जब कहानियां लिखता था तब उन्हें छपने के लिए भेजने को अक्सर ही डाक टिकटों की जरूरत पड़ती थी। कानपुर में घर के नजदीक ही फहीमाबाद डाकखाना था। वहां आना जाना लगा रहता था। बिक्री काउंटर पर जो साहब बैठते थे उनका नाम तो मुझे पता नहीं लेकिन उनकी छवि दिमाग में साफ साफ अंकित है । गोरा रंग, चौड़ा माथा और तीखे नाक नक्श। पूरी आस्तीन की शफ्फाक कमीज, वैसा ही झक सफेद पायजामा और सिर पर सफेद टोपी । कमीज के कालर पर सफेद रूमाल भी टंका रहता था , गोया उनकी यूनीफॉर्म का हिस्सा हो । अपने काम से काम रखने वाले शख्स। मैंने उन्हें कभी अपने किसी सहकर्मी से हंसी मजाक करते या गप मारते भी नहीं देखा। उनकी शख्सियत से एक खास किस्म की नफासत टपकती थी। डाकखाने के मुलाजिम न होते तो किसी नवाब के वारिस समझे जाते । खैर! एक दिन मैं डाक टिकट लेने गया तो मेरे आगे एक बुजुर्गवार लाइन में लगे थे। वह भी नफासत में खिड़की के उस पार वाले महाशय से टक्कर ले रहे थे। उन्होेंने एक एयरोग्राम ( विदेश भेजा जाने वाला इनलैंड लेटर) खरीदा और पूछा कि आस्ट्रेलिया भेजने के लिए और कितने टिकट लगाने पड़ेंगे। काउंटर से उन्हें वाजिब टिकट और दे दिए गए लेकिन उन्होंने काउंटर नहीं छोड़ा । इत्मीनान से सब चीजों का मुआयना किया और बोले, " क्यों जनाब आस्ट्रेलिया के लिए इतने ही टिकट लगेंगे ना ?"
अन्दर से हामी भरे जाने के बावजूद उन्हें इत्मीनान न हुआ और पूछा कि क्यों साहब आस्ट्रेलिया के लिए इतने ही टिकट काफी होंगे ना? अब उधर वाले जनाब का धीरज जवाब दे गया। खीझकर कहा, " हलफनामा दूं क्या ? "
मगर चचा मियां भी कच्ची मिट्टी के बने न थे । बोले, " अमा मियां आप खफ़ा क्यों हो रहे हैं ? शरियत में लिखा है कि शुबहा हो तो तीन बार पूछ लेना चाहिए।"
अब अन्दर वाले साहब ने माथा पीट लिया। बोले ठीक है । एक बार और पूछ लीजिए और परे होइए।
गनीमत रही कि चचा मियां ने तीसरी बार नहीं पूछा और मेरा नंबर आ गया।
(कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार सुशील शुक्ला की कलम से)
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