अरविंद जी का थिसारस तीन भाग में छापा। अरविंद जी ने पेंग्विन से भी ऐसा ही अनुबंध किया। पेंग्विन ने तीन-चार वर्ष तो अनुबंध का पालन किया। फिर अचानक न्यूनतम रायल्टी में घटतौली कर दी। अरविंद जी ने पेंग्विन को लिख कर कहा कि आप ने अनुबंध को तोड़ दिया है। किताब वापस ले रहा हूं। पेंग्विन ने धौंस दी कि इतनी किताबें बची हुई हैं, आप को यह बची किताबें भी वापस लेनी होगी , मूल्य दे कर।
अरविंद जी ने चालीस प्रतिशत छूट के साथ सारी किताबें वापस ले लीं। और सारी किताबें आन लाइन साल भर के भीतर बेच डाली। अब पेंग्विन वाले अरविंद जी से माफी मांगने लगे। कि गलती हो गई। किताब फिर से दे दीजिए । अरविंद जी ने कहा , जब आप को किताब बेचने नहीं आती तो किताब छापते ही क्यों हैं? और किताब नहीं दी, तो नहीं दी। दिक्कत यही है कि हिंदी के प्रकाशक को किताब बेचने नहीं आती और हिंदी के लेखक में रीढ़ और स्वाभिमान शेष नहीं रह गया है। दोनों ही परजीवी हो गए हैं। कायर और नपुंसक हो गए हैं। पाठक के साथ छ्ल-कपट कर रहे हैं।
अरे , अगर आप को किताब बेचने नहीं आती तो लेखकों की पूंजी से कब तक प्रकाशक बने रहेंगे? और जिस लेखक में अपने लेखक के प्रति इतना विश्वास नहीं है, इतना स्वाभिमान नहीं है कि पैसा दे कर किताब छपवाता है , वह काहे का लेखक। ऐसे लेखक को लिखना बंद कर देना चाहिए। और ऐसे प्रकाशक को कोई और कारोबार कर लेना चाहिए। प्रकाशन के धंधे को और कलंकित करने से बाज आना चाहिए। प्रकाशक जब खुद अंधेरे में रहेगा तो लेखक को क्या खाक प्रकाश देगा !
दुर्भाग्य से अब सभी प्रकाशक पैसा ले कर किताब छापने के अभ्यस्त हो गए हैं। राजकमल आदि सभी। हक़ीक़त यह भी है कि सभी प्रकाशक अब बिना रिश्वत के एक भी पुस्तक बेचना भूल चुके हैं। बिना रिश्वत कोई किताब सरकारी खरीद में नहीं बिकती। वह किताब चाहे कितने ही बड़े लेखक की हो। प्रेमचंद की ही क्यों न हो। रिश्वत देने के लिए भी प्रकाशकों में गला काट लड़ाई चलती है। यह विसंगति और विद्रूपता प्रकाशकों की किसी भी कीमत पर पैसा कमाने की बीमारी ने उपस्थित की है। अफसरों और मंत्रियों की स्थिति यह है कि किताब खरीद के लिए सीधे पैसा और औरत की मांग कर देते हैं। और बड़े-बड़े प्रकाशक उन की यह मांग सहर्ष स्वीकार करते हैं। चालीस से अस्सी प्रतिशत तक रिश्वत की परंपरा बन चुकी है। तभी तो 50 रुपए की किताब का मूल्य 500 से 700 रुपए प्रकाशक रखते हैं। पाठक, लेखक दोनों को लूटते हैं।
अब तो खैर मोदी ने किताबों की लगभग सभी सरकारी खरीद पर अघोषित रोक लगा दिया है। तो प्रकाशकों की इस दुरभि'-संधि पर कुछ समय से विराम लगा है। लेखकों की विदेश यात्राओं पर भी विराम लगा दिया है। मेरी खुद की क्रमश: तीन विदेश यात्राएं स्थगित हुई हैं। इस लिए भी अब तमाम लेखक मोदी सरकार से खफा हैं।
एक बात और। तमाम स्थितियों के बावजूद प्रकाशक, कागज़ , छपाई , बाइंडर, रिश्वत तक सब कुछ ऐडवांस खर्च करते हैं , बाखुशी। बस लेखक को रायल्टी देने के लिए उन के पास पैसा नहीं होता। कुतर्क यह कि किताब बिक नहीं रही। माना कि किताब बिक नहीं रही। मैं ऐसे तमाम प्रकाशकों को जानता हूं , जिन के पास हिंदी किताबों के प्रकाशन के अलावा कोई और व्यवसाय नहीं है। पर उन की माली हालत दिन-ब-दिन बहुत अच्छी हुई है। कारें लंबी होती जा रही हैं। कोठियां बड़ी होती जा रही हैं। फार्म हाऊस बढ़ते जा रहे हैं। कैसे भाई ?
आप ही बताएं कि क्या कोई प्रेस वाला हमारी किताब छापे और उस ने मेरी किताब छापी, इस के लिए सहर्ष पैसे भी मुझे दे। क्या यह मुमकिन है ? अगर यह मुमकिन नहीं है तो यह मुमकिन क्यों हो रहा है कि लेखक प्रकाशक को अपनी किताब भी दे और प्रकाशित करने के लिए प्रकाशक को पैसा भी दे ! आखिर क्यों भाई !
अच्छा चलिए आप की बात को मान लेते हैं कि किताबे बिकती नहीं, फिर आप ऐसे घाटे के धंधे में जमे हुए क्यों है। छोड़ भी दीजिए इस घाटे के धंधे को। पर नहीं,सिर्फ़ लेखकों का शोषण करने के लिए आप पैदा हुए हैं। छोड़ भी कैसे दें! और अब तो ऐसे गिरे हुए लेखक भी आ गए हैं जो प्रकाशकों को पैसा दे कर किताब छपवाने में अपनी शान समझ रहे हैं। तो फिर ऐसे में किसी से कुछ कहना क्या, किसी से कुछ सुनना क्या !
( लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार व लेखक दयानंद पाण्डेय की कलम से)
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